मंगलवार, 21 जून 2016

संघ को बदनाम करने का राजनीतिक षड़यंत्र

खंडित होकर स्वतंत्र हुए भारत के सामने सबसे पहला पीड़ादायक प्रसंग महात्मा गाँधी की जघन्य हत्या के रूप में प्रस्तुत हुआ। आजादी के बाद देश के विकास में सभी राष्ट्रभक्त शक्तियों का सहयोग लेकर आगे बढ़ने का दायित्व सत्ताधारीयों पर था। किन्तु गाँधी हत्या का प्रयोग सरकार ने अपनी दलगत राजनीति की स्वार्थपूर्ति में किया। गाँधी हत्या से एक दिन पहले दिनांक 29 जनवरी 1948 को प्रधानमन्त्री पं. नेहरू ने अमृतसर की सभा में घोषणा की थी कि ‘हम संघ को जड़-मूल से नष्ट करके ही रहेंगें’। यह संघ को कुचल डालने का षडयंत्र था। संघ पर गाँधी हत्या का आरोप लगाकर बिना किसी सबूत के 4 फरवरी 1948 को संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। देशभर में भयानक विषाक्त वातावरण फैलाया गया। हिंसा, लूटपाट व आगजनी का तांडव सर्वत्र भड़काया गया । समाज विरोधी सारी शक्तियों को खुली छूट दे दी, परिणाम स्वरूप देशभर में मानवता चीत्कार करने लगी और पशुता हुंकारने लगी। विदेशी ब्रिटिश शासन भी जिस निम्न स्तर पर नहीं उतरा था, उससे भी नीचे उतरकर दमन चक्र चलाया गया। 


लेकिन वास्तविकता न्यायिक प्रक्रिया में सामने आ गई। 30 जनवरी 1948 को गाँधी जी की हत्या हुई थी। हत्या करने वाले नाथू राम गोडसे ने पिस्तौल सहित समर्पण कर दिया और जाँच में सामने आया की हत्या में चंद लोग शामिल थे। आरोपी बनायें गए संघ के वर्तमान सरसंघचालक श्री गुरु जी गोलवलकर पर से हत्या का आरोप 6 फरवरी 1948 को सरकार हटाने पर मजबूर हो गई। 


26 फरवरी को जाँच के प्रति असंतोष व्यक्त करते हुए नेहरु जी ने सरदार पटेल को पत्र लिखा। पत्र के उत्तर में सरदार पटेल ने प्रधानमंत्री नेहरु को लिखा – ‘ गाँधी जी की हत्या के संबंध में चल रही कार्यवाही से मै पूरी तरह अवगत हूँ। यह बात भी असंदिग्ध रूप से उभर कर सामने आई है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का इससे कतई संबंध नहीं है’। 

मामला विशेष अदालत में पंहुचा। आई.सी.एस कैडर के न्यायमूर्ति अत्माचरण की विशेष अदालत में दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले में 26 मई से सुनवाई शुरू हुई। अभियोजन पक्ष ने 8 अभियुक्तों के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किये। ये थे – नाथूराम गोडसे और उसके भाई गोपाल गोडसे, नारायण आप्टे, विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, शंकर किस्तैया, दत्तात्रेय परचुरे और स्वतंत्रता सेंनानी विनायक दामोदर सावरकर। दिगंबर बागडे सरकारी गवाह बन गया। 

110 पेजों का निर्णय 10 जनवरी 1949 को सुनाया गया। निर्दोष सावरकर जी को ससम्मान रिहा कर दिया गया। नाथूराम गोडसे व नारायण आप्टे को फांसी और शेष 5 को आजन्म कारावास की सजा सुनाई गई। न्यायमूर्ति आत्माचरण ने निसंदेह यह घोषणा की कि इस षड्यंत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कोई संबंध नहीं है। 

न्याय प्रक्रिया में चारो पक्ष- सरकारी पक्ष, सफाई पक्ष, अभियुक्त पक्ष और न्यायधीश किसी ने भी संघ से इस काण्ड का संबंध नहीं जोड़ा। सरकार की ओर से प्रस्तुत वरिष्ठ अधिवक्ता श्री दफ्तरी ने पुरे मुकदमे में संघ का उल्लेख तक नहीं किया। 

इसके पश्चात पंजाब उच्च न्यायलय में हुई अपील में परचुरे और किस्तैया को बरी कर दिया गया और नाथू राम गोडसे और आप्टे को15 नवम्बर 1949 को फांसी दे दी गई। विशेष न्यायलय और उच्च न्यायलय के निर्णय में भी संघ को निर्दोष घोषित कर दिया गया। परन्तु संघ विरोधी षड्यंत्र चलते रहे।



इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद गाँधी जी की हत्या के 19 वर्षो बाद 1966 में नए सिरे से न्यायिक जाँच हेतु जस्टिस श्री टी.एल कपूर की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन हुआ। गठित आयोग ने 101 साक्ष्यो के बयान दर्ज किये तथा 407 दस्तावेज़ी सबूतों की जाँच पड़ताल कर 1968 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। कपूर आयोग के समक्ष सबसे महत्वपूर्ण सरकारी साक्ष्य – गाँधी हत्या के समय केंद्रीय सचिव श्री आर.एन.बेनर्जी थे – ‘ जिन्होंने सपष्ट रूप से स्वीकारा – “ गाँधी के हत्यारे संघ के सदस्य नहीं थे।” इसके बाद आयोग ने संघ विरोधी और सत्ताधारियों की इस मान्यता को नकार दिया कि गाँधी जी की हत्या में संघ का हाथ था और राष्ट्रव्यापी षड़यंत्र रचा गया था। 

मध्यप्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री रहे पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने अपनी आत्मकथा ‘ लिविंग एन इरा ’ के द्वितीय खंड के पृष्ठ 59 पर लिखा है कि – “ इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि गाँधी जी की हत्या ने स्वार्थी राजनेताओ के हाथ में अपने विरोधियो को बदनाम करने तथा यदि संभव हो तो उन्हें नेस्तनाबूद करने का हथियार दे दिया है।”

यह बात बड़ी दिलचस्प है कि संघ पर से प्रतिबन्ध हटाते समय नेहरु सरकार ने संघ पर लगाए गए आरोपों की चर्चा भी नहीं की। 

प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने लोकसभा के एक प्रश्न के उत्तर में स्वीकार किया कि गाँधी हत्या में संघ का कोई हाथ नहीं है। 

यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है की तीन-तीन न्यायलयों के निर्णयों के बाद भी न्यायपालिका के सम्मान की दुहाई देने वाले आजतक इस झूठ को बार-बार दोहराते है।

शिक्षा का भगवाकरण आखिर क्या?

इस समय शिक्षा के पाठ्यक्रम का भगवाकरण करने होने का आरोपी शोर मचा रहे है | किन्तु “भगवाकरण क्या है”? यह कोई नहीं बताता | अपरिभाषित संप्रदायिकता की तरह शिक्षा के पाठ्यक्रम का अपरिभाषित अमूर्त भगवाकरण के आरोप की आंधी चलाने की कोशिश की जा रही है | सबसे अधिक शोर मचाने वाले वो है जो देश और देश के इतिहास को ‘लाल’ कर देने के लिए लालायित थे, लालायित है; जिन्होंने 6 दशक लगातार देश के इतिहास का चेहरा और चरित्र घिनौना बनाने का षड़यंत्र किया |

स्वतंत्र भारत की कांग्रेस सरकार ने इतिहास को उन कम्यूनिस्टो के हाथो में सौंप दिया, जिनका उद्देश्य भारत के अस्तित्व को नष्ट करना था और जो भारत राष्ट्र को आज भी 16 देशो अर्थात विभिन्न राष्ट्रीयताओं का कृत्रिम समूह मानते है | ये भारत में मजहबी आधार पर द्विराष्ट्र-सिद्धांत के पोषक भी थे | ऐसे लोग भारत का इतिहास कैसे लिखते? भगवाकरण की बात करने वाले इस बात को चालाकी से भुला देते है कि इंदिरा गाँधी के दौर में जब नूरल हसन शिक्षा मंत्री की कुर्सी पर बैठे, तब मार्क्सवादी विचारधारा बिना किसी संवाद के देश पर थोपी गयी थी | और इतिहास परिषद् द्वारा कम्यूनिस्ट महासचिव नंबूदिरीपाद की किताब प्रकाशित हुई, जबकि सुप्रसिद इतिहासकार रमेशचंद्र मजूमदार और यदुनाथ सरकार के लिखे ग्रंथो को कूड़े में डाल दिया गया |

देशवासियों को इस देश के इतिहास, चरित्र और कर्तव्य से भ्रमित करके उनसे सदाचार की आशा नहीं की जा सकती | देश के भीतर इन दिनों जितनी विकृतियां उत्पन्न हुई है और जिनका लाभ देश विरोधी शक्तियाँ उठा रही है, उनकी जड़ में वहीँ लोग है जिन्होंने गलत इतिहास, विकलांग शिक्षा और पराश्रित विकास नीति बनवाई और उन्हें लागू किया | लेकिन अब कांग्रेस के प्रश्रय पर कम्यूनिस्टो द्वारा किये गये बौद्धिक-शैक्षिक गोलमाल और इतिहास के साथ की गयी छेड़-छाड़ से देश का जनमानस परिचित हो चुका है | अब समय है कि देशवासियों को सपष्ट रूप से बताया जाए कि जिस शिक्षा और इतिहास का भगवाकरण करने का आरोप लगाया जा रहा है वह क्या है?

क्या इतिहास की विसंगतियों को दूर नहीं किया जाना चाहिए? क्या कम्यूनिस्टो द्वारा रचित ”आर्य विदेशी और और मुग़ल स्वदेशी” जैसा इतिहास पढाया जाना उचित और देशहित में है? क्या अत्याचारी मुग़ल आक्रांत अकबर को महान और शूरवीर महाराणा प्रताप को पथभ्रष्ट देशभक्त बताकर पुस्तको में पढाया जाना सही है? क्या ज्ञान-विज्ञान की भारतीय जानकारी छात्रों से छिपा कर रखनी चहिये? क्या सरकारी स्तर पर सर्वपंथ समभाव और सामाजिक स्तर पर सर्वपंथ समादर की भावना जागृत करना संप्रदायिकता भड़काना और भगवाकरण करना है? क्या यह सत्य नहीं है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात राधाकृष्णन आयोग 1948-49, कोठारी आयोग 1964-66, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1989, राममूर्ति समिति 1992 आदि सभी आयोगों व समितियों ने शैक्षिक प्रणाली को मूल्य आधारित बनाने की आवश्यकता का प्रतिपादन नहीं किया है? जिन तत्वों को शिक्षा के भारतीयकरण पर आपत्ति है, उन्हें किस श्रेणी में रखा जाना चाहिए – आक्रामको, राष्ट्रद्रोही या विदेशी दलालो की?

राष्ट्रवादी शिक्षा का विरोध करने वाले लोग मुस्लिम मदरसों में दी जा रही मजहबी शिक्षा का विरोध क्यूँ नहीं करते? पश्चिम बंगाल में शिक्षा का पूरी तरह वामपंथीकरण कर देने वाले लोग ही भारतीयकरण का घोर विरोध कर रहे है | समस्त भारत की भाषाओ की माता और भारत की आत्मा की भाषा संस्कृत को पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप में शामिल क्यूँ नहीं होने दिया गया? और अब जब उसे वैकल्पिक विषय के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल किये जाने के प्रयास हो रहे है तो इस पर आपत्ति और शोर क्यूँ मचाया जा रहा है? क्या नेहरु जी जैसे घोर भौतिकवादी व्यक्ति ने भी शिक्षा के आध्यात्मिकरण की आवश्यकता को स्वीकार नहीं किया था? आध्यात्मिकता की बात इस देश में भले ही कुछ लोगो को अच्छी न लगे, लेकिन पश्चिमी देश उसके लिए भारत की ओर देख रहे है | संस्कृत सिखाने वाले विश्वविद्यालयो की संख्या विदेशो में लगातार बढ़ रही है | इसलिए जब तक भारत में कौटिल्य का अर्थशास्त्र, शुक्राचार्य की नीतियाँ, वाल्मीकि और व्यास रचित रामायण, और राजशास्त्र की उपेक्षा की जाती रहेगी, तब तक भारतवासियों को आत्मगौरव का अनुभव नहीं होगा |


एक बाइबिल, एक कुरान को आधार बनाकर दुनिया में सैकड़ो विश्वविद्यालय है – जहां लाखो अध्यापक, विद्यार्थी और शोधकर्ता लम्बे समय से लगे हुए है | दूसरी ओर हिन्दू परंपरा में असंख्य गुरु-गंभीर, दार्शनिक ग्रन्थ है – वेद, उपनिषद् पुराण आदि, किन्तु इनके अध्ययन के लिए एक विश्वविद्यालय तो छोड़िये, कायदे का एक विभाग भी कोई नहीं जानता | यदि कोई शिक्षा-शास्त्री इस विकृति को ठीक करने की बात कहे तो उसे संप्रदायिकता से ग्रस्त बताया जाता है | यह हिन्दू विरोध नहीं तो और क्या है?


