गुरुवार, 29 सितंबर 2016

जहां धर्म वहां विजय

रूपनगर में एक दानी और धर्मात्मा राजा राज्य करते थे । एक दिन उनके पास एक साधु आये और बोले  ,'महाराज,आप मुझे बारह साल के लिए अपना राज्य दे दीजिए या अपना धर्म दे दीजिए।' राजा बोले, 'धर्म तो नहीं दे पाऊंगा। आप मेरा राज्य ले सकते है।' साधु  महाराज राजगद्दी पर बैठे और राजा जंगल की ओर चल पडे । 
    जंगल में राजा को एक युवती मिली। उसने बताया कि वह आनंदपुर राज्य की राजकुमारी है। शत्रुओं ने उसके पिता की हत्या कर राज्य हड़प लिया है उस युवती के कहने पर राजा ने एक दूसरे नगर में रहना स्वीकार कर लिया। जब भी राजा को किसी वस्तु की आवश्यकता होती वह युवती मदद करती।  
     एक दिन उस राजा से उस नगर का राजा मिला। और दोनों में दोस्ती हो गयी ।  एक दिन उस विस्थापित राजा ने नगर के राजा और उसके सैनिकों को भोज पर बुलाया। नगर  का राजा यह देखकर हैरान था कि उस विस्थापित राजा ने इतना सारा इंतजाम कैसे किया। विस्थापित राजा खुद भी हैरान था। 
      तब उसने उस युवती से पूछा,'तुमने इतने कम समय में ये सारी व्यवस्थाएं कैसे की?' उस युवती ने राजा से कहा,'आपका राज्य संभालने का वक्त आ गया है। आप जाकर राज्य संभाले। मैं युवती नहीं,धर्म हूँ। एक दिन आपने राजपाट छोड़कर मुझे बचाया था,इसलिए मैंने आपकी मदद की। 
     ग्रन्थों में सत्य ही कहा गया है जो धर्म को जानकर उसकी रक्षा करता है,धर्म उसकी रक्षा करता है। जहां धर्म है, वहां विजय है इसलिए हमारे लिए धर्म को गहराई से समझना और जीवन में अपनाना अत्यंत आवश्यक है।

रविवार, 25 सितंबर 2016

पंडित दीनदयाल उपाध्याय


सुविधायों में पलकर कोई भी सफलता पा सकता है; पर अभावों के बीच रहकर शिखरों को छूना बहुत कठिन है। 25 सितम्बर, 1916 को जयपुर से अजमेर मार्ग पर स्थित ग्राम धनकिया में अपने नाना पण्डित चुन्नीलाल शुक्ल के घर जन्मे दीनदयाल उपाध्याय ऐसी ही विभूति थे।

दीनदयाल जी के पिता श्री भगवती प्रसाद ग्राम नगला चन्द्रभान, जिला मथुरा, उत्तर प्रदेश के निवासी थे। तीन वर्ष की अवस्था में ही उनके पिताजी का तथा आठ वर्ष की अवस्था में माताजी का देहान्त हो गया। अतः दीनदयाल का पालन रेलवे में कार्यरत उनके मामा ने किया। ये सदा प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण होते थे। कक्षा आठ में उन्होंने अलवर बोर्ड, मैट्रिक में अजमेर बोर्ड तथा इण्टर में पिलानी में सर्वाधिक अंक पाये थे।

14 वर्ष की आयु में इनके छोटे भाई शिवदयाल का देहान्त हो गया। 1939 में उन्होंने सनातन धर्म कालिज, कानपुर से प्रथम श्रेणी में बी.ए. पास किया। यहीं उनका सम्पर्क संघ के उत्तर प्रदेश के प्रचारक श्री भाऊराव देवरस से हुआ। इसके बाद वे संघ की ओर खिंचते चले गये। एम.ए. करने के लिए वे आगरा आये; पर घरेलू परिस्थितियों के कारण एम.ए. पूरा नहीं कर पाये। प्रयाग से इन्होंने एल.टी की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। संघ के तृतीय वर्ष की बौद्धिक परीक्षा में उन्हें पूरे देश में प्रथम स्थान मिला था।

