सोमवार, 13 नवंबर 2017

संगत का असर

बार एक भंवरे की मित्रता एक गोबरी कीड़े के साथ हो गई , कीड़े ने भंवरे से कहा कि भाई  तुम मेरे सबसे अच्छे मित्र हो इस लिये मेरे यहाँ भोजन पर आओ अब अगले दिन भंवरा सुबह सुबह तैयार हो गया और अपने बच्चो के साथ गोबरी कीड़े के यहाँ भोजन के लिये पहुँचा कीड़ा भी उन को देखकर बहुत खुश हुआ और सब का आदर करके भोजन परोसा। 
भोजन में गोबर की गोलियां परोसी गई और कीड़े ने कहा कि खाओ भाई रुक क्यों गए।,
     
भंवरा सोच में पड़ गया कि मैने बुरे का संग किया इस लिये मुझे तो गोबर खाना ही पड़ेगा। भंवरा ने सोचा की ये मुझे इस का संग करने से मिला और फल भी पाया अब इस को भी मेरे संग का फल मिलना चाहिये..भंवरा बोला भाई आज तो में आप के यहाँ भोजन के लिये आया अब तुम कल मेरे यहाँ आओगे..अगले दिन कीड़ा तैयार होकर भंवरे के यहाँ पहुँचा ....

भवरे ने कीड़े को उठा कर गुलाब के फूल में बिठा दिया और रस पिलाया, कीड़े ने खूब फूलो का रस पिया और मजे  किये अपने मित्र का धन्यवाद किया और कहाँ मित्र तुम तो बहुत अच्छी जगह रहते हो 
और अच्छा खाते हो.. 

इस के बाद कीड़े ने सोचा क्यों न अब में यहीं रहूँ और ये सोच कर यही फूल में बैठा रहा इतने में ही पास के मंदिर का पुजारी आया और फूल तोड़ कर ले गया और चढ़ा दिया इस को प्रभु चरणों में..कीड़े को भगवान के दर्शन भी हुए और उनके चरणों में बैठा। 

इस के बाद सन्ध्या में पुजारी ने सारे फूल इक्कठा किये और गंगा जी में छोड़ दिए, कीड़ा गंगा की लहरों पर लहर रहा था और अपनी किस्मत पर हैरान था कि कितना पूण्य हो गया इतने में ही भंवरा उड़ता हुआ  कीड़े के पास आया और बोला  मित्र अब बताओ क्या हाल है? 

कीड़ा बोला भाई अब जन्म जन्म के पापो से मुक्ति हो चुकी है जहाँ गंगा जी में मरने के बाद अस्थियो को छोड़ा जाता है वहाँ में जिन्दा ही आ गया हूं ये सब मुझे तेरी मित्रता और अच्छी संगत का ही फल मिला है और ख़ुशी से निहाल हूं तेरा धन्यवाद !! जिस को मैं अपना स्वर्ग समझता था वो गन्दगी थी और जो तेरी वजह से मिला वही स्वर्ग है ।

अहं के विसर्जन से ही जीवन सार्थक

एक ऋषि थे-सर्वथा सहज, निराभिमानी, वैरागी और अत्यधिक ज्ञानी। दूर -दूर से लोग उनके पास ज्ञान अर्जन करने के लिए आते थे। एक दिन एक युवक ने आकर उनके समक्ष शिष्य बनने की इच्छा प्रकट की। ऋषि ने सहमति दे दी। वह ऋषि के पास रहने लगा।वह ऋषि की शिक्षा को पूर्ण मनोयोग से ग्रहण करता। एक दिन ऋषि ने कहा -जाओ वत्स; तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हुई। अब तुम इसका उपयोग कर दूसरों का जीवन बेहतर बनाओ। 
         युवक ने उन्हें गुरुदक्षिणा देनी चाही। ऋषि बोले यदि तुम गुरु दक्षिणा देना ही चाहते हो तो वह चीज लेकर आओ,जो बिल्कुल व्यर्थ हो। युवक व्यर्थ चीज की खोज में चल पड़ा।  उसने सोचा मिट्टी ही सबसे व्यर्थ हो सकती है। यह सोचकर उसने मिट्टी लेने के लिए हाथ बढ़ाया, तो वह बोल उठी -तुम मुझे व्यर्थ समझते हो? धरती का सारा वैभव मेरे गर्भ में ही प्रकट होता है। ये विविध रूप,रस, गंध क्या मुझ से उत्पन्न नहीं होते? 
          युवक आगे बढ़ा तो उसे गंदगी का ढेर दिखाई दिया। उसने गंदगी की ओर हाथ बढ़ाया तो उसमें से आवाज आई -क्या मुझसे बेहतर खाद धरती पर मिलेगी? सारी फसलेँ मुझसे ही पोषण पाती है,फिर मैं व्यर्थ कैसे हो सकती हूँ ?
           युवक सोचने लगा, वस्तुतः सृष्टि का हर पदार्थ अपने में उपयोगी है। व्यर्थ और तुच्छ तो वह है जो दूसरों को व्यर्थ व तुच्छ समझता है और अहंकार के सिवा और क्या हो सकता है? युवक तत्काल ऋषि के पास जाकर बोला कि वह गुरु दक्षिणा में अपना अहंकार देने आया है यह सुनकर ऋषि बोले ठीक समझे वत्स।अहंकार के विसर्जन से ही विद्या सार्थक और फलवती होती है। 