क्या यह सच नहीं है कि यह हमारी अब तक की शिक्षा प्रणाली और पाठ्यक्रम का ही दोष है कि बहुत से छात्र परिक्षाओ में विफल रहने के कारण आत्महत्या तक कर लेते है? छात्रों की ज्ञानात्मक, विज्ञानात्मक, भावात्मक, आध्यात्मिक और तथ्यपरक इतिहास की दृष्टि को पुष्ट करना यदि शिक्षा का भगवाकरण करना है तो इस भगवाकरण को शत-शत नमन क्यों नहीं किया जाना चाहिए? जो शिक्षा रोमिला थापर और मार्क्सवादी मण्डली ने पिछले 6 दशको में दी है, वह पूरी तरह विकृत रही है | मार्क्सवादी लोग सबसे अधिक धर्म-निरपेक्षता का शोर मचाते है लेकिन मई 1941 में मार्क्सवादियों ने प्रस्ताव पास कर द्वि-राष्ट्र सिद्धांत और देश के टुकड़े करने का समर्थन किया था | यदि शिक्षा में धर्म-निरपेक्षता की फिक्र है तो देशभर में चल रहे मदरसों का पाठ्यक्रम चिंता का कारण होना चाहिए | इसमें क्या पढ़ाया जाता है, उससे अबोध मुसलमान बच्चो में क्या मानसिकता बनती है – यह वामपंथियों में कभी विचार का विषय नहीं बनता | क्योंकि संप्रदायिकता का रंग तो केवल भगवा होता है |

यथार्थ यह है कि राजनैतिक दंगल में भाजपा का मुकाबला करने में असमर्थ होकर वामपंथी जमात संस्कृत, भारतीय संस्कृति और संस्कार से बैर कर बैठी है |

जब सब बाते साम्यवादी तथा उनके सहकर्मी लेखको रोमिला थापर, सतीशचन्द्र, अर्जुनदेव आदि के आर्थिक स्वार्थो को पूर्ण करने के लिए हो रही थी तब सब लोग लाल थे | जब उनका एकछत्र राज्य समाप्त हुआ तो वो पीले पड़ गये | हम सब लोग जानते है लाल और पीला मिलकर भगवा बनता है | अब उनकी भगवा आँख को हर अच्छी बात बुरी लगती है और इसको भगवाकरण कहते है | अनजाने ही सही, कम्यूनिस्टो और मुस्लिमपरस्तो ने जिस गाली का अविष्कार हिन्दुओ को गाली देने के लिए किया है, वह “भगवा” देश की आत्मा की हुंकार है, जो अब गूंजने लगी है और अभी और गूंजेगी | युगद्रष्टा महर्षि श्री अरविन्द की भविष्यवाणी में आया “भारत का पुरावतरण” मिथ्या नहीं हो सकता |















8 मार्च/इतिहास स्मृति-चित्तोड़ का दूसरा जौहर

मेवाड़ के कीर्ति पुरुष महाराणा कुम्भा के वंश में पृथ्वीराज, संग्राम सिंह, भोजराज और रतनसिंह जैसे वीर योद्धा हुए. आम्बेर के युद्ध में राणा रतन सिंह ने वीरगति प्राप्त की. इसके बाद उनका छोटा भाई विक्रमादित्य राजा बना. उस समय मेवाड़ पर गुजरात के पठान राजा बहादुरशाह तथा दिल्ली के शासक हुमायूं की नजर थी. यद्यपि हुमायूं उस समय शेरशाह सूरी से भी उलझा हुआ था. विक्रमादित्य के राजा बनते ही इन दोनों के मुंह में पानी आ गया, चूंकि विक्रमादित्य एक विलासी और कायर राजा था. वह दिन भर राग-रंग में ही डूबा रहता था. इस कारण कई बड़े सरदार भी उससे नाराज रहने लगे.
वर्ष 1534 में बहादुरशाह ने मेवाड़ पर हमला कर दिया. कायर विक्रमादित्य हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा. ऐसे संकट के समय राजमाता कर्मवती ने धैर्य से काम लेते हुए सभी बड़े सरदारों को बुलाया. उन्होंने सिसोदिया कुल के सम्मान की बात कहकर सबको मेवाड़ की रक्षा के लिए तैयार कर लिया. सबको युद्ध के लिए तत्पर देखकर विक्रमादित्य को भी मैदान में उतरना पड़ा. मेवाड़ी वीरों का शौर्य, उत्साह और बलिदान भावना तो अनुपम थी, पर दूसरी ओर बहादुरशाह के पास पुर्तगाली तोपखाना था. युद्ध प्रारम्भ होते ही तोपों की मार से चित्तौड़ दुर्ग की दीवारें गिरने लगीं तथा बड़ी संख्या में हिन्दू वीर हताहत होने लगे. यह देखकर विक्रमादित्य मैदान से भाग खड़ा हुआ.
इस युद्ध के बारे में एक भ्रम फैलाया गया कि रानी कर्मवती ने हुमायूं को राखी भेजकर सहायता मांगी थी तथा हुमायूं यह संदेश पाकर मेवाड़ की ओर चल दिया, पर उसके पहुंचने से पहले ही युद्ध समाप्त हो गया. वस्तुतः हुमायूं स्वयं मेवाड़ पर कब्जा करने आ रहा था, पर जब उसने देखा कि एक मुसलमान शासक बहादुरशाह मेवाड़ से लड़ रहा है, तो वह सारंगपुर में रुक गया. उधर, विक्रमादित्य के भागने के बाद चित्तौड़ में जौहर की तैयारी होने लगी, पर उसकी पत्नी जवाहरबाई सच्ची क्षत्राणी थी. अपने सम्मान के साथ उन्हें देश के सम्मान की भी चिन्ता थी. वह स्वयं युद्धकला में पारंगत थीं तथा उन्होंने शस्त्रों में निपुण वीरांगनाओं की एक सेना भी तैयार कर रखी थी.
जब राजमाता कर्मवती ने जौहर की बात कही, तो जवाहरबाई ने दुर्ग में एकत्रित वीरांगनाओं को ललकारते हुए कहा कि जौहर से नारीधर्म का पालन तो होगा, पर देश की रक्षा नहीं होगी. इसलिए यदि मरना ही है, तो शत्रुओं को मार कर मरना उचित है. सबने ‘हर-हर महादेव’ का उद्घोष कर इसे स्वीकृति दे दी. इससे पुरुषों में भी जोश आ गया. सब वीरों और वीरांगनाओं ने केसरिया बाना पहना और किले के फाटक खोलकर जवाहरबाई के नेतृत्व में शत्रुओं पर टूट पड़े. महारानी तोपखाने को अपने कब्जे में करना चाहती थी, पर उनका यह प्रयास सफल नहीं हो सका. युद्धभूमि में सभी हिन्दू सेनानी डटे रहे, पर मरने से पहले उन्होंने बहादुरशाह की अधिकांश सेना को भी धरती सुंघा दी.
यह 8 मार्च, 1535 का दिन था. हिन्दू सेना के किले से बाहर निकलते ही महारानी कर्मवती के नेतृत्व में 13,000 नारियों ने जौहर कर लिया. यह चित्तौड़ का दूसरा जौहर था. बहादुरशाह का चित्तौड़ पर अधिकार हो गया, पर वापसी के समय मंदसौर में हुमायूं ने उसे घेर लिया. बहादुरशाह किसी तरह जान बचाकर मांडू भाग गया. इन दोनों विदेशी हमलावरों के संघर्ष का लाभ उठाकर हिन्दू वीरों ने चित्तौड़ को फिर मुक्त करा लिया.

जम्मू कश्मीर का भारत में विलय सम्पूर्ण

“मैं, श्रीमान् ...... महाराजाधिराज श्री हरी सिंह जी ........ जम्मू व कश्मीर का शासक ........ “रियासत पर अपनी संप्रभुता का निर्वाह करते हुए एतद्द्वारा अपने इस विलय के प्रपत्र का निष्पादन करता हूं ....” यह वही प्रपत्र है जिस पर देश की सभी रियासतों के शासकों ने हस्ताक्षर किये थे। जम्मू कश्मीर के शासक महाराजा हरी सिंह ने भी इस प्रपत्रपर ही हस्ताक्षर किये थे। इस विलय को स्वीकार करते हुए तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने लिखा “..... मैं एतद्द्वारा विलय के इस प्रपत्र को अक्तूबर के सत्ताईसवें दिन सन् उन्नीस सौ सैंतालीस को स्वीकार करता हूं।“ यह भी वहीं भाषा है जिसे माउंटबेटन ने अन्य सभी रियासतों के विलय को स्वीकार करते हुए लिखा था। जब विलय का प्रपत्र और स्वीकृति, दोनों ही सभी रियासतों के समान थे तो विवाद का विषय ही कहां बचता है ? अतः कथित विवाद का जो रूप आज हमें अनुभव होता है, वह तथ्य नहीं बल्कि प्रयासपूर्वक गढ़ा गया एक भ्रम है जिसे बनाये रखने में न केवल अलगाववादी तत्वों की बल्कि राज्य व केन्द्र सरकार की भी भूमिका है।
सच यह है कि पाकिस्तान की ओर से हुए आक्रमण की भारी कीमत राज्य के नागरिकों को उठानी पड़ी जिसके कारण आम नागरिक भी पाकिस्तान को आक्रमणकारी मानता था और उसके साथ विलय की सोच भी नहीं सकता था। यहां तक कि प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के सबसे निकट रहे शेख अब्दुल्ला, जिन्हें राज्य का प्रधानमंत्री बनाये जाने की जिद के चलते ही जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय में इतना विलम्ब हुआ, अपने ही कारणों से जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद का विरोध करते थे और पाकिस्तान में विलय के पूरी तरह खिलाफ थे।
इसके बावजूद जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को लेकर जो भ्रम उत्पन्न हुआ उसका मुख्य कारण नेहरू द्वारा राज्य के साथ अन्य रियासतों से भिन्न दृष्टिकोण अपनाया जाना है। विलय करने वाली रियासतों के साथ सामान्य नीति यह थी कि एक चुनी हुई स्थानीय लोकप्रिय सरकार बनायी जाय जिसमें एक मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री राजा के दीवान की वरिष्ठ स्थिति में हो जब तक कि नवस्वाधीन राष्ट्र व्यवस्था को अपने हाथ में न ले ले। जम्मू कश्मीर में यह व्यवस्था भिन्न रूप में पहले से ही लागू थी। किन्तु पं नेहरू की यह जिद थी कि महाराजा विलय के पूर्व ही शेख अब्दुल्ला को सत्ता सौंप दें। महाराजा को यह स्वीकार नहीं था। महाराजा की इस हिचक को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है।
यह नहीं भूलना चाहिये कि हरि सिंह देश की सबसे बड़ी रियासतों में से एक के महाराजा थे। महाराजा हरि सिंह एक देश भक्त राजा थे ।
‘नरेन्द्र मण्डल’ के अध्यक्ष की हैसियत से ही उन्होंने लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया था जिसमें उन्होंने दृढ़ता से भारत की स्वतंत्रता का पक्ष रखा था। उन्होंने ब्रिटिश प्रतिनिधियों को यह भी परामर्श दिया कि वे रियासतों के राजाओं की स्थिति के बारे में अधिक चिंतित न हो और स्वतंत्रता के बाद रियासतों के साथ संबंध का मामला वे रियासतों के राजाओं पर छोड़ दें। स्वाभाविक ही अंग्रेजों को महाराजा का यह आग्रह पसंद नहीं आया और उन्होंने महाराजा को सबक सिखाने का निश्चय कर लिया। 1947 में उन्हें यह अवसर मिल गया।

पृष्ठभूमि
जम्मू कश्मीर में स्वतंत्रता से पूर्व नेशनल कांफ्रेंस और मुस्लिम कांफ्रेंस दो प्रमुख दल सक्रिय थे। 1939 में नेशनल कांफ्रेंस
का गठन हुआ। नेशनल कांफ्रेंस का केवल कश्मीर घाटी में अच्छा प्रभाव था  ।  मुस्लिम कांफ्रेंस को जम्मू के अनेक क्षेत्रो छिट-पुट समर्थन हासिल था। कोई भी दल भारत के खिलाफ नहीं था जिससे यह अनुमान लगाया जा सके कि राज्य की जनता में भारत में विलय के संबंध में कोई ऊहा-पोह थी।
जब भारत की स्वतंत्रता का निश्चय हो गया और यह चर्चा शुरू हो गयी कि अंग्रेज कांग्रेस को सत्ता सौंपेंगे, साथ ही भारत का एक हिस्सा काट कर पाकिस्तान नाम का नया राज्य बनेगा जिसकी बागडोर जिन्ना संभालेंगे, तो शेख के मन में भी यह इच्छा बलवती हो गयी कि कश्मीर की सत्ता उसे सौंपी जानी चाहिये। 1946 में नेशनल कांफ्रेस ने ‘कश्मीर छोड़ो’ का नारा दिया जो अंग्रेजो के विरुद्ध नहीं बल्कि महाराजा के खिलाफ था। उसकी मांग थी कि कांग्रेस की तर्ज पर नेशनल कांफ्रेंस को सत्ता सौंप कर महाराजा कश्मीर छोड़ दें।परिणामस्वरूप महाराजा ने राजद्रोह के आरोप में शेख को कारावास में डाल दिया। पं नेहरू ने शेख के आंदोलन का समर्थन किया जो महाराज और नेहरू के संबंधों में खटास का कारण बना।
पं नेहरू की जिद के चलते महाराजा को शेख के हाथों सत्ता सौंपने को विवश होना पड़ा। किन्तु इससे पूर्व शेख को जेल से तभी छोड़ा गया जब उसने महाराजा के प्रति निष्ठा की शपथ ली। 26 सितम्बर 1947 को महाराजा को लिखे गये अपने पत्र में शेख अब्दुल्ला ने लिखा :–
“इस बात के बावजूद कि भूतकाल में क्या हुआ है, मैं महाराजा को यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि मैंने और मेरी पार्टी ने कभी भी महाराज या उनकी राजगद्दी या उनके राजवंश के प्रति कभी भी अनिष्ठा की भावना नहीं रखी है। ...... महाराज, मैं अपने और अपने संगठन की ओर से आपको पूर्ण निष्ठा व समर्थन का आश्वासन देता हूं .... पत्र खत्म करने से पहले महाराज मैं एक बार फिर अपनी अविचल निष्ठा का आश्वासन देता हूं और ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वह मुझे महामहिम के संरक्षण में वह अवसर प्रदान करें कि इस राज्य को शांति, समृद्धि और सुशासन हासिल हो सके।“
1 अक्तूबर 1947 को श्रीनगर के हजूरी बाग में एक सभा को संबोधित करते हुए शेख ने कहा – ‘जब तक मेरे शरीर में खून की आखिरी बूंद है तब तक मैं द्विराष्ट्र के सिद्धांत में विश्वास नहीं करूंगा।‘ यह दर्शाता है कि मतभेद के बावजूद शेख स्वयं भी पाकिस्तान के साथ जाने को तत्पर नहीं थे। यद्यपि भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के अनुसार विलय का निर्णय करने का अधिकार केवल शासक को ही था, जनमत का वहां कोई संदर्भ ही न था, फिर भी, कहा जा सकता है कि जम्मू कश्मीर का बहुमत, यहां तक कि मुस्लिम बहुमत भी भारत में विलय के विरुद्ध नहीं था।