अपनी मामी के आग्रह पर उन्होंने प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दी। उसमें भी वे प्रथम रहे; पर तब तक वे नौकरी और गृहस्थी के बन्धन से मुक्त रहकर संघ को सर्वस्व समर्पण करने का मन बना चुके थे। इससे इनका पालन-पोषण करने वाले मामा जी को बहुत कष्ट हुआ। इस पर दीनदयाल जी ने उन्हें एक पत्र लिखकर क्षमा माँगी। वह पत्र ऐतिहासिक महत्त्व का है। 1942 से उनका प्रचारक जीवन गोला गोकर्णनाथ (लखीमपुर, उ.प्र.) से प्रारम्भ हुआ। 1947 में वे उत्तर प्रदेश के सहप्रान्त प्रचारक बनाये गये।

1951 में डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने नेहरू जी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों के विरोध में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल छोड़ दिया। वे राष्ट्रीय विचारों वाले एक नये राजनीतिक दल का गठन करना चाहते थे। उन्होंने संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से सम्पर्क किया। गुरुजी ने दीनदयाल जी को उनका सहयोग करने को कहा। इस प्रकार 'भारतीय जनसंघ' की स्थापना हुई। दीनदयाल जी प्रारम्भ में उसके संगठन मन्त्री और फिर महामन्त्री बनाये गये।

1953 के कश्मीर सत्याग्रह में डा. मुखर्जी की रहस्यपूर्ण परिस्थितियों में मृत्यु के बाद जनसंघ की पूरी जिम्मेदारी दीनदयाल जी पर आ गयी। वे एक कुशल संगठक, वक्ता, लेखक, पत्रकार और चिन्तक भी थे। लखनऊ में राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना उन्होंने ही की थी। एकात्म मानववाद के नाम से उन्होंने नया आर्थिक एवं सामाजिक चिन्तन दिया, जो साम्यवाद और पूँजीवाद की विसंगतियों से ऊपर उठकर देश को सही दिशा दिखाने में सक्षम है।

उनके नेतृत्व में जनसंघ नित नये क्षेत्रों में पैर जमाने लगा। 1967 में कालीकट अधिवेशन में वे सर्वसम्मति से अध्यक्ष बनायेे गये। चारों ओर जनसंघ और दीनदयाल जी के नाम की धूम मच गयी। यह देखकर विरोधियों के दिल फटने लगे। 11 फरवरी, 1968 को वे लखनऊ से पटना जा रहे थे। रास्ते में  किसी ने उनकी हत्या कर मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर लाश नीचे फेंक दी। इस प्रकार अत्यन्त रहस्यपूर्ण परिस्थिति में एक मनीषी का निधन हो गया।

शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

गांधीवादी चिन्तक श्री धर्मपाल


श्री धर्मपाल जी की गणना भारत के महान गांधीवादी चिन्तकों में की जाती है। उनका जन्म 1922 में कांधला (जिला मुजफ्फरनगर, उ.प्र.) में हुआ था। 1942 में वे भारत छोड़ो आन्दोलन में सक्रिय हुए और उन्हें जेल यात्रा करनी पड़ी। शासन ने उनके दिल्ली प्रवेश पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया। अतः गांधी जी की प्रेरणा से वे उनकी एक विदेशी शिष्या मीरा बहन द्वारा ऋषिकेष में किये जा रहे भारतीय खेती के प्रयोगों से जुड़ गये। 

1949 तक धर्मपाल जी वहीं काम करते रहे। इसके बाद मीरा बहन ने उन्हें इंग्लैण्ड होते हुए इसराइल जाकर ग्राम विकास के किबुंज प्रयोग का अध्ययन करने को कहा। इंग्लैण्ड में उनकी भेंट एक महिला समाजसेवी फिलिस से हुई। आगे चलकर दोनों ने विवाह कर लिया और भारत आ गये। 

अब धर्मपाल जी को परिवार चलाने के लिए भी कुछ उद्यम करना था। उनकी पत्नी मसूरी में अध्यापन कार्य करने लगी। कालान्तर में उन्हें एक पुत्र और दो पुत्रियों की प्राप्ति हुई। 1957 में परिवार सहित दिल्ली आकर वे गांधीवादी संस्थाओं में काम करने लगे। इस दौरान उनका सम्पर्क अनेक लोगों से हुआ। इनमें से सीताराम गोयल, रामस्वरूप तथा धर्मपाल जी ने अपने मित्रधर्म का आजीवन पालन किया।

धर्मपाल जी एक बार मद्रास प्रान्त में पंचायत व्यवस्था के अध्ययन के लिए अभिलेखागारों को खंगाल रहे थे। उनकी दृष्टि वहाँ भारत में अंग्रेजी राज्य से पूर्व की पंचायत व्यवस्था सम्बन्धी अभिलेखों पर पड़ी। उन्होंने पाया कि भारतीय पंचायत व्यवस्था बहुत अच्छी थी, जिसे धूर्त अंग्रेजों ने जानबूझ कर नष्ट किया। इससे उनकी सोच की दिशा बदल गयी। 