कथा का संकेत स्पष्ट है कि दुनिया में व्यर्थ सिर्फ अहंकार होता है जो कुछ देने के स्थान पर जो है ,उसे भी नष्ट कर देता है।इससे यथासंभव बचना चाहिए।

मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

करीना का अपने बेटे का नाम तैमूर रखना और उसका समर्थन भारत की धरती पर सुन कर आज फिर जख्म हरे हो गए

तैमूर लंग दूसरा चंगेज़ ख़ाँ बनना चाहता था। वह चंगेज़ का वंशज होने का दावा करता था, लेकिन असल में वह तुर्क था। वह लंगड़ा था, इसलिए 'तैमूर लंग' (लंग = लंगड़ा) कहलाता था। वह अपने बाप के बाद सन 1369 ई. में समरकंद का शासक बना। इसके बाद ही उसने अपनी विजय और क्रूरता की यात्रा शुरू की।

वह बहुत बड़ा सिपहसलार था, लेकिन पूरा वहशी भी था। मध्य एशिया के मंगोल लोग इस बीच में मुसलमान हो चुके थे और तैमूर खुद भी मुसलमान था। जहाँ-जहाँ वह पहुँचा, उसने तबाही और पूरी मुसीबत फैला दी। नर-मुंडों के बड़े-बड़े ढेर लगवाने में उसे ख़ास मजा आता था। पूर्व में दिल्ली से लगाकर पश्चिम में एशिया-कोचक तक उसने लाखों आदमी क़त्ल कर डाले और उनके कटे सिरों को स्तूपों की शक्ल में जमवाया।

1399 ई. में तैमूर का भारत पर भयानक आक्रमण हुआ। अपनी जीवनी 'तुजुके तैमुरी' में वह कुरान की इस आयत से ही प्रारंभ करता है 'ऐ पैगम्बर काफिरों और विश्वास न लाने वालों से युद्ध करो और उन पर सखती बरतो।' वह आगे भारत पर अपने आक्रमण का कारण बताते हुए लिखता है-

हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने का मेरा ध्येय काफिर हिन्दुओं के विरुद्ध धार्मिक युद्ध करना है (जिससे) इस्लाम की सेना को भी हिन्दुओं की दौलत और मूल्यवान वस्तुएँ मिल जायें।

काश्मीर की सीमा पर कटोर नामी दुर्ग पर आक्रमण हुआ। उसने तमाम पुरुषों को कत्ल और स्त्रियों और बच्चों को कैद करने का आदेश दिया। फिर उन हठी काफिरों के सिरों के मीनार खड़े करने के आदेश दिये। फिर भटनेर के दुर्ग पर घेरा डाला गया। वहाँ के राजपूतों ने कुछ युद्ध के बाद हार मान ली और उन्हें क्षमादान दे दिया गया। किन्तु उनके असवाधान होते ही उन पर आक्रमण कर दिया गया।

तैमूर अपनी जीवनी में लिखता है कि 'थोड़े ही समय में दुर्ग के तमाम लोग तलवार के घाट उतार दिये गये। घंटे भर में १०,००० (दस हजार) लोगों के सिर काटे गये। इस्लाम की तलवार ने काफिरों के रक्त में स्नान किया। उनके सरोसामान, खजाने और अनाज को भी, जो वर्षों से दुर्ग में इकट्‌ठा किया गया था, मेरे सिपाहियों ने लूट लिया। मकानों में आग लगा कर राख कर दिया। इमारतों और दुर्ग को भूमिसात कर दिया गया।