विवाद की जड़
देखा जाय तो सारे विवाद की जड़ में है विलय पत्र पर हस्ताक्षर के साथ ही माउंटबेटन द्वारा महाराजा हरि सिंह को लिखा गया पत्र, जिसमें उन्होंने जनता की राय लेने की बात कही। उन्होंने लिखा – “अपनी उस नीति को ध्यान में रखते हुए कि जिस रियासत में विलय का मुद्दा विवादास्पद हो वहां विलय की समस्या का समाधान रियासत के लोगों की आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए किया जाय, मेरी सरकार की इच्छा है कि जब रियासत में कानून और व्यवस्था बहाल हो जाय और इसकी भूमि को आक्रमणकारियों से मुक्त कर दिया जाय तो रियासत के विलय का मामला लोगों की राय लेकर सुलझाया जाय।“ इस पत्र की कीमत सिर्फ यही है कि यह गवर्नर जनरल द्वारा महाराजा हरि सिंह को लिखा गया है। इसकी कोई वैधानिक स्थिति नहीं है क्योंकि इस प्रकार के सशर्त विलय का कोई प्रावधान भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 में नहीं था।
यह तथ्य है कि महाराजा ने अपने हस्ताक्षर किये हुए विलय पत्र के साथ एक पत्र भेजा था जिसमें विलय का निर्णय करने में हुए विलम्ब के कारणों पर प्रकाश डाला था। किन्तु उन्होंने इसमें कहीं भी राज्य में विलय को लेकर हुए किसी विवाद की चर्चा तक नहीं की है। न तो उसमें भारत में विलय को लेकर जनता के विरोध का उल्लेख है और न ही पाकिस्तान के साथ विलय अथवा स्वतंत्रता की मांग संबंधी किसी आन्दोलन का जिक्र। अन्य उपलब्ध दस्तावेजों में भी कहीं ऐसे किसी विवाद का संदर्भ नहीं मिलता। फिर भी माउंटबेटन द्वारा विलय को विवादित बताया जाना किसी दूरगामी राजनीति की ओर संकेत करता है।
माउंटबेटन ने 27 अक्तूबर 1957 को यह पत्र महाराजा के पत्र के उत्तर में लिखा था। यद्यपि वैधानिक आधार पर इस पत्र का कोई मूल्य नहीं, किन्तु फिर भी गवर्नर जनरल ने जनमत संग्रह का प्रपंच रचते समय इसे अपनी निजी राय नहीं बताया। वे इसे ‘अपनी सरकार की इच्छा’ कहते हैं। यदि यह सत्य है तो इसके कारण राष्टीय हित को पहुंचे नुकसान की जिम्मेदारी तत्कालीन कांग्रेस सरकार तथा व्यक्तिगत रूप से प्रधानमंत्री नेहरू की बनती है। यदि यह झूठ है तो गवर्नर जनरल द्वारा सरकार का नाम लेकर लिखे गये इस झूठ का आज तक खण्डन क्यों नहीं किया गया ? साथ ही, यदि यह सरकार की नीति थी तो इसे केवल जम्मू कश्मीर पर ही क्यों लादा गया ? माउंटबेटन अथवा सरकार द्वारा किसी भी रियासत को इस प्रकार का कोई पत्र नहीं भेजा गया। यह प्रश्न आज भी जिंदा हैं और उत्तर चाहते हैं।
इस पत्र में माउंटबेटन यह भी लिखते हैं कि – ‘मुझे और मेरी सरकार को यह जानकर काफी संतुष्टि है कि महामहिम ने अपने प्रधानमंत्री के साथ काम काम करने के लिये शेख अब्दुल्ला को अंतरिम सरकार बनाने के लिये आमंत्रित किया है।‘ अनेक बार लोग कश्मीर में नेहरू की व्यक्तिगत रुचि तथा शेख के साथ उनकी व्यक्तिगत मित्रता को सारे फसाद की जड़ बताते हैं किन्तु इन जटिल परिस्थितियों में जेल से छुड़ा कर शेख को सत्ता सौंपने में माउंटबेटन की इतनी रुचि क्यों थी, इसका उत्तर उनके पत्र से नहीं मिलता। महाराजा हरि सिंह द्वारा माउंटबेटन अथवा ‘उनकी सरकार’ द्वारा विलय के साथ जोड़ी गयी कथित शर्तों को स्वीकार किया गया था अथवा यह शर्तें विलयपत्र का अंग बनीं, इसकी पुष्टि करने वाला भी कोई दस्तावेज मौजूद नहीं है। इसके बावजूद पत्र का सहारा लेने वाले अलगाववादी महाराजा हरिसिंह द्वारा लिखे गये पत्र को जान-बूझ कर नजरअंदाज कर देते हैं जिसमें वे स्पष्ट लिखते हैं कि मेरी रियासत के लोगों, हिन्दू और मुसलमान दोनों ही ने आम तौर पर इस उथल-पुथल में कोई हिस्सा नहीं लिया है। भारत सरकार द्वारा भी इस भ्रम को दूर करने के लिये अपेक्षित उपाय नहीं किये गये। माउंटबेटन के इस अवांछित हस्तक्षेप के पीछे पं. नेहरू से निजी संबंध तो संभवतः कारण थे ही, ब्रिटिश रणनीति भी कहीं-न-कहीं साथ चल रही थी। 5 फरवरी 1948 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में बहस के दौरान शेख अब्दुल्ला द्वारा “जम्मू कश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण मुद्दा है, विलय नहीं” कहे जाने के बावजूद पाकिस्तान के खिलाफ भारत की शिकायत की सुनवाई के समय इंग्लैंड और अमेरिका द्वारा जिस तरह पाकिस्तान का पक्ष लिया गया उससे इस संदेह की पुष्टि होती है। पाकिस्तान द्वारा जम्मू कश्मीर राज्य की भूमि को आक्रमणकारियों द्वारा खाली कराये जाने के अपने ही प्रस्ताव को लागू कराने के लिये संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा भी कुछ नहीं किया गया।
पाकिस्तान के खिलाफ शिकायत का मसौदा बनाये जाते समय और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के समक्ष शिकायत दर्ज कराते समय भारत सरकार द्वारा महाराजा हरि सिंह से परामर्श नहीं किया गया। तत्कालीन उपप्रधानमंत्री वल्लभ भाई पटेल को संबोधित 31 जनवरी 1948 के पत्र में महाराज हरि सिंह ने इस संदर्भ में अपनी चिंता व्यक्त की थी। उन्होंने इस पर गहरा खेद व्यक्त किया कि विलय के दो महींने के भीतर ही भारत ने मंगला घाटी, अलीबेग, गुरद्वारा, मीरपुर कस्बा, भिम्बर कस्बा, देवा और कोटली क्षेत्र, पाकिस्तान के हाथों गंवा दिये। उन्होंने यहां तक प्रस्ताव किया कि वह खुद भारतीय सेना की कमान का नेतृत्व करना चाहते हैं ताकि राज्य से घुसपैठियों और पाकिस्तानी सैन्य बलों को खदेड़ा जा सके। किन्तु लगता है कि विलय के पश्चात भारत सरकार ने महाराजा की पूर्ण उपेक्षा का मन बना लिया था।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि 1 जनवरी 1958 को संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुच्छेद 35 के अनुसार जम्मू कश्मीर पर पाकिस्तान के आक्रमण के मुद्दे को सुरक्षा परिषद में उठाते हुए भारत सरकार ने कहा - “वे आक्रमणकारी जिनमें पाकिस्तान के नागरिक और कबाइली शामिल हैं, जम्मू-व-कश्मीर जिसने भारत में विलय कर लिया है और जो भारत का अंग है, में कार्रवाई करने के लिये पाकिस्तान से सहायता ले रहे हैं। इस कारण से भारत और पाकिस्तान के बीच यह स्थिति पैदा हुई है। भारत सरकार सुरक्षा परिषद से प्रार्थना करती है कि वे पाकिस्तान से इस तरह की कार्रवाई रोकने के लिये कहें क्योंकि ऐसी सहायता भारत के विरुद्ध आक्रमण की कार्रवाई है और यदि पाकिस्तान नहीं रुका तो भारत सरकार आत्मरक्षा में पाकिस्तानी सीमा में घुसने और आक्रमणकारियों के विरुद्ध सैनिक अभियान चलाने के लिये मजबूर हो जायेगी।“ इसके ठीक एक वर्ष बाद 1 जनवरी 1949 को पाकिस्तान के अवैध कब्जे को खाली कराये बिना ही भारत ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी। युद्ध विराम के समय पाकिस्तान 85000 वर्ग किमी भू-भाग पर अवैध अधिकार किये हुए था जो आज भी जारी है।

संवैधानिक स्थिति
17 जून 1957 को भारतीय स्वाधीनता अधिनियम 1947 ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किया गया। 18 जुलाई को इसे शाही स्वीकृति मिली जिसके अनुसार 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई तथा उसके एक भाग को काट कर नवगठित राज्य पाकिस्तान का उदय हुआ। पाकिस्तान के अधीन पूर्वी बंगाल, पश्चिमी पंजाब, उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत एवं सिंध का भाग आया। ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहा शेष भू-भाग भारत के साथ रहा।
* इस अधिनियम से ब्रिटिश भारत की रियासतें अंग्रेजी राज की परमोच्चता से तो मुक्त हो गईं, परन्तु उन्हें राष्ट्र का दर्जा नहीं मिला और उन्हें यह सुझाव दिया गया कि भारत या पाकिस्तान में जुड़ने में ही उनका हित है। इस अधिनियम के लागू होते ही रियासतों की सुरक्षा की अंग्रेजों की जिम्मेदारी भी स्वयमेव समाप्त हो गई।
* भारत शासन अधिनियम 1935, जिसे भारतीय स्वाधीनता अधिनियम 1947 में शामिल किया गया, के अनुसार विलय के बारे में निर्णय का अधिकार राज्य के राजा को दिया गया। यह भी निश्चित किया गया कि कोई भी भारतीय रियासत उसी स्थिति में दो राष्ट्रों में से किसी एक में मिली मानी जायेगी, जब गवर्नर जनरल उस रियासत के शासन द्वारा निष्पादित विलय पत्र को स्वीकृति प्रदान करें।
* भारतीय स्वाधीनता अधिनियम 1947 में सशर्त विलय के लिये कोई प्रावधान नहीं था।
26 अक्तूबर 1947 को महाराजा हरिसिंह ने भारत वर्ष में जम्मू-कश्मीर का विलय उसी वैधानिक विलय पत्र के आधार पर किया, जिसके आधार पर शेष सभी रजवाड़ों का भारत में विलय हुआ था तथा भारत के उस समय के गवर्नर जनरल माउण्टबेटन ने उस पर हस्ताक्षर किये थे.... “मैं एतद्द्वारा इस विलय पत्र को स्वीकार करता हूं'' दिनांक सत्ताईस अक्तूबर उन्नीस सौ सैंतालीस (27 अक्तूबर 1947) महाराजा हरिसिंह द्वारा हस्ताक्षरित जम्मू-कश्मीर के विलय पत्र से संबंधित अनुच्छेद, जो कि जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय को पूर्ण व अंतिम दर्शाते हैं, इस प्रकार हैं :-
(अनुच्छेद -1) ''मैं एतद्द्वारा घोषणा करता हूं कि मैं भारतवर्ष में इस उद्देश्य से शामिल होता हूं कि भारत के गवर्नर जनरल, अधिराज्य का विधानमंडल, संघीय न्यायालय, तथा अधिराज्य के उद्देश्यों से स्थापित अन्य कोई भी अधिकरण (Authority), मेरे इस विलय पत्र के आधार पर किन्तु हमेशा इसमें विद्यमान अनुबंधों (Terms) के अनुसार, केवल अधिराज्य के प्रयोजनों से ही, कार्यों का निष्पादन (Execute) करेंगे।''
(अनुच्छेद - 9) ''मैं एतद्द्वारा यह घोषणा करता हूं कि मैं इस राज्य की ओर से इस विलय पत्र का क्रियान्वयन (Execute) करता हूं तथा इस पत्र में मेरे या इस राज्य के शासक के किसी भी उल्लेख में मेरे वारिसों व उतराधिकारियों का उल्लेख भी अभिप्रेत हैं।
विलय पत्र में अनुच्छेद -1 के अनुसार, जम्मू-कश्मीर भारत का स्थायी भाग है।
* भारतीय संविधान के अनुच्छेद -1 के अनुसार जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग है। भारत संघ कहने के पश्चात दी गई राज्यों की सूची में जम्मू-कश्मीर क्रमांक -15 का राज्य है।

