सोमवार, 13 नवंबर 2017

संगत का असर

बार एक भंवरे की मित्रता एक गोबरी कीड़े के साथ हो गई , कीड़े ने भंवरे से कहा कि भाई  तुम मेरे सबसे अच्छे मित्र हो इस लिये मेरे यहाँ भोजन पर आओ अब अगले दिन भंवरा सुबह सुबह तैयार हो गया और अपने बच्चो के साथ गोबरी कीड़े के यहाँ भोजन के लिये पहुँचा कीड़ा भी उन को देखकर बहुत खुश हुआ और सब का आदर करके भोजन परोसा। 
भोजन में गोबर की गोलियां परोसी गई और कीड़े ने कहा कि खाओ भाई रुक क्यों गए।,
     
भंवरा सोच में पड़ गया कि मैने बुरे का संग किया इस लिये मुझे तो गोबर खाना ही पड़ेगा। भंवरा ने सोचा की ये मुझे इस का संग करने से मिला और फल भी पाया अब इस को भी मेरे संग का फल मिलना चाहिये..भंवरा बोला भाई आज तो में आप के यहाँ भोजन के लिये आया अब तुम कल मेरे यहाँ आओगे..अगले दिन कीड़ा तैयार होकर भंवरे के यहाँ पहुँचा ....

भवरे ने कीड़े को उठा कर गुलाब के फूल में बिठा दिया और रस पिलाया, कीड़े ने खूब फूलो का रस पिया और मजे  किये अपने मित्र का धन्यवाद किया और कहाँ मित्र तुम तो बहुत अच्छी जगह रहते हो 
और अच्छा खाते हो.. 

इस के बाद कीड़े ने सोचा क्यों न अब में यहीं रहूँ और ये सोच कर यही फूल में बैठा रहा इतने में ही पास के मंदिर का पुजारी आया और फूल तोड़ कर ले गया और चढ़ा दिया इस को प्रभु चरणों में..कीड़े को भगवान के दर्शन भी हुए और उनके चरणों में बैठा। 

इस के बाद सन्ध्या में पुजारी ने सारे फूल इक्कठा किये और गंगा जी में छोड़ दिए, कीड़ा गंगा की लहरों पर लहर रहा था और अपनी किस्मत पर हैरान था कि कितना पूण्य हो गया इतने में ही भंवरा उड़ता हुआ  कीड़े के पास आया और बोला  मित्र अब बताओ क्या हाल है? 

कीड़ा बोला भाई अब जन्म जन्म के पापो से मुक्ति हो चुकी है जहाँ गंगा जी में मरने के बाद अस्थियो को छोड़ा जाता है वहाँ में जिन्दा ही आ गया हूं ये सब मुझे तेरी मित्रता और अच्छी संगत का ही फल मिला है और ख़ुशी से निहाल हूं तेरा धन्यवाद !! जिस को मैं अपना स्वर्ग समझता था वो गन्दगी थी और जो तेरी वजह से मिला वही स्वर्ग है ।

अहं के विसर्जन से ही जीवन सार्थक

एक ऋषि थे-सर्वथा सहज, निराभिमानी, वैरागी और अत्यधिक ज्ञानी। दूर -दूर से लोग उनके पास ज्ञान अर्जन करने के लिए आते थे। एक दिन एक युवक ने आकर उनके समक्ष शिष्य बनने की इच्छा प्रकट की। ऋषि ने सहमति दे दी। वह ऋषि के पास रहने लगा।वह ऋषि की शिक्षा को पूर्ण मनोयोग से ग्रहण करता। एक दिन ऋषि ने कहा -जाओ वत्स; तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हुई। अब तुम इसका उपयोग कर दूसरों का जीवन बेहतर बनाओ। 
         युवक ने उन्हें गुरुदक्षिणा देनी चाही। ऋषि बोले यदि तुम गुरु दक्षिणा देना ही चाहते हो तो वह चीज लेकर आओ,जो बिल्कुल व्यर्थ हो। युवक व्यर्थ चीज की खोज में चल पड़ा।  उसने सोचा मिट्टी ही सबसे व्यर्थ हो सकती है। यह सोचकर उसने मिट्टी लेने के लिए हाथ बढ़ाया, तो वह बोल उठी -तुम मुझे व्यर्थ समझते हो? धरती का सारा वैभव मेरे गर्भ में ही प्रकट होता है। ये विविध रूप,रस, गंध क्या मुझ से उत्पन्न नहीं होते? 
          युवक आगे बढ़ा तो उसे गंदगी का ढेर दिखाई दिया। उसने गंदगी की ओर हाथ बढ़ाया तो उसमें से आवाज आई -क्या मुझसे बेहतर खाद धरती पर मिलेगी? सारी फसलेँ मुझसे ही पोषण पाती है,फिर मैं व्यर्थ कैसे हो सकती हूँ ?
           युवक सोचने लगा, वस्तुतः सृष्टि का हर पदार्थ अपने में उपयोगी है। व्यर्थ और तुच्छ तो वह है जो दूसरों को व्यर्थ व तुच्छ समझता है और अहंकार के सिवा और क्या हो सकता है? युवक तत्काल ऋषि के पास जाकर बोला कि वह गुरु दक्षिणा में अपना अहंकार देने आया है यह सुनकर ऋषि बोले ठीक समझे वत्स।अहंकार के विसर्जन से ही विद्या सार्थक और फलवती होती है। 

कथा का संकेत स्पष्ट है कि दुनिया में व्यर्थ सिर्फ अहंकार होता है जो कुछ देने के स्थान पर जो है ,उसे भी नष्ट कर देता है।इससे यथासंभव बचना चाहिए।