दूसरा नगर सरसुती था जिस पर आक्रमण हुआ। 'सभी काफिर हिन्दू कत्ल कर दिये गये। उनके स्त्री और बच्चे और संपत्ति हमारी हो गई। तैमूर ने जब जाटों के प्रदेश में प्रवेश किया। उसने अपनी सेना को आदेश दिया कि 'जो भी मिल जाये, कत्ल कर दिया जाये।' और फिर सेना के सामने जो भी ग्राम या नगर आया, उसे लूटा गया। पुरुषों को कत्ल कर दिया गया और कुछ लोगों, स्त्रियों और बच्चों को बंदी बना लिया गया।'

दिल्ली के पास लोनी हिन्दू नगर था। किन्तु कुछ मुसलमान भी बंदियों में थे। तैमूर ने आदेश दिया कि मुसलमानों को छोड़कर शेष सभी हिन्दू बंदी इस्लाम की तलवार के घाट उतार दिये जायें। इस समय तक उसके पास हिन्दू बंदियों की संखया एक लाख हो गयी थी। जब यमुना पार कर दिल्ली पर आक्रमण की तैयारी हो रही थी उसके साथ के अमीरों ने उससे कहा कि इन बंदियों को कैम्प में नहीं छोड़ा जा सकता और इन इस्लाम के शत्रुओं को स्वतंत्र कर देना भी युद्ध के नियमों के विरुद्ध होगा। तैमूर लिखता है-

इसलिये उन लोगों को सिवाय तलवार का भोजन बनाने के कोई मार्ग नहीं था। मैंने कैम्प में घोषणा करवा दी कि तमाम बंदी कत्ल कर दिये जायें और इस आदेश के पालन में जो भी लापरवाही करे उसे भी कत्ल कर दिया जाये और उसकी सम्पत्ति सूचना देने वाले को दे दी जाये। जब इस्लाम के गाजियों (काफिरों का कत्ल करने वालों को आदर सूचक नाम) को यह आदेश मिला तो उन्होंने तलवारें सूत लीं और अपने बंदियों को कत्ल कर दिया। उस दिन एक लाख अपवित्र मूर्ति-पूजककाफिर कत्ल कर दिये गये।

तुगलक बादशाह को हराकर तैमूर ने दिल्ली में प्रवेश किया। उसे पता लगा कि आस-पास के देहातों से भागकर हिन्दुओं ने बड़ी संख्या में अपने स्त्री-बच्चों तथा मूल्यवान वस्तुओं के साथ दिल्ली में शरण ली हुई हैं। उसने अपने सिपाहियों को इन हिन्दुओं को उनकी संपत्ति समेत पकड़ लेने के आदेश दिये।