महाराजा हरी सिंह ने अपने पत्र में कहा:-
“मेरे इस विलय पत्र की शर्तें भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1957 के किसी भी संशोधन द्वारा परिवर्तित नहीं की जायेंगी, जब तक कि मैं इस संशोधन को इस विलय पत्र के पूरक (Instrument Supplementary) में स्वीकार नहीं करता।''
भारतीय स्वाधीनता अधिनियम 1947 के अनुसार शासक द्वारा विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने के उपरान्त आपत्ति करने का अधिकार पंडित नेहरू, लार्ड माउण्टबेटन, मोहम्मद अली जिन्ना, इंग्लैंड की महारानी, इंग्लैंड की संसद तथा संबंधित राज्यों के निवासियों को भी नहीं था।
1951 में राज्य संविधानसभा का निर्वाचन हुआ। संविधान सभा में विपक्षी दलों के सभी प्रत्याशियों के नामांकन निरस्त कर दिये गये। सभी 75 सदस्य शेख अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कांफ्रेंस के थे जिनमें से 73 कोई अन्य प्रत्याशी न होने के कारण निर्विरोध निर्वाचित मान लिये गये। मौलाना मसूदी इसके अध्यक्ष बने। इसी संविधान सभा ने 6 फरवरी 1954 को राज्य के भारत में विलय की अभिपुष्टि की। 14 मई 1954 को भारत के महामहिम राष्ट्रपति ने भारतीय संविधान के अस्थायी अनुच्छेद 370 के अंतर्गत संविधान आदेश (जम्मू व कश्मीर पर लागू) जारी किया जिसमें राष्ट्र के संविधान को कुछ अपवादों और सुधारों के साथ जम्मू व कश्मीर राज्य पर लागू किया गया।
राज्य का अपना संविधान 26 जनवरी 1957 को लागू किया गया जिसके अनुसार :-
धारा - 3 : जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा।
धारा - 4 : जम्मू-कश्मीर राज्य का अर्थ वह भू-भाग है जो दि.15 अगस्त 1947 तक राज्य के राजा के आधिपत्य या संप्रभुता के अधीन था I
इसी संविधान की धारा -147 में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि धारा - 3 व धारा - 157 को कभी बदला नहीं जा सकता।
1975 के इंदिरा-शेख अब्दुल्ला समझौते में पुन: यह कहा गया कि :- जम्मू-कश्मीर राज्य भारतीय संघ का एक अविभाज्य अंग है, इसका संघ के 'साथ' अपने संबंधों का निर्धारण भारतीय संविधान के अस्थायी अनुच्छेद -370 के अंतर्गत ही रहेगा।
14 नवम्बर 1962 को संसद में पारित संकल्प एवं 22 फरवरी 1994 को संसद में सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव में स्पष्ट रूप से यह कहा गया कि जो क्षेत्र चीन द्वारा (1962 में) व पाकिस्तान द्वारा (1947 में) हस्तगत कर लिये गये, वह हम वापिस लेकर रहेंगे, और इन क्षेत्रों के बारे में कोई सरकार समझौता नहीं कर सकती।
इतने तथ्यों के बावजूद जो लोग भ्रम का वातावरण निर्माण कर रहे हैं अथवा अलगाववादी मांगों का समर्थन कर रहे हैं वे प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में सहभागी है। समय आ गया है कि केन्द्र व राज्य सरकार ऐसे तत्वों से कड़ाई से निपटे। साथ ही इन तथ्यों को देश की जनता तक स्पष्ट रूप से पहुंचाए जाने के गंभीर प्रयास हों ताकि इस विषय पर गत छः दशक से अधिक से छाया कुहासा छंट सके। राष्ट्रीय की अभिवृद्धि हो तथा जम्मू कश्मीर के वे नागरिक जो अनुछेद 370 की आड़ में बनाये गए प्रावधानों के चलते अपने मौलिक अधिकारों से वंचित है, उन्हें देश की मुख्य धारा में शामिल होने का अवसर मिल सके।

विजय दशमी

विजय दशमी शक्ति का पर्व है। अधर्म पर धर्म की विजय राक्षसत्व पर आर्यत्व की विजय और असुरों पर सुरों की विजय का प्रतीक है। इसलिये यह दिन विजय तथा उल्लास के पर्व के रूप में मनाया जाता है।
यदि इतिहास पर दृष्टि डालें तो इस दिन अनेक महत्वपूर्ण एवं समाज को नयी दिशा देने वाले कार्य हुए। देवराज इंद्र ने महर्षि दधीचि की हड्डियों का वज्र बनाकर वृत्तासुर का वध इस दिन किया था त्रेता युग में भगवान राम ने रावण का वध करके भरतखण्ड को राक्षसत्व से मुक्त किया था ''राम की जय हो'' का जयघोष गूँजा देशवाशी ''जय राम जी की'' बोलकर एक दूसरे का अभिवादन करते है।
द्वापर में पांडवों ने अपने प्रथम अज्ञातवास को समाप्त करके पाञ्चाल नरेश द्रुपद के द्वारा आयोजित स्वयंवर सभा में द्रोपदी का वरण किया अधर्म पर धर्म की जय के प्रतिक स्वरूप महाभारत के महान युद्ध का प्रारम्भ आज के दिन हुआ। प्राचीन काल में आज के दिन शस्त्रों की पूजा की जाती थी इसी कारण प्राकृतिक भी रहा होगा। क्योंकि वर्षा ऋतु में नदी नाले भर जाते थे और सभी प्रकार की यात्रायें बंद हो जाती थी।
वर्षा के पश्चात क्षत्रिय लोग अपने शस्त्रों को निकालकर उनकी सफाई तथा पूजा किया करते थे। शस्त्र शक्ति के वाहक है। राजस्थान में आज भी शास्त्रीय पद्धति से शस्त्रों की पूजा की जाती है। आज ही दिन परम पूज्य डॉ. साहब ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की जो 1925 से अनवरत राष्ट्र के कल्याण हित कार्य कर रहा है जिसका एकमात्र लक्ष्य है भारत को अखंडता के शिखर पर विराजमान कर देश को पुनः परम वैभव पर ले जाना। संघ के स्वयंसेवक आज के दिन शस्त्र पूजन के रूप में कार्यक्रम संपन्न करते है। भारत के सभी प्रांतों में यह त्यौहार मनाया जाता है।
बंगाल में दुर्गा पूजा का पर्व सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। नक्शलवादी जो नास्तिक है और अपने को वाम मार्गी विचारधारा से जुड़ा मानते है वे भी दुर्गा पूजा करते है और माँ दुर्गा का आशीष प्राप्त करना चाहते है। बंगाली समाज न केवल बंगाल में अपितु देश में जहा कही भी रहता है, वह दशमी के दिन देवी दुर्गा की प्रतिमा को सजा संवार कर बहुत धूम धाम से जलूस की तरह निकलता है। गाते बजाते हुए जाता है और निकट के जलाशय अथवा नदी में मूर्ति को प्रवाहित करते है। उनका विश्वास है कि आसुरी शक्तियों का विनाश करके देवी आज के दिन शिव के धाम कैलाश पर्वत पर चली जाती है।
पर्वतीय प्रदेशों में यह त्यौहार उल्लास के साथ मनाया जाता है। कुल्लू माँ दशहरा प्रसिद्ध है, मैसूर का दशहरा प्रसिद्ध है, मैसूर का दशहरा अपने कलात्मक सौंदर्य अथवा भव्यता की दृष्टि से चर्चित है। यहाँ हाथी घोड़ों तथा ऊंटों की सुन्दर सवारी निकलती है। विदेशों में राम लीलायें होती है। मॉरीशस में दशहरे के दिन रावण, कुम्भकर्ण, मेघनाद इत्यादि के पुतलों का दहन किया जाता है।
उत्तर भारत में राम की रावण पर विजय के रूप में यह पर्व मनाया जाता है, 9 दिनों तक राम लीलाएं होती है। 11वें दिन राम राम लीला की भव्य झांकी निकली जाती है। किसी बड़े मैदान में भगवान राम और रावण के युद्ध का प्रदर्शन होता है।


इतिहास दृष्टि - ऋग्वेद पहले या सिन्धु घाटी सभ्यता

स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय इतिहास का विषय आज भी देश के जनमानस के लिए आश्चर्य तथा निराशा का विषय बना हुआ है। विश्व के पराधीन रहे अनेक देशों ने स्वाधीन होते ही अपने-अपने देश के इतिहास को राष्ट्रीय चैतन्य के प्रकाश में सही लिखा तथा उसमें तथ्यों के आधार पर परिवर्तन, संशोधन अथवा पुनर्लेखन किये हैं। परंतु भारत में ब्रिटिश शासकों ने जाते-जाते सत्ता का हस्तांतरण अपने चहेते पं. जवाहरलाल नेहरू तथा कांगे्रेस को एक सुन्दर सोने की थाली में रखकर सभी प्रजातांत्रिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर सौंप गये। कांग्रेस भी कभी ब्रिटिश शासकों द्वारा दी गई बरकतों को न भूली, वह अब भी उनकी आरती उतारने में लगी है। पाश्चात्य मॉडल से प्रेरित हो उन्होंने भारतीय संविधान बनाया तथा भारतीय मार्क्सवादियों के सक्रिय सहयोग से भारतीय इतिहास को भ्रमित, विकृत करने में कोई कसर न रखी। स्वामी विवेकानंद ने ब्रिटिश शासकों द्वारा प्रचारित इतिहास को 'सूडो' ऐतिहासिक प्रचार व राजनीति प्रेरित बताया है।
यह भारत का सामान्य व्यक्ति भी जानता है कि भारत विश्व का प्राचीनतम जीवित राष्ट्र है। यह तब भी धनधान्य से सम्पन्न, अत्यंत गौरवशाली राष्ट्र था जब न ईसा का जन्म हुआ न इस्लाम का कहीं अता-पता था, न यूनान के नगर राज्यों का अस्तित्व था और न रोम नगर का निर्माण (जन्म 753 ई.पू.) हुआ था। अंग्रेजों ने भारतीयों में हीन भावना तथा राष्ट्र विस्मृति पैदा करने, अपने साम्राज्य को दृढ़ करने तथा भारत को एक ईसाई देश बनाने हेतु ही इसके इतिहास में अनेक भ्रांतियों-मिथकों को फैलाया था। उन्होंने बाइबिल के आधार पर सृष्टि की उत्पत्ति, मानव का विकास, आर्य समस्या, काल गणना आदि पर अपने मनमाने निष्कर्ष दिये तथा उनका योजनापूर्वक प्रसार किया। इसी भांति उन्होंने भारत की प्राचीनता, इतिहास के कालक्रम पर काल्पनिक तथा अप्रमाणित व्याख्या प्रस्तुत की।
इतिहास : काल प्रवाह
भारत तथा विश्व के इतिहासकारों, वैज्ञानिकों नक्षत्र विधा के ज्ञााताओं तथा अन्य विद्वानों ने अपने-अपने शोध के आधार पर सृष्टि की उत्पत्ति तथा मानव विकास की कहानी को वर्णित किया है। भरतीय इतिहास में सृष्टि की उत्पत्ति 197 करोड़ वर्ष पूर्व मानी गई है। यह गणना वेदों, पुराण ग्रंथों तथा मनुस्मृति में एक जैसी है। विदेशियों ने भी इस पर अपने विचार व्यक्त किये है। चीन ने सृष्टि की उत्पत्ति 10 करोड़ वर्ष ई. पूर्व, खताई ने 9 करोड़ वर्ष पूर्व मानी है। इसके पश्चात क्रमश: मिस्र, पारसी, तुर्की तथा यहूदियों ने कालगणना कम कर दी है। अंत में यूनानी, रोमन, ईस्वी तथा हिजरी मानी जाती है। विश्व के प्राय: सभी वैज्ञानिक वर्तमान काल में भारतीय कालगणना को निकटतम तथा सही मानते हैं। इसका आधार भूगोल, भूगर्भशास्त्र, शरीर विज्ञान, खगोल विधा, जीवोत्पत्ति शास्त्र आदि हैं।
सृष्टि की उत्पत्ति की भांति मानव इतिहास के संदर्भ में विवेचना की गई है। यह आश्चर्यजनक है कि 165 ई. में आयरलैंड के एक आर्च पादरी यूजेर ने घोषणा की कि मानव सृष्टि ईसा से 4004 वर्ष ई. पूर्व 23 अक्तूबर को प्रात: 9 बजे हुई। साथ ही यह भी आदेश दिया कि जो ये नहीं मानेगा वह पाखण्डी समझा जाएगा तथा उसको कठोरतम सजा दी जायेगी। पादरी की इस घोषणा को विश्व के ईसाई समाज ने ईश्वरीय वाक्य के रूप में अपनाया (देखें, हिस्टोरियन्स ॲाफ द वर्ल्ड, भाग एक, 1908, पृ. 626) गंभीर चिंतन का विषय है कि यूरोप के इतिहासकारों ने भी इस तथ्यहीन पांथिक घोषणा को भी पूर्णत: स्वीकार किया। मैक्समूलर ने इसका प्रचार किया। भारत में प्रथम ब्रिटिश प्राच्यवादी इतिहासकार सर विलियम जोन्स (1743-1791) ने अपने 11वें भाषण में 1791 ई. में इसके आधार पर भारतीय इतिहास की मनमानी व्याख्या की। अर्नोल्ड टायनबी ने इसका अनुसरण किया। उन्होंने एक हिस्टोरिकल एटलस बनाया जिसमें सामान्यत: विश्व की सभ्यताओं का विकास 2000 ई. पूर्व से दिखलाया। एक अमरीकी जॉन वी स्पार्क ने 1975 ई. में विश्व का एक हिस्ट्रो मैप तैयार किया जिसमें विश्व सभ्यताओं का विकास तथा पतन दिखलाया तथा इसका प्रारंभ भी 2000 वर्ष ई. पूर्व से किया। एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका ने ईसाइयत के पूर्व के काल को अज्ञानतापूर्ण तथा अंधकारमय बताया। इसी संदर्भ में यूनानियों ने अपने देश को विश्व की प्राचीनतम सभ्यता का देश अर्थात 4004 वर्ष ई. पूर्व का माना। रोम का निर्माण आठवीं शताब्दी ई. पूर्व हुआ, तभी लैटिन भाषा का विकास हुआ। उन्होंने भी अपने को प्राचीनतम सभ्यता का देश कहा। वस्तुत: इन सभी ने यदि वैदिक साहित्य को जरा भी पढ़ा होता या केवल प्रत्यक्ष पुस्तकों का दर्शन किया होता तो उनके ये सभी कृत्रिम तर्क व खोखली मान्यतायें जरा भी टिक न पाते।
सिन्धु सभ्यता
1921-22 ई. में सिंधु घाटी के कुछ भागों में उत्खनन की जानकारी से विश्व के इतिहासकारों, पुरातत्ववेत्ताओं में खलबली सी मच गई। जहां भारतीयों में असीम प्रसन्नता का संचार हुआ, वही अनेक विदेशी इतिहासकारों ने अनेक नए-नए भ्रम व मिथक गढ़े तथा काल्पनिक निष्कर्ष निकाले।
वस्तुत: 1856 ईं. में ब्रिटिश सरकार ने कराची से लाहौर तक रेलवे लाइन बनाने का प्रयत्न किया था। उन्हें कुछ ईंटों की आवश्यकता पड़ी थी। आसपास के हड़प्पा खण्डहर से कुछ ईंटें ली गई थीं। 1921-22 में राखलदास बनर्जी ने एक बौद्ध स्तूप की खुदाई करवाते समय यह अनुमान लगाया कि इसके आस-पास किसी नगर के ध्वंसावशेष होने चाहिए। अत: इसे पहले मोहनजोदड़ों-हडप्पा सभ्यता, फिर सिन्धु घाटी की सभ्यता तथा अब सरस्वती नदी से जुड़े अनेक स्थल मिलने से, सिन्धु सरस्वती सभ्यता ठीक नाम दिया जाता है।
ब्रिटिश इतिहासकारों तथा पुरातत्ववेत्ताओं ने अपने पूर्वाग्रहों से प्रेरित हो इसके निष्कर्ष भारत की प्राचीनता, प्राचीन वैदिक साहित्य तथा उससे सम्बंध न मिकालकर बाइबिल के मापदण्ड से निकाले। उन्होंने पहले ही 1866 ई. में एक प्रस्ताव पारित किया था कि भारत में आर्य बाहर से आए। अत: उसी को मानते हुए इस सभ्यता के जनक 'द्रविड' बतलाए तथा इसे 4004 वर्ष पूर्व के बाद की अर्थात 3000 वर्ष ई. पूर्व से लेकर 1500 ई. वर्ष पूर्व तक की सभ्यता का काल माना तथा इसका विनाश आयोंर् के कपोलकल्पित आक्रमम से गढ़ा।
सिन्धु सरस्वती नदी का प्रथम प्रणेता ब्रिटिश भूगर्भ विज्ञानी सर मोर्टिकर व्हीलर था जो सिन्धु के उत्खनन से जुड़ा था तथा जिसे 1944 में  डाइरेक्टर जनरल आर्कियोलोजी सर्वे ऑफ इंडिया बनाया गया था।
अनेक भारतीय विद्वानों ने अंग्रेजों के भ्रामक तथा योजनापूर्वक प्रस्तुत काल्पनिक विचारों का कोई आधार न होने पर स्वीकार न किया, प्राचीन नगरी द्वारिका के खोजकर्ता प्रो. एस. आर. राव ने आयोंर् के आक्रमण के विचार का विरोध किया। (देखे डॉन एण्ड डील्यूशन ऑफ द इन्डस सिविलाइजेशन, दिल्ली, 1991, पृ. 324) प्रसिद्ध विद्वान जी बी लाल ने व्हीलर के विचार को अस्वीकार किया। (जी.बी.लाल, द इंडस सिविलाइजेशन, कल्चरल हिस्ट्री ऑफ इंडिया (सम्पादन ए.एल.वराय (1875 पृ. 19) प्रसिद्ध पुरातत्ववेता वी.के. थापर ने लिखा- पुरातत्व के अनुसार यह सिद्ध नहीं होता कि आर्य बाहर से आए- शांतिपूर्वक या आक्रमणकारी के रूप में।
वैदिक युग पूर्व यह सर्वमान्य है कि ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इसे कम से कम दस हजार वर्ष पूर्व का माना है। ऋग्वेद के प्रसिद्ध ज्ञाता अविनाश चन्द्र दास ने ऋग्वेद की रचना कम से कम 25000 वर्ष मानी है तथा आर्यों के भारत पर आक्रमण करने वालों को उन्होंने अपनी व्यंग्यपूर्ण शैली में कहा- आर्य ने औपनिवेशकर्ता थे न भारत के थे, बल्कि यहां के मूल निवासी थे। (देखें, ऋग्वैदिक इंडिया, पृ. 61-62)
वेदों को ईश्वरीय ज्ञान तथा ईश्वर की वाणी माना गया है। वेदों के अध्ययन से व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन की आदर्श व्यवस्था, एक वैभव सम्पन्न राष्ट्र की कल्पना, मानवीय गणों के विकास का बोध, सृष्टि और प्रलय की व्याख्या, समाज रचना और राजनीतिक व्यवस्था आदि का ज्ञान प्राप्त होता है। स्वामी विवेकानन्द ने वेदों को हिन्दुओं का आदि ग्रन्थ, स्वामी दयानन्द ने सत्य का प्रकाश, महर्षि अरविन्द ने भारतीय संस्कृति का आधार माना है। पं. दामोदर सातवलेकर का मत है संसार का कोई ज्ञान ऐसा नहीं है जो वेदों में न हो। वेद वाङ्मय में मुख्यत: चारों वेद- ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद तथा अथर्ववेद आते हैं। वैदिक ग्रन्थों  में ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, वेदान्त, दर्शन तथा उपवेदों के ज्ञान का असीम भण्डार आता है।
प्रारम्भ में कुछ पाश्चात्य विद्वानों जॉन.एच हालवैल (1711-1790) क्यो कुरोफर्ड (1790) एवं वाल्वेयर आदि ने इन ग्रन्थों की सराहना की, पर शीघ्र ही वे इनसे भयभीत हो गए। उन्होंने ईसाइयत के मापदण्डों को अपनाते हुए वेदों को गडरियों या देहातियों के गीत कहा। कीथ बुहलर, मैक्डोनाल्ड, सर विलियम जोन्स ने इनका काल केवल 1500 ई. पूर्व से 1200 ई.पू. माना, अर्थात् इन्हें सिन्धु घाटी की सभ्यता के बाद का बतलाया, आर्यों की भारत पर आक्रमण की कहानी गढ़ी। पहले ही 1820में जे.सी रोहेेडस ने, 1847 में क्रिश्चियन चार्ल्स लेसर ने बेतुके तर्क दिए। मैक्समूलर ने  1861 ई. में आर्यों को भारत पर पहला आक्रमणकारी तथा अपने (बिट्रिश) को अंतिम बतलाया। (देखें, लैक्चर्स ऑन द साइंस ऑफ लैंग्वेज, लंदन, 1861)
संक्षेप में पाश्चात्य इतिहासकारों ने न केवल विश्व के सन्दर्भ में भारत के इतिहास के बारे में विसंगतियां फैलाईं बल्कि भारत के स्वयं के इतिहास में अनेक विवादों को जन्म दिया। वैदिक युग तथा सभ्यता का काल 3000 वर्ष ई. पूर्व का बताया। सिन्धु सभ्यता के आदिवासी द्रविड बतलाये तथा आर्यों को आक्रमणकारी तथा बर्बर कहा। इसी भांति आर्यों के आदि स्थान के बारे में यूरोप में जर्मनी, आस्ट्रेलिया, काकेसस (रूस) तथा एशिया में मध्य एशिया बताए जबकि किसी भी भारतीय विद्वान लोकमान्य तिलक, स्वामी दयानन्द, डा. सम्पूर्णानन्द आदि ने किसी भी आधार पर इसे स्वीकार न किया। इसी भांति कुछ विदेशी विद्वानों- अमरीका के सीडेन वर्ग तथा डेविड फ्राउली पूर्णत आयोंर् को भारत का वासी मानते हैं। भगवान गिडवानी का यह कथन महत्वपूर्ण है कि आर्य बाहर से नहीं आए बल्कि भारत से बाहर गए।
गत चालीस वर्षों में भारतीय इतिहास संकलन योजना ने देश-विदेश में अनेक गोष्ठियां आर्य समस्या, काल गणना तथा सरस्वती नदी पर कीं। जिससे यही निष्कर्ष निकला कि आर्य कोई जातिवाचक शब्द नहीं बल्कि गुणवाचक है। आर्यों का आदि देश भारत है तथा वैदिक साहित्य इतना है कि वह केवल कुछ वर्षों में नहीं लिखा जा सकता। अनेक स्थानों पर विदेशियों द्वारा यह सुनने को भी मिला कि हम तो मानते हैं कि वैदिक संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है।
इतिहास क्रम बदले
1921-22 में सिन्धु सभ्यता के प्रकाश में आने के पश्चात् अंग्रेजों ने प्रयत्नपूर्वक इतिहास अध्ययन पाठन तथा शोधकों की सोच को बदला। उन्होंने अब इतिहास लेखन का क्रम सिन्धु घाटी के उत्खनन से किया तथा वैदिक इतिहास से महाभारत के इतिहास को बिल्कुल हटा दिया। स्वतन्त्रता के पश्चात् कांग्रेस सरकार ने भारतीय मार्क्सवादियों से मिलकर एनसीईआरटी की पुस्तकों में भी वैदिक इतिहास को नकारकर केवल इतना पढ़ाया कि 'आर्यों ने सिन्धु घाटी की सभ्यता को नष्ट किया।' व्यावहारिक रूप से जेम्स मिल अथवा वी.ए. स्मिथ का कालक्रमानुसार इतिहास आज भी भारतीय विद्यालयों में पढ़ाया जाता है। सिन्धु घाटी की सभ्यता जो अधिक से अधिक 3000 वर्ष ईं. पूर्व से मानी जाती है, उससे पूर्व इतिहास के पाठ्यक्रम में वैदिक साहित्य, ऋग्वैदिक काल, उत्तर वैदिक काल उपनिषद काल, रामायणकाल तथा महाभारत काल आदि का विस्तृत अध्ययन होना चाहिए। जो सिन्धु सभ्यता से पूर्व की है। भारत के इतिहासकारों को चाहिए कि वे इतिहास को तथ्यों के आधार पर लिखें, इतिहास का औपनिवेशिक अथवा यूरोप केन्द्रित के स्थान पर भारतीय चिंतन दृष्टि से मूल्यांकन करें। भारतीय इतिहास को अपनी जड़ों को निहारने तथा जानने की दृष्टि से लिखें। भौतिक प्रगति के साथ भारत के आध्यात्मिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक पक्षों का भी विचार करें, तभी भारत का सही इतिहास लिखा जा सकेगा तथा चिंतन की दिशा भी ठीक होगी।     

कारगिल विजय दिवस : जरा याद करो कुर्बानी

‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्‌’।
(या तो तू युद्ध में बलिदान देकर स्वर्ग को प्राप्त करेगा अथवा विजयश्री प्राप्त कर पृथ्वी का राज्य भोगेगा।)


गीता के इसी श्लोक को प्रेरणा मानकर भारत के शूरवीरों ने कारगिल युद्ध में दुश्मन को पाँव पीछे खींचने के लिए मजबूर कर दिया था। 


26 जुलाई 1999 के दिन भारतीय सेना ने कारगिल युद्ध के दौरान चलाए गए ‘ऑपरेशन विजय’ को सफलतापूर्वक अंजाम देकर भारत भूमि को घुसपैठियों के चंगुल से मुक्त कराया था। इसी की याद में ‘26 जुलाई’ अब हर वर्ष के रूप में मनाया जाता है।