जीवन को सफल व सार्थक बनाने का माध्यम है परोपकार


जिंदगी की सार्थकता को यदि खोजना है तो वह दूसरों की भलाई करने में है। संसार में उसी परिश्रम को सार्थक कहा गया है, जो दूसरों के लिए किया जाता है। वही मेहनत सफल कहलाती है जिससे दूसरों का भला होता है। 
      मनुष्य जीवन की किसी भी अवस्था में और किसी भी स्थिति में परोपकार किया जा सकता है। बस, इसके लिए संवेदनशील और उदार भावनाएं होनी चाहिए।  
      प्राचीन समय में एक वृद्ध बेसहारा आदमी भिक्षा मांगकर अपना जीवन-निर्वाह करता था। उसका नित्य का नियम था कि वह अधिक से अधिक भिक्षा प्राप्त करने का प्रयास करता था। इसी प्रयास में उसे सवेरे से लेकर रात हो जाती थी। वह भटकता रहता और हाथ पसारे भीख मांगता रहता।  
     वृद्ध की दिनचर्या का एक हिस्सा यह भी था कि जैसे ही वह सवेरे सोकर उठता, सबसे पहले शुद्ध होकर मंदिर में जाता, वहां की पूजा में भाग लेता, भगवान को प्रणाम करता, फिर लौटकर आता और भीख मांगने निकल जाता। 
     अपनी कुटिया से मुख्य मार्ग की ओर जाते समय वह अनाज के दानों से मुट्ठियां भर लेता था और जहां पक्षियों को देखता, वहां दाने बिखेर देता। दोपहर को जब खाना खाने बैठता तो आधे से अधिक खाना लोगों में बांट देता। उसे अपना पेट भरने की अधिक चिंता नहीं होती थी। जिस दिन वह अधिक परमार्थ करता, उस रात उसे बड़ी गहरी नींद आती और वह निश्चिन्त  होकर सो जाता।
     सामान्यत: मनुष्य की प्रवृत्ति स्वार्थी होती है और इस स्वार्थी संसार में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो केवल अपने लिए परिश्रम करते हैं। जो मनुष्य औरों के लिए नहीं सोचते उनका जीवन व्यर्थ है। 
      जीवन में सार्थकता तभी आती है जब दूसरों के लिए कुछ किया जाता है। दूसरों की सहायता करने की प्रेरणा तो प्रकृति हर पल देती है, लेकिन मनुष्य फिर भी इनके शिक्षण से अनजान बने रहकर इनकी सेवा को ग्रहण करता रहता है। व्यक्ति के अंदर ऐसा जज्बा होना चाहिए कि जो उसकी राह में कांटे उत्पन्न करे, उसके लिए भी वह फूल उत्पन्न करे। 
      अंत में वह व्यक्ति स्वयं देखेगा कि उसके द्वारा उत्पन्न किए गए फूल तो फूल ही हैं, जबकि दूसरों द्वारा पैदा किए गए कांटे उनके लिए त्रिशूल बन गए हैं। जो व्यक्ति दूसरों का भला करते हैं वे जिंदगी भर मुस्कराते हैं।

गुरुवार, 29 सितंबर 2016

जहां धर्म वहां विजय

रूपनगर में एक दानी और धर्मात्मा राजा राज्य करते थे । एक दिन उनके पास एक साधु आये और बोले  ,'महाराज,आप मुझे बारह साल के लिए अपना राज्य दे दीजिए या अपना धर्म दे दीजिए।' राजा बोले, 'धर्म तो नहीं दे पाऊंगा। आप मेरा राज्य ले सकते है।' साधु  महाराज राजगद्दी पर बैठे और राजा जंगल की ओर चल पडे । 
    जंगल में राजा को एक युवती मिली। उसने बताया कि वह आनंदपुर राज्य की राजकुमारी है। शत्रुओं ने उसके पिता की हत्या कर राज्य हड़प लिया है उस युवती के कहने पर राजा ने एक दूसरे नगर में रहना स्वीकार कर लिया। जब भी राजा को किसी वस्तु की आवश्यकता होती वह युवती मदद करती।  
     एक दिन उस राजा से उस नगर का राजा मिला। और दोनों में दोस्ती हो गयी ।  एक दिन उस विस्थापित राजा ने नगर के राजा और उसके सैनिकों को भोज पर बुलाया। नगर  का राजा यह देखकर हैरान था कि उस विस्थापित राजा ने इतना सारा इंतजाम कैसे किया। विस्थापित राजा खुद भी हैरान था। 
      तब उसने उस युवती से पूछा,'तुमने इतने कम समय में ये सारी व्यवस्थाएं कैसे की?' उस युवती ने राजा से कहा,'आपका राज्य संभालने का वक्त आ गया है। आप जाकर राज्य संभाले। मैं युवती नहीं,धर्म हूँ। एक दिन आपने राजपाट छोड़कर मुझे बचाया था,इसलिए मैंने आपकी मदद की। 
     ग्रन्थों में सत्य ही कहा गया है जो धर्म को जानकर उसकी रक्षा करता है,धर्म उसकी रक्षा करता है। जहां धर्म है, वहां विजय है इसलिए हमारे लिए धर्म को गहराई से समझना और जीवन में अपनाना अत्यंत आवश्यक है।

रविवार, 25 सितंबर 2016

पंडित दीनदयाल उपाध्याय


सुविधायों में पलकर कोई भी सफलता पा सकता है; पर अभावों के बीच रहकर शिखरों को छूना बहुत कठिन है। 25 सितम्बर, 1916 को जयपुर से अजमेर मार्ग पर स्थित ग्राम धनकिया में अपने नाना पण्डित चुन्नीलाल शुक्ल के घर जन्मे दीनदयाल उपाध्याय ऐसी ही विभूति थे।