यह दिन है उन शहीदों को याद कर अपने श्रद्धा-सुमन अर्पण करने का, जो हँसते-हँसते मातृभूमि की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। यह दिन समर्पित है उन्हें, जिन्होंने अपना आज हमारे कल के लिए बलिदान कर दिया।




कारगिल युद्ध की पृष्ठभूमि : कारगिल युद्ध जो कारगिल संघर्ष के नाम से भी जाना जाता है, भारत और पाकिस्तान के बीच 1999 में मई के महीने में कश्मीर के कारगिल जिले से प्रारंभ हुआ था। 


इस युद्ध का कारण था बड़ी संख्या में पाकिस्तानी सैनिकों व पाक समर्थित आतंकवादियों का लाइन ऑफ कंट्रोल यानी भारत-पाकिस्तान की वास्तविक नियंत्रण रेखा के भीतर प्रवेश कर कई महत्वपूर्ण पहाड़ी चोटियों पर कब्जा कर लेह-लद्दाख को भारत से जोड़ने वाली सड़क का नियंत्रण हासिल कर सियाचिन-ग्लेशियर पर भारत की स्थिति को कमजोर कर हमारी राष्ट्रीय अस्मिता के लिए खतरा पैदा करना।

पूरे दो महीने से ज्यादा चले इस युद्ध (विदेशी मीडिया ने इस युद्ध को सीमा संघर्ष प्रचारित किया था) में भारतीय थलसेना व वायुसेना ने लाइन ऑफ कंट्रोल पार न करने के आदेश के बावजूद अपनी मातृभूमि में घुसे आक्रमणकारियों को मार भगाया था। स्वतंत्रता का अपना ही मूल्य होता है, जो वीरों के रक्त से चुकाया जाता है।



हिमालय से ऊँचा था साहस उनका : इस युद्ध में हमारे लगभग 527 से अधिक वीर योद्धा शहीद व 1300 से ज्यादा घायल हो गए, जिनमें से अधिकांश अपने जीवन के 30 वसंत भी नही देख पाए थे। इन शहीदों ने भारतीय सेना की शौर्य व बलिदान की उस सर्वोच्च परम्परा का निर्वाह किया, जिसकी सौगन्ध हर सिपाही तिरंगे के समक्ष लेता है। 


इन रणबाँकुरों ने भी अपने परिजनों से वापस लौटकर आने का वादा किया था, जो उन्होंने निभाया भी, मगर उनके आने का अन्दाज निराला था। वे लौटे, मगर लकड़ी के ताबूत में। उसी तिरंगे मे लिपटे हुए, जिसकी रक्षा की सौगन्ध उन्होंने उठाई थी। जिस राष्ट्रध्वज के आगे कभी उनका माथा सम्मान से झुका होता था, वही तिरंगा मातृभूमि के इन बलिदानी जाँबाजों से लिपटकर उनकी गौरव गाथा का बखान कर रहा था। 



भारत के वीर सपूत :




‘ये दिल माँगे मोर’ - हिमाचलप्रदेश के छोटे से कस्बे पालमपुर के 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स के कैप्टन विक्रम बत्रा उन बहादुरों में से एक हैं, जिन्होंने एक के बाद एक कई सामरिक महत्व की चोटियों पर भीषण लड़ाई के बाद फतह हासिल की थी।


यहाँ तक कि पाकिस्तानी लड़ाकों ने भी उनकी बहादुरी को सलाम किया था और उन्हें ‘शेरशाह’ के नाम से नवाजा था। मोर्चे पर डटे इस बहादुर ने अकेले ही कई शत्रुओं को ढेर कर दिया। सामने से होती भीषण गोलीबारी में घायल होने के बावजूद उन्होंने अपनी डेल्टा टुकड़ी के साथ चोटी नं. 4875 पर हमला किया, मगर एक घायल साथी अधिकारी को युद्धक्षेत्र से निकालने के प्रयास में माँ भारती का लाड़ला विक्रम बत्रा 7 जुलाई की सुबह शहीद हो गया। अमर शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा को अपने अदम्य साहस व बलिदान के लिए मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च सैनिक पुरस्कार ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया गया।






17 जाट रेजिमेंट के बहादुर कैप्टन अनुज नायर टाइगर हिल्स सेक्टर की एक महत्वपूर्ण चोटी ‘वन पिंपल’ की लड़ाई में अपने 6 साथियों के शहीद होने के बाद भी मोर्चा सम्भाले रहे। गम्भीर रूप से घायल होने के बाद भी उन्होंने अतिरिक्त कुमुक आने तक अकेले ही दुश्मनों से लोहा लिया, जिसके परिणामस्वरूप भारतीय सेना इस सामरिक चोटी पर भी वापस कब्जा करने में सफल रही। 


इस वीरता के लिए कैप्टन अनुज को मरणोपरांत भारत के दूसरे सबसे बड़े सैनिक सम्मान ‘महावीर चक्र’ से नवाजा गया। 




राजपूताना राइफल्स के मेजर पद्मपाणि आचार्य भी कारगिल में दुश्मनों से लड़ते हुए शहीद हो गए। उनके भाई भी द्रास सेक्टर में इस युद्ध में शामिल थे। उन्हें भी इस वीरता के लिए ‘महावीर चक्र’ से सम्मानित किया गया।



1/11 गोरखा राइफल्स के लेफ्टिनेंट मनोज पांडेय की बहादुरी की इबारत आज भी बटालिक सेक्टर के ‘जुबार टॉप’ पर लिखी है। अपनी गोरखा पलटन लेकर दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में ‘काली माता की जय’ के नारे के साथ उन्होंने दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए। अत्यंत दुर्गम क्षेत्र में लड़ते हुए मनोज पांडेय ने दुश्मनों के कई बंकर नष्ट कर दिए। 


गम्भीर रूप से घायल होने के बावजूद मनोज अंतिम क्षण तक लड़ते रहे। भारतीय सेना की ‘साथी को पीछे ना छोडने की परम्परा’ का मरते दम तक पालन करने वाले मनोज पांडेय को उनके शौर्य व बलिदान के लिए मरणोपरांत ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया गया।

भारतीय वायुसेना भी इस युद्ध में जौहर दिखाने में पीछे नहीं रही, टोलोलिंग की दुर्गम पहाडियों में छिपे घुसपैठियों पर हमला करते समय वायुसेना के कई बहादुर अधिकारी व अन्य रैंक भी इस लड़ाई में दुश्मन से लोहा लेते हुए शहीद हुए। सबसे पहले कुर्बानी देने वालों में से थे कैप्टन सौरभ कालिया और उनकी पैट्रोलिंग पार्टी के जवान। घोर यातनाओं के बाद भी कैप्टन कालिया ने कोई भी जानकारी दुश्मनों को नहीं दी। 



स्क्वाड्रन लीडर अजय आहूजा का विमान भी दुश्मन गोलीबारी का शिकार हुआ। अजय का लड़ाकू विमान दुश्मन की गोलीबारी में नष्ट हो गया, फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी और पैराशूट से उतरते समय भी शत्रुओं पर गोलीबारी जारी रखी और लड़ते-लड़ते शहीद हो गए। फ्लाइट लेफ्टिनेंट नचिकेता इस युद्ध में पाकिस्तान द्वारा युद्धबंदी बनाए गए। 


वीरता और बलिदान की यह फेहरिस्त यहीं खत्म नहीं होती। भारतीय सेना के विभिन्न रैंकों के लगभग 30,000 अधिकारी व जवानों ने ऑपरेशन विजय में भाग लिया। 

युद्ध के पश्चात पाकिस्तान ने इस युद्ध के लिए कश्मीरी आतंकवादियों को जिम्मेदार ठहराया था, जबकि यह बात किसी से छिपी नहीं थी कि पाकिस्तान इस पूरी लड़ाई में लिप्त था। बाद में नवाज शरीफ और शीर्ष सैन्य अधिकारियों ने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से पाक सेना की भूमिका को स्वीकार किया था। यह युद्ध हाल के ऊँचाई पर लड़े जाने वाले विश्व के प्रमुख युद्धों में से एक है। सबसे बड़ी बात यह रही कि दोनों ही देश परमाणु हथियारों से संपन्न हैं। 



पर कोई भी युद्ध हथियारों के बल पर नहीं लड़ा जाता है, युद्ध लड़े जाते हैं साहस, बलिदान, राष्ट्रप्रेम व कर्त्तव्य की भावना से और हमारे भारत में इन जज्बों से भरे युवाओं की कोई कमी नहीं है।


मातृभूमि पर सर्वस्व न्योछावर करने वाले अमर बलिदानी भले ही अब हमारे बीच नहीं हैं, मगर इनकी यादें हमारे दिलों में हमेशा- हमेशा के लिए बसी रहेंगी... 


‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पे मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा।

चंद्रशेखर आज़ाद


पंद्रह वर्ष की अल्प वय में
देश भक्ति का गान किया
आज़ादी को पाने हेतु
क्रांति पथ आह्वान किया
विपदाओं की जंजीरे
बिछी पड़ी थीं राहों में
खुद पर खूब भरोसा था
बल था बहुत भुजाओ में
खून ख़ौलता  रगो में
सीने में उठता शोला था
पीड़ाओं के दंश झेलते
वंदे मातरम्  बोला था
गर्जन करता प्रलय मेघ सा
परंपरा था शेरों की
नाम सुनकर 'आजाद'
देह काँपती गोरों की
मूँछों पर ताव देकर
अंग्रेजो को ललकार दिया
आजाद ने आजाद रहने को
स्वयम मृत्यु का सत्कार किया
धन्य किया महा मानव ने
पुण्य धरा की माटी को
ज़िंदा रखा जीवन देकर
बलिदानी परिपाटी को
आज़ाद हूँ आजाद रहूँगा
दिया आजादी का नारा
गर्वित है उस नर नाहर पर
हिन्दुस्तान हमारा

वन्दे मातरम

वन्दे मातरम
जरा सुनो ओ रोने वालो वन्दे मातरम नारे पर,
करो याद, था बना पाक, निज लहू मांस के गारे पर।
मां पुत्रो से दूर रहे पर मां फिर भी मां रहती है,
खून आँख में, दिल में अग्नि सदा धधकती रहती है
एक दाहिर की गौरव गाथा, याद सदा ही रहती है,
देश कटा, पर घाव से अब तक खूनी धारा बहती है।
उठो आज तुम आग लगा दो इनके चाँद सितारे पर॥
कैसे भूल जाये हम सिन्धु, रावी वहीँ, चिनाब वहीँ,
वहीँ तो झेलम खेल रही है, हिन्दू कुश है खड़ा वहीँ
लव कुश का लाहौर वहीँ, गांधारी का गंधार वहीँ,
पौरष की गौरव गाथाएं, शल्य का ईरान वहीँ।
नहीं खटकता तुमको परचम उड़ता देश हमारे पर ?
बड़ी सुनी निज इतिहासों की तुमने खूनी गाथाएं,
जौहर को मजबूर पदमिनी, विधवा बहने माताएं,
क्योंकर हिंदुस्तान हमेशा कालकूट पीता जाये,
क्यों न कदम बढ़ा गजनी तक लोहित सागर लहराएँ।
उठो मिटा दो काले धब्बे, जो इतिहास हमारे पर।
खूब सहा है अब तक तुमने इनके खुनी वारो को,
खूब सहा है, अब तक तुमने इन खुनी प्रहारों को,
पाठ पढ़ा दो रक्तपात का इन खूनी हत्यारों को,
उठो गूंजा दो कण कण में अब गांडीव की टंकारो को।
उठो तजो तन मन धन जीवन श्री राम के द्वारे पर ॥
मक्का और मदीना को पल में हासिल करने वालो,
कान खोल कर सुन लो ओ अल्लाह का दम भरने वालो,
तुर्की, अरब, इरान देश को इस्लामी रंगने वालो,
पुर्तगाल स्पेन सीरिया को जर्जर करने वालो,
न चमका, न चमकेगा, यह परचम देश हमारे पर।।
मक्का और मदीना पर जिस दिन भगवा लहराएगा,
रोम और येरुशलम पर जब भगवा शान दिखायेगा,
शोर्य हीन नहीं हिन्दू है यह हिन्दू तुम्हे बताएगा,
मुंड गिरेंगे कट कट कर जब, जगत जान यह जायेगा।
हिन्दू है हुंकार रहा मां वसुधा के हुंकारे पर ॥
जब जब राष्ट्र पड़ा संकट में, भारत भू हुंकार उठी,
भूल गए जब सिन्धु तट पर इन यवनों को मार पड़ी,
फारस तट पर मिहिरभोज के घोड़ो की पद चाप पड़ी,
भूल गए बाप्पा रावल की अरबो पर तलवार पड़ी।
नागभट्ट बन नाग था लिपटा इनके चाँद सितारे पर॥
भूल गए रणजीत सिंह को, भूल गए हो नलूवे को,
महाराणा की मार भूल गए , सिंह गढ़ी के बदले को,
आलमगीरी नाक के नीचे छत्रसाल के बलवे को,
औरंगजेब सदा रोया खा गरम मराठी हलवे को,
भूले क्रीडा वीर शिवा की, इस्लामी चौबारे पर॥
समुन्द्रगुप्त, स्कंदगुप्त व् भीमसेन को याद करो,
भूल युधिष्टर और विभीषण, अब अर्जुन का ध्यान धरो,
महावीर को, गौतम बुद्ध को, दीवारों तक रहने दो,
वीर उठा शमशीर, तीर, अब सेनानी प्रयाण करो.
बढ़ कर ध्वज फहरा दो अपना भग्वा बलख बुखारे पर॥
राम द्रोही व् राष्ट्र द्रोही कों न जिन्दा रहने देंगे,
भारत माँ कों डायन तो अब हरगिज न कहने देंगे,
वन्दे मातरम की ध्वनी सुन जिनके सर झुक जाते है,
उन गद्दारों के मस्तक हम सागर में लुड़का देंगे।
चलो वीर अब वज्र चला दे इस झूठे बटवारे पर।

बाबा बर्फानी

जम्मू एवं कश्मीर राज्य में स्थित बाबा अमरनाथ जी की यात्रा न केवल भारत के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है, बल्कि संसार के प्रत्येक स्थान से इसके दर्शनों के लिए लाखों की संख्या में श्रद्धालु प्रतिवर्ष यहां पहुंचते हैं। बेशक आतंकवादियों द्वारा धमकी दी गई हो या फिर मौसम कितना ही खराब क्यों न हो, लेकिन श्रद्धालुओं का जज्बा कोई डिगा नहीं पाता है। बाबा अमरनाथ जी तक अत्यन्त दुर्गम मार्गों से होकर पहुंचा जाता है। वहां बर्फ से निर्मित शिवलिंग, जो कि रक्षाबन्धन के दिन पूर्ण रूप धारण करता है, उसके दर्शन का विशेष महत्व है।
जम्मू-कश्मीर की सुरम्य पर्वत श्रंृखला में 13500 फुट की ऊंचाई पर आदि-अनादि काल से भगवान शिव हिमलिंग के रूप में श्री अमरनाथ गुफा में विराजमान हैं। श्रावण मास की पूर्णिमा को इसके दर्शन करने का विशेष महत्व है क्योंकि इस स्थान पर भगवान शंकर ने मां पार्वती को भगवान राम के पावन चरित्र की अमर कथा सुनाई थी। इसलिए यहां पर भगवान शिव बाबा अमरनाथ के नाम से प्रसिद्ध हैं। इस कथा को एक कबूतर के जोड़े ने भी सुना था और ऐसी मान्यता है कि वह जोड़ा भी अमर है, आज भी इस जोड़े के दर्शन कर भक्तजन अपने आप को सौभाग्यशाली मानते हैं।
यह यात्रा देश की कठिन यात्राओं में से एक है। श्री अमरनाथ गुफा तक पहुंचने के लिए दो रास्ते हैं जिनमें एक चंदनबाड़ी से 35 किलोमीटर पैदल मार्ग का रास्ता है जो अत्यंत ही कठिन है। यह बीच-बीच में बहुत संकरा भी है। बर्फ के ग्लेशियर भी आते हैं, नदी पार कर दो दिन में तीर्थयात्री पावन गुफा पर पहुंचते हैं। वहीं दूसरा रास्ता बालटाल से जाता है, जहां से अमरनाथ गुफा जाने के लिए 12 किलोमीटर का  ग्लेशियरों से भरा पैदल मार्ग है, जो अत्यंत कठिन होने के साथ-साथ खतरनाक भी है।
श्री अमरनाथ यात्रा हमेशा विवादों में घिरी रही है। कभी आतंकवादियों ने तो कभी अलगाववादियों ने इस यात्रा में बाधा डालने की कोशिश की है। कभी पर्यावरण के नाम पर तो कभी प्रदूषण के नाम पर इस यात्रा में बाधा डालने का प्रयास किया जाता रहा है। श्री अमरनाथ यात्रा शुरू होने से पहले ही अलगाववादी कश्मीर में इस तरह का माहौल बनाना शुरू करते आए हैं ताकि देश के अन्य हिस्सों में यह संदेश जाए कि यात्रा करना सुरक्षित नहीं है और कम से कम यात्री यात्रा पर पहुंच सकें। श्री अमरनाथ यात्रा आंदोलन 2008 इसका प्रमुख उदाहरण है जिसमें न केवल अलगावादियों, बल्कि कश्मीर मूल के राजनीतिक दलों ने भी इसका खुलकर विरोध किया था। हर वर्ष इस यात्रा को प्रभावित करने के उद्देश्य से कश्मीर में ऐसा माहौल बनाया जाता है ताकि यात्रा पर आने वाले यात्रियों को प्रभावित किया जा सके।
श्री अमरनाथ यात्रा 2015 में सरकारी व श्राइन बोर्ड के तौर पर कुछ परिवर्तन देखने को जरूर मिल रहे हैं। इस वर्ष यात्रा में सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए गए हैं। सेना, सीआरपीएफ, पुलिस व अन्य सुरक्षा एजेंसियों की तैनाती इस तरह से की गई है कि सुरक्षा में किसी प्रकार की चूक न रह सके। यात्रियों की सुविधा व्यवस्थाओं में भी वृद्धि हुई है, लेकिन  विश्व प्रसिद्ध यात्रा होने के कारण बड़ी संख्या में जम्मू पहुंच रहे यात्रियों को फिर भी कई परिशानियों का सामना करना पड़ रहा है। यात्रा को लेकर श्रद्धालुओं में उत्साह इस कदर है कि पहले सप्ताह में ही बाबा के दर्शन करने वाले यात्रियों की संख्या एक लाख से पार पहुंच गई।
पंजीकरण में श्रद्घालुओं को हो रही है दिक्कत
बड़ी संख्या में जम्मू पहुंच रहे श्रद्धालुओं का वर्तमान में पंजीकरण नहीं हो पाने से वे काफी निराश व हताश हैं। पंजीकरण के लिए श्रद्धालुओं की संख्या में दिन-प्रतिदिन वृद्धि दर्ज की जा रही हैं। 2000 से 3000 तक श्रद्धालु प्रतिदिन पंजीकरण करवा रहे हैं, किन्तु हजारों की संख्या में श्रद्धालु यहां पहुंच रहे हैं जिसके चलते पंजीकरण कोटा कम पड़ रहा है। श्राइन बोर्ड सुरक्षा के लिहाज से प्रतिदिन बालटाल व पहलगाम आधार शिविर से 7500-7500 श्रद्धालुओं को ही यात्रा पर रवाना करता है। ऐसे में यदि एक दिन के लिए 12000 श्रद्धालुओं का पंजीकरण पहले हो चुका है तो फिर शेष तीन हजार का पंजीकरण होगा। पंजीकरण दैनिक कोटे की सीमा पूर्ण रूप से पहले हो चुके पंजीकरण पर निर्भर करती है। यह संख्या हर दिन बढ़ती-घटती रहती है। पंजीकरण के लिए जम्मू हॉट वैष्णवी धाम  व सरस्वती धाम पर केन्द्र बनाये गए हैं। यात्रियों की संख्या में वृद्धि होने से पंजीकरण केन्द्रों की कमी महसूस की जा ही है जिसके  चलते पंजीकरण करने की होड़ मच गई है। तीनों पंजीकरण केन्द्रों पर लम्बी-लम्बी कतारें देखने को मिल रही हैं और सरकार व बोर्ड के खिलाफ श्रद्धालुओं का गुस्सा भी देखने को मिल रहा है।
शरारती तत्वों द्वारा पथराव
श्री अमरनाथ की पवित्र गुफा की तीर्थयात्रा पर आए श्रद्धालुओं पर हुए पथराव ने शरारती तत्वों व आतंकियों से बचाने के सरकारी दावों की पोल खोल दी है। हालांकि पुलिस अधीक्षक गांदरबल व जिला उपायुक्त गांदरबल दोनों ने ऐसी किसी घटना को सिरे से खारिज कर दिया है।
गौरतलब है कि गत 4 जुलाई को बालटाल से श्रीनगर की तरफ लौट रहे श्रद्धालुओं की दो बसों पर कंगन-सुंबल बाईपास मार्ग पर पथराव हुआ। बस चालकों ने रुकने की बजाय गाडि़यों को तेज गति से भगा लिया, लेकिन इस दौरान पत्थर लगने से गाडि़यों के शीशे टूट गए और छह श्रद्धालुओं को चोटें भी आईं हैं। श्रद्धालुओं ने निकटवर्ती सैन्य शिविर के पास जाकर गाड़ी रुकवाई ताकि घायलों का उपचार हो सके। कंगन पुलिस को भी सूचित किया गया, लेकिन कोई मदद नहीं हुई। जम्मू पहुंचने के बाद घायल श्रद्घालुओं ने अपनी आपबीती बयान की। जम्मू के विभिन्न सामाजिक व धार्मिक संगठनों ने दोषियों को कठोर दंड देने के साथ यात्रा को सुरक्षित बनाने पर बल दिया। उनका कहना है कि इस तरह की घटनाएं न सिर्फ राज्य में, बल्कि देश के अन्य भागों में भी सांप्रदायिक तनाव का कारण बन सकती हैं। इस बारे में पुलिस अधीक्षक गांदरबल इम्तियाज पर्रे ने बताया कि किसी भी जगह श्रद्धालुओं पर कोई पथराव नहीं हुआ है। किसी ने उनके वाहनों को निशाना नहीं बनाया। पूरे रास्ते में सीआरपीएफए, सेना व पुलिस के जवान तैनात हैं। शरारती तत्वों की लगातार कड़ी निगरानी की जा रही है।
लंगर समितियों को नहंीं मिल रहीं सुविधाएं
देश-विदेश से श्री अमरनाथ यात्रा के लिए आ रहे श्रद्धालुओं को नि:शुल्क लंगर व अन्य सुविधाएं उपलब्ध करा रही लंगर समितियों के सामने आ रही समस्याओं को अभी तक हल नहीं किया जा सका है। लंगर समितियों ने बिजली-पानी की आपूर्ति से लेकर उनके सामान की आवाजाही में आ रही दिक्कतों का जिक्र किया है। समितियों का कहना है कि लंगर लगाने के लिए जिन सुविधाओं की अपेक्षा राज्य सरकार से होती है, वह नहीं मिल पा रही हैं जिसके चलते उन्हें कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। वहीं राज्य के उपमुख्यमंत्री डा़ॅ निर्मल सिंह ने लंगर समितियों के पदाधिकारियों के साथ बैठक कर उन्हें पेश आ रही सभी प्रकार की समस्याओं को हल करने के निर्देश जारी कर दिए।     बलवान सिंह
यात्रा से पलते हैं हजारों मुसलमान परिवार
समुद्र तल से 3880 फीट की ऊंचाई पर दुर्गम पहाडि़यों में बाबा अमरनाथ के दर्शनों के लिए आने वाले श्रद्धालुओं की यात्रा मुस्लिम समुदाय के सहयोग के बिना मुश्किल है। वार्षिक अमरनाथ यात्रा सांप्रदायिक सौहार्द की भी प्रतीक बन चुकी है। आस्था के प्रतीक हिमलिंग के दर्शनों के लिए श्रद्धालु बेसब्री से श्री अमरनाथ यात्रा के शुरू होने का इंतजार करते हैं, ठीक उसी तरह कश्मीर संभाग के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले मुस्लिम समुदाय के लोग भी इस यात्रा के शुरू होने का इंतजार करते हैं। पिट्ठू, पालकी वाले, खच्चर वाले और दुकानदार एकत्रित होने वाली धनराशि ने समुदाय के लोगों के घर पर वर्ष भर चूल्हा जलता है। इसमें पिट्ठू, , घोड़े वाले तथा दुकानदार शामिल हैं।
श्री अमरनाथ यात्रा के दौरान पवित्र हिमलिंग की पूजा अर्चना के लिए प्रयोग होने वाली सामग्री को स्थानीय मुस्लिम उपलब्ध करवाते हैं। गुफा के पास टेंट लगा कर श्रद्धालुओं के ठहरने का बंदोबस्त भी मुस्लिम समुदाय के लोग करते हैं। श्रद्धालुओं को पवित्र गुफा तक पहुंचाने के लिए उपलब्ध घोड़े तथा पालकी उठाने वाले कंधे मुसलमानों के हैं। 