दीनदयाल जी के पिता श्री भगवती प्रसाद ग्राम नगला चन्द्रभान, जिला मथुरा, उत्तर प्रदेश के निवासी थे। तीन वर्ष की अवस्था में ही उनके पिताजी का तथा आठ वर्ष की अवस्था में माताजी का देहान्त हो गया। अतः दीनदयाल का पालन रेलवे में कार्यरत उनके मामा ने किया। ये सदा प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण होते थे। कक्षा आठ में उन्होंने अलवर बोर्ड, मैट्रिक में अजमेर बोर्ड तथा इण्टर में पिलानी में सर्वाधिक अंक पाये थे।

14 वर्ष की आयु में इनके छोटे भाई शिवदयाल का देहान्त हो गया। 1939 में उन्होंने सनातन धर्म कालिज, कानपुर से प्रथम श्रेणी में बी.ए. पास किया। यहीं उनका सम्पर्क संघ के उत्तर प्रदेश के प्रचारक श्री भाऊराव देवरस से हुआ। इसके बाद वे संघ की ओर खिंचते चले गये। एम.ए. करने के लिए वे आगरा आये; पर घरेलू परिस्थितियों के कारण एम.ए. पूरा नहीं कर पाये। प्रयाग से इन्होंने एल.टी की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। संघ के तृतीय वर्ष की बौद्धिक परीक्षा में उन्हें पूरे देश में प्रथम स्थान मिला था।

अपनी मामी के आग्रह पर उन्होंने प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दी। उसमें भी वे प्रथम रहे; पर तब तक वे नौकरी और गृहस्थी के बन्धन से मुक्त रहकर संघ को सर्वस्व समर्पण करने का मन बना चुके थे। इससे इनका पालन-पोषण करने वाले मामा जी को बहुत कष्ट हुआ। इस पर दीनदयाल जी ने उन्हें एक पत्र लिखकर क्षमा माँगी। वह पत्र ऐतिहासिक महत्त्व का है। 1942 से उनका प्रचारक जीवन गोला गोकर्णनाथ (लखीमपुर, उ.प्र.) से प्रारम्भ हुआ। 1947 में वे उत्तर प्रदेश के सहप्रान्त प्रचारक बनाये गये।

1951 में डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने नेहरू जी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों के विरोध में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल छोड़ दिया। वे राष्ट्रीय विचारों वाले एक नये राजनीतिक दल का गठन करना चाहते थे। उन्होंने संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से सम्पर्क किया। गुरुजी ने दीनदयाल जी को उनका सहयोग करने को कहा। इस प्रकार 'भारतीय जनसंघ' की स्थापना हुई। दीनदयाल जी प्रारम्भ में उसके संगठन मन्त्री और फिर महामन्त्री बनाये गये।

1953 के कश्मीर सत्याग्रह में डा. मुखर्जी की रहस्यपूर्ण परिस्थितियों में मृत्यु के बाद जनसंघ की पूरी जिम्मेदारी दीनदयाल जी पर आ गयी। वे एक कुशल संगठक, वक्ता, लेखक, पत्रकार और चिन्तक भी थे। लखनऊ में राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना उन्होंने ही की थी। एकात्म मानववाद के नाम से उन्होंने नया आर्थिक एवं सामाजिक चिन्तन दिया, जो साम्यवाद और पूँजीवाद की विसंगतियों से ऊपर उठकर देश को सही दिशा दिखाने में सक्षम है।

उनके नेतृत्व में जनसंघ नित नये क्षेत्रों में पैर जमाने लगा। 1967 में कालीकट अधिवेशन में वे सर्वसम्मति से अध्यक्ष बनायेे गये। चारों ओर जनसंघ और दीनदयाल जी के नाम की धूम मच गयी। यह देखकर विरोधियों के दिल फटने लगे। 11 फरवरी, 1968 को वे लखनऊ से पटना जा रहे थे। रास्ते में  किसी ने उनकी हत्या कर मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर लाश नीचे फेंक दी। इस प्रकार अत्यन्त रहस्यपूर्ण परिस्थिति में एक मनीषी का निधन हो गया।

शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

गांधीवादी चिन्तक श्री धर्मपाल


श्री धर्मपाल जी की गणना भारत के महान गांधीवादी चिन्तकों में की जाती है। उनका जन्म 1922 में कांधला (जिला मुजफ्फरनगर, उ.प्र.) में हुआ था। 1942 में वे भारत छोड़ो आन्दोलन में सक्रिय हुए और उन्हें जेल यात्रा करनी पड़ी। शासन ने उनके दिल्ली प्रवेश पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया। अतः गांधी जी की प्रेरणा से वे उनकी एक विदेशी शिष्या मीरा बहन द्वारा ऋषिकेष में किये जा रहे भारतीय खेती के प्रयोगों से जुड़ गये। 