गुरुपूर्णिमा और संघ:भगवा ध्वज है गुरु हमारा

अपने राष्ट्र और समाज जीवन में गुरुपूर्णिमा-आषाढ़ पूर्णिमा अत्यंत महत्वपूर्ण उत्सव है। व्यास महर्षि आदिगुरु हैं। उन्होंने मानव जीवन को गुणों पर निर्धारित करते हुए उन महान आदर्शों को व्यवस्थित रूप में समाज के सामने रखा। विचार तथा आचार का समन्वय करते हुए, भारतवर्ष के साथ उन्होंने सम्पूर्ण मानव जाति का मार्गदर्शन किया। इसलिए भगवान वेदव्यास जगत् गुरु हैं। इसीलिए कहा है- 'व्यासो नारायणम् स्वयं'- इस दृष्टि से गुरुपूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा गया है।
गुरु की कल्पना
अखंड मंडलाकारं व्याप्तं येन् चराचरं,
 तत्पदं दर्शितंयेनं तस्मै श्री गुरुवे नम:
यह सृष्टि अखंड मंडलाकार है। बिन्दु से लेकर सारी सृष्टि को चलाने वाली अनंत शक्ति का, जो परमेश्वर तत्व है, वहां तक सहज सम्बंध है। यानी वह जो मनुष्य से लेकर समाज, प्रकृति और परमेश्वर शक्ति के बीच में जो सम्बंध है। इस सम्बंध को जिनके चरणों में बैठकर समझने की अनुभूति पाने का प्रयास करते हैं, वही गुरु है। संपूर्ण सृष्टि चैतन्ययुक्त है। चर, अचर में एक ही ईश्वर तत्व है। इनको समझकर, सृष्टि के सन्तुलन की रक्षा करते हुए, सृष्टि के साथ समन्वय करते हुए जीना ही मानव का कर्तव्य है। सृष्टि को जीतने की भावना विकृति है-सहजीवन ही संस्कृति है। सृष्टि का परम सत्य-सारी सृष्टि परस्पर पूरक है। सम्पूर्ण सृष्टि का आधार है। देना ही संस्कार है, त्याग ही भारतीय संस्कृति है। त्याग, समर्पण, समन्वय-यही हिन्दू संस्कृति है, मानव जीवन में, सृष्टि में शांतियुक्त, सुखमय, आनन्दमय जीवन का आधार है।
नित्य अनुभव
वृक्ष निरन्तर कार्बन डाइ ऑक्साइड को लेते हुए आक्सीजन बाहर छोड़ते हुए सूर्य की सहायता से अपना आहार तैयार कर लेते हैं। उनके आक्सीजन यानी प्राणवायु छोड़ने के कारण मानव जी सकता है। मानव का जीवन वृक्षों पर आधारित है अन्यथा सृष्टि नष्ट हो जाएगी। आजकल वातावरण प्रदूषण से विश्व चिंतित है, मानव जीवन खतरे में है।
इसलिए सृष्टि के संरक्षण के लिए मानव को योग्य मानव, मानवतायुक्त मानव बनना है, तो गुरुपूजा महत्वपूर्ण है। सृष्टि में सभी जीवराशि, प्रकृति अपना व्यवहार ठीक रखते हैं मानव में विशेष बुद्धि होने के कारण। बुद्धि में विकृति होने से प्रकृति का संतुलन बिगाड़ने का काम भी मानव ही करता है।
बुद्धि के अहंकार के कारण मानव ही गड़बड़ करता है। इसलिए 'गुरुपूजा' के द्वारा मानव जीवन में त्याग, समर्पण भाव निर्माण होता है।

अपने समाज में हजारों सालों से, व्यास भगवान से लेकर आज तक, श्रेष्ठ गुरु परम्परा चलती आयी है। व्यक्तिगत रीति से करोड़ों लोग अपने-अपने गुरु को चुनते हैं, श्रद्धा से, भक्ति से वंदना करते हैं, अनेक अच्छे संस्कारों को पाते हैं। इसी कारण अनेक आक्रमणों के बाद भी अपना समाज, देश, राष्ट्र आज भी जीवित है। विश्व के अन्दर भारत हिन्दू राष्ट्र, समाज जीवन में एकात्मता की, एक रस जीवन की कमी है। राष्ट्रीय भावना की कमी, त्याग भावना की कमी के कारण भ्रष्टाचार, विषमय, संकुचित भावनाओं से, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार, शोक रहित (चारित्र्य दोष) आदि दिखते हैं।
इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने गुरु स्थान पर भगवाध्वज को स्थापित किया है।
भगवाध्वज त्याग, समर्पण का प्रतीक है। स्वयं जलते हुए सारे विश्व को प्रकाश देने वाले सूर्य के रंग का प्रतीक है। संपूर्ण जीवों के शाश्वत सुख के लिए समर्पण करने वाले साधु, संत भगवा वस्त्र ही पहनते हैं, इसलिए भगवा, केसरिया त्याग का प्रतीक है। अपने राष्ट्र जीवन के, मानव जीवन के इतिहास का साक्षी यह ध्वज है। यह शाश्वत है, अनंत है, चिरंतन है।
व्यक्ति पूजा नहीं, तत्व पूजा
संघ तत्व पूजा करता है, व्यक्ति पूजा नहीं। व्यक्ति शाश्वत नहीं, समाज शाश्वत है। व्यक्ति महान है। अपने समाज में अनेक विभूतियां हुई हैं, आज भी अनेक विद्यमान हैं। उन सारी महान विभूतियों के चरणों में शत्-शत् प्रणाम, परन्तु अपने राष्ट्रीय समाज को, संपूर्ण समाज को, संपूर्ण हिन्दू समाज को राष्ट्रीयता के आधार पर, मातृभूमि के आधार पर संगठित करने का कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कर रहा है। इस नाते किसी व्यक्ति को गुरुस्थान पर न रखते हुए भगवाध्वज को ही हमने गुरु माना है।
तत्वपूजा- तेज, ज्ञान, त्याग का प्रतीक
हमारे समाज की सांस्कृतिक जीवनधारा में 'यज्ञ' का बड़ा महत्व रहा है। 'यज्ञ' शब्द के अनेक अर्थ हंै। व्यक्तिगत जीवन को समर्पित करते हुए समष्टिजीवन को परिपुष्ट करने के प्रयास को यज्ञ कहा गया है। सद्गुण रूप अग्नि में अयोग्य, अनिष्ट, अहितकर बातों को होम करना यज्ञ है। श्रद्धामय, त्यागमय, सेवामय, तपस्यामय जीवन व्यतीत करना भी यज्ञ है। यज्ञ का अधिष्ठाता देव यज्ञ है। अग्नि की प्रतीक है ज्वाला, और ज्वालाओं का प्रतिरूप है-अपना परम पवित्र भगवाध्वज।
हम श्रद्धा के उपासक हैं, अन्धविश्वास के नहीं। हम ज्ञान के उपासक हैं, अज्ञान के नहीं। जीवन के हर क्षेत्र में विशुद्ध रूप में ज्ञान की प्रतिष्ठापना करना ही हमारी संस्कृति की विशेषता रही है।
सच्ची पूजा- 'तेल जले, बाती जले-लोग कहें दीप जले'
 जब दीप जलता है हम कहते हैं या देखते हैं कि दीप जल रहा है, लेकिन सही अर्थ में तेल जलता है, बाती जलती है, वे अपने आपको समर्पित करते हैं तेल के लिए। इसी तरह व्यक्ति के लिए कोई नाम नहीं, प्रचार नहीं, परन्तु दोनों के जलने के कारण ही 'प्रकाश' मिलता है- यह है समर्पण।
कारगिल युद्ध में मेजर पद्मपाणी आचार्य, गनर रविप्रसाद जैसे असंख्य वीर पुत्रों ने भारत माता के लिए अपने आपको समर्पित किया। मंगलयान में अनेक वैज्ञानिकों ने अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक सुख की तिलाञ्जलि देकर अपनी सारी शक्ति समर्पित की।
प्राचीन काल में महर्षि दधीचि ने समाज कल्याण के लिए , संरक्षण के लिए अपने जीवन को ही समर्पित कर दिया था। समर्पण अपने राष्ट्र की, समाज की परंपरा है। समर्पण भगवान की आराधना है। गर्भवती माता अपनी संतान के सुख के लिए अनेक नियमों का पालन करती है, अपने परिवार में माता, पिता, परिवार के विकास के लिए अपने जीवन को समर्पित करती है। खेती करने वाले किसान और श्रमिक के समर्पण के कारण ही सबको अन्न मिलता है। करोड़ों श्रमिकों के समर्पण के कारण ही सड़क मार्ग, रेल मार्ग तैयार होते हैं।
शिक्षक- आचार्यों के समर्पण के कारण ही करोड़ों लोगों का ज्ञानवर्धन होता है। डाक्टरों के समर्पण सेवा के कारण ही रोगियों को चिकित्सा मिलती है। इस नाते सभी काम अपने समान में आराधना भावना से, समर्पण भावना से होते थे। पैसा केवल जीने के लिए लिया जाता था। सभी काम आराधना भावना से समर्पण भावना से ही होते थे। परंतु आज आचरण में हृास दिखता  है।
राष्ट्राय स्वाहा- इदं न मम्
इसलिए प.पू. डॉ. हेडगेवार जी ने फिर से संपूर्ण समाज में, प्रत्येक व्यक्ति में समर्पण भाव जगाने के लिए, गुरुपूजा की, भगवाध्वज की पूजा का परंपरा प्रारंभ की।
व्यक्ति के पास प्रयासपूर्वक लगाई गई शारीरिक शक्ति, बुद्धिशक्ति, धनशक्ति होती है, पर उसका मालिक व्यक्ति नहीं, समाज रूपी परमेश्वर है। अपने लिए जितना आवश्यक है उतना ही लेना। अपने परिवार के लिए उपयोग करते हुए  शेष पूरी शक्ति- धन, समय, ज्ञान-समाज के लिए समर्पित करना ही सच्ची पूजा है। मुझे जो भी मिलता है, वह समाज से मिलता है। सब कुछ समाज का है, परमेश्वर का है, जैसे- सूर्य को अर्घ्य देते समय नदी से पानी लेकर फिर से नदी में डलते हैं। मैं, मेरा के अहंकार भाव के लिए कोई स्थान नहीं। परंतु आज चारों ओर व्यक्ति के अहंकार को बढ़ावा दिया जा रहा है। इस लिए सारी राक्षसी प्रवृत्तियां- अहंकार, ईर्ष्या, पदलोलुपता, स्वार्थ बढ़ गया है, बढ़ रहा है। इन सब आसुरी प्रवृत्त्यिों को नष्ट करते हुए त्याग, तपस्या, प्रेम, निरहंकार से युक्त गुणों को अपने जीवन में लाने की साधना ही गुरु पूजा है। 
शिवोभूत्वा शिवंयजेत्- शिव की पूजा करना यानी स्वयं शिव बनना, यानी शिव को गुणों को आत्मसात् करना, जीवन में उतारना है। भगवाध्वज की पूजा यानी गुरुपूजा यानी-त्याग, समर्पण जैसे गुणों को अपने जीवन में उतारते हुए समाज की सेवा करना है। संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी ने स्वयं अपने जीवन को अपने समाज की सेवा में अर्पित किया था, ध्येय के अनुरूप अपने जीवन को ढाला था। इसलिए कहा गया कि प.पू. डाक्टरजी के जीवन यानी देह आयी ध्येय लेकर।
वैसे प.पू. गुरुजी, रामकृष्ण मिशन में दीक्षा लेने के बाद भी हिमालय में जाकर तपस्या करने की दृष्टि होने के बाद भी राष्ट्राय स्वाहा, इदं न मम्, मैं नहीं तू ही- जीवन का ध्येय लेकर संपूर्ण शक्ति को, तपस्या को, अपनी विद्वता को समाज सेवा में समर्पित किया। लाखों लोग अत्यंत सामान्य जीवन जीने वाले किसान, श्रमिक से लेकर रिक्शा चलाने वाले तक, वनवासी गिरिवासी से लेकर शिक्षित, आचार्य, डाक्टर तक, ग्रामवासी, नगरवासी भी आज समाज जीवन में अपना समय, धन, शक्ति समर्पण करके  कश्मीर से कन्याकुमारी तक काम करते दिखते हैं। भारत के अनेक धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों में भी ऐसे समर्पण भाव से काम करने वाले कार्यकर्ता मिलते हैं।
गुरुपूजा- हर वर्ष आषाढ़ पूर्णिमा को व्यक्तिश: संघ की शाखाओं में गुरुपूजा यानी भगवाध्वज की पूजा स्वयंसेवक करते हैं। अपने तन-मन-धन का धर्म मार्ग से विकास करते हुए, विकसित व्यक्तित्व को समाज सेवा में समर्पित करने का संकल्प लेते हुए, संकल्प को आगे बढ़ाते हुए, जीवन भर व्रतधारी होकर जीने के लिए हर वर्ष भगवाध्वज की पूजा करते हैं।
यह दान नहीं, उपकार नहीं, यह अपना परम कर्तव्य है। समर्पण में ही अपने जीवन की सार्थकता है, यही भावना है। परिवार के लिए काम करना गलत नहीं है, परंतु केवल परिवार के लिए ही काम करना गलत है। यह अपनी संस्कृति नहीं है। परिवार के लिए जितनी श्रद्धा से कठोर परिश्रम करते हैं, उसी श्रद्धा से, वैसी कर्तव्य भावना से समाज के लिए काम करना ही समर्पण है। इस भावना का सारे समाज में निर्माण करना है। इस भावना का निर्माण होने से ही भ्रष्टाचार, हिंसा प्रवृत्ति, ईर्ष्या आदि दोष दूर हो जाएंगे।
समर्पण भाव से ही सारे समाज में एकात्म भाव भी बढ़ जाएगा। इस भावना से ही लाखों स्वयंसेवक अपने समाज के विकास के लिए, हजारों सेवा प्रकल्प चलाते हैं। समाज में भी अनेक धार्मिक, सामाजिक सांस्कृतिक संस्थानों के कार्यकर्ता अच्छी मात्रा में समाज सेवा करते हैं। आज सभी समर्पण भाव को हृदय में जगाकर काम करने वालों को एकत्र आना है, एक हृदय से मिलकर, परस्पर सहयोग से समन्वय करते हुए, समाज सेवा में अग्रसर होना है। व्यक्तिपूजा को बढ़ावा देते हुए भौतिकवाद, भोगवाद, के वातावरण के दुष्प्रभाव से अपने आपको बचाना भी महान तपस्या है। जड़वाद, भोगवाद, समर्पण, त्याग, सेवा, निरहंकारिता, सहकारिता, सहयोग, समन्वय के बीच संघर्ष है। त्याग, समर्पण, सहयोग, समन्वय की साधना एकाग्रचित होकर, एक सूत्रता में करना ही मार्ग है। मानव जीवन की सार्थकता और विश्व का कल्याण इसी से  संभव है।   भागैय्या  (लेखक रा.स्व.संघ के सह सरकार्यवाह हैं।)

परम पवित्र भगवा ध्वज