1949 तक धर्मपाल जी वहीं काम करते रहे। इसके बाद मीरा बहन ने उन्हें इंग्लैण्ड होते हुए इसराइल जाकर ग्राम विकास के किबुंज प्रयोग का अध्ययन करने को कहा। इंग्लैण्ड में उनकी भेंट एक महिला समाजसेवी फिलिस से हुई। आगे चलकर दोनों ने विवाह कर लिया और भारत आ गये। 

अब धर्मपाल जी को परिवार चलाने के लिए भी कुछ उद्यम करना था। उनकी पत्नी मसूरी में अध्यापन कार्य करने लगी। कालान्तर में उन्हें एक पुत्र और दो पुत्रियों की प्राप्ति हुई। 1957 में परिवार सहित दिल्ली आकर वे गांधीवादी संस्थाओं में काम करने लगे। इस दौरान उनका सम्पर्क अनेक लोगों से हुआ। इनमें से सीताराम गोयल, रामस्वरूप तथा धर्मपाल जी ने अपने मित्रधर्म का आजीवन पालन किया।

धर्मपाल जी एक बार मद्रास प्रान्त में पंचायत व्यवस्था के अध्ययन के लिए अभिलेखागारों को खंगाल रहे थे। उनकी दृष्टि वहाँ भारत में अंग्रेजी राज्य से पूर्व की पंचायत व्यवस्था सम्बन्धी अभिलेखों पर पड़ी। उन्होंने पाया कि भारतीय पंचायत व्यवस्था बहुत अच्छी थी, जिसे धूर्त अंग्रेजों ने जानबूझ कर नष्ट किया। इससे उनकी सोच की दिशा बदल गयी। 

अब उन्होंने अपना पूरा समय भारत की प्राचीन न्याय, शिक्षा, कृषि, विज्ञान, उद्योग....आदि प्रणालियों के अध्ययन में लगा दिया। इसके लिए उन्हें भारत तथा विदेशों के अनेक अभिलेखागारों में महीनों बैठना पड़ा। निष्कर्ष यह निकला कि अंग्रेजों का 250 साल का काल भारत की सब आधारभूत व्यवस्थाओं की बर्बादी का काल है। उस पर भी तुर्रा यह कि अंग्रेजों ने शिक्षित भारतीयों के मन मस्तिष्क में यह बात बैठा दी कि अंग्रेजों ने आकर जंगली भारतीयों को सभ्य बनाया।

धर्मपाल जी का निष्कर्ष था कि मुस्लिम काल में ये व्यवस्थाएँ नष्ट नहीं हो पायीं; पर अंग्रेजों ने इनका गहन अध्ययन किया और फिर षड्यन्त्रपूर्वक इन्हें तोड़कर सदा के लिए भारतीय मस्तिष्क को गुलाम बना लिया। उनके अध्ययन पर आधारित पुस्तकें जब प्रकाशित हुईं, तो सर्वत्र हलचल मच गयी। गांधी जी के नाम पर सत्ता भोग रहे कांग्रेसी और उनके कम्यूनिस्ट पिट्ठू अंग्रेजी शासन को देश के लिए वरदान मानते थे। अतः उन्होंने धर्मपाल जी से दूरी बना ली।

धर्मपाल जी गांधी जी के भक्त थे, कांग्रेस के नहीं। इसीलिए जब सोनिया गांधी ने प्रधानमन्त्री बनने का प्रयास किया, तो उसके विरुद्ध उन्होंने दिल्ली में प्रदर्शन किया। जीवन के अन्तिम कुछ वर्षों में कांग्रेस और कम्यूनिस्टों से उनका मोहभंग हो गया और वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रभावित हो गये। नागपुर में आयोजित संघ शिक्षा वर्ग (तृतीय वर्ष) के सार्वजनिक समापन कार्यक्रम में वे अध्यक्षता करने गये। दीनदयाल शोध संस्थान में भी कई बार उनके भाषण हुए। 24 अक्तूबर, 2006 को गांधी जी की तपःस्थली सेवाग्राम में 84 वर्षीय इस मनीषी का देहान्त हो गया।