अब उन्होंने अपना पूरा समय भारत की प्राचीन न्याय, शिक्षा, कृषि, विज्ञान, उद्योग....आदि प्रणालियों के अध्ययन में लगा दिया। इसके लिए उन्हें भारत तथा विदेशों के अनेक अभिलेखागारों में महीनों बैठना पड़ा। निष्कर्ष यह निकला कि अंग्रेजों का 250 साल का काल भारत की सब आधारभूत व्यवस्थाओं की बर्बादी का काल है। उस पर भी तुर्रा यह कि अंग्रेजों ने शिक्षित भारतीयों के मन मस्तिष्क में यह बात बैठा दी कि अंग्रेजों ने आकर जंगली भारतीयों को सभ्य बनाया।

धर्मपाल जी का निष्कर्ष था कि मुस्लिम काल में ये व्यवस्थाएँ नष्ट नहीं हो पायीं; पर अंग्रेजों ने इनका गहन अध्ययन किया और फिर षड्यन्त्रपूर्वक इन्हें तोड़कर सदा के लिए भारतीय मस्तिष्क को गुलाम बना लिया। उनके अध्ययन पर आधारित पुस्तकें जब प्रकाशित हुईं, तो सर्वत्र हलचल मच गयी। गांधी जी के नाम पर सत्ता भोग रहे कांग्रेसी और उनके कम्यूनिस्ट पिट्ठू अंग्रेजी शासन को देश के लिए वरदान मानते थे। अतः उन्होंने धर्मपाल जी से दूरी बना ली।

धर्मपाल जी गांधी जी के भक्त थे, कांग्रेस के नहीं। इसीलिए जब सोनिया गांधी ने प्रधानमन्त्री बनने का प्रयास किया, तो उसके विरुद्ध उन्होंने दिल्ली में प्रदर्शन किया। जीवन के अन्तिम कुछ वर्षों में कांग्रेस और कम्यूनिस्टों से उनका मोहभंग हो गया और वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रभावित हो गये। नागपुर में आयोजित संघ शिक्षा वर्ग (तृतीय वर्ष) के सार्वजनिक समापन कार्यक्रम में वे अध्यक्षता करने गये। दीनदयाल शोध संस्थान में भी कई बार उनके भाषण हुए। 24 अक्तूबर, 2006 को गांधी जी की तपःस्थली सेवाग्राम में 84 वर्षीय इस मनीषी का देहान्त हो गया। 

बुधवार, 21 सितंबर 2016

सत्कार और तिरस्कार का महत्व

एक थका माँदा शिल्पकार लंबी यात्रा के बाद किसी छायादार वृक्ष के नीचे विश्राम के लिये बैठ गया। अचानक उसे सामने एक पत्थर का टुकड़ा पड़ा दिखाई दिया। उसने उस सुंदर पत्थर के टुकड़े को उठा लिया, सामने रखा और औजारों के थैले से छेनी-हथौड़ी निकालकर उसे तराशने के लिए जैसे ही पहली चोट की, पत्थर जोर से चिल्ला पड़ा, "उफ मुझे मत मारो।" दूसरी बार वह रोने लगा, "मत मारो मुझे, मत मारो... मत मारो।

शिल्पकार ने उस पत्थर को छोड़ दिया, अपनी पसंद का एक अन्य टुकड़ा उठाया और उसे हथौड़ी से तराशने लगा। वह टुकड़ा चुपचाप वार सहता गया और देखते ही देखते उसमें से एक देवी की मूर्ति उभर आई। मूर्ति वहीं पेड़ के नीचे रख वह अपनी राह पकड़ आगे चला गया। 

कुछ वर्षों बाद उस शिल्पकार को फिर से उसी पुराने रास्ते से गुजरना पड़ा, जहाँ पिछली बार विश्राम किया था। उस स्थान पर पहुँचा तो देखा कि वहाँ उस मूर्ति की पूजा अर्चना हो रही है, जो उसने बनाई थी। भीड़ है, भजन आरती हो रही है, भक्तों की पंक्तियाँ लगीं हैं, जब उसके दर्शन का समय आया, तो पास आकर देखा कि उसकी बनाई मूर्ति का कितना सत्कार हो रहा है! जो पत्थर का पहला टुकड़ा उसने, उसके रोने चिल्लाने पर फेंक दिया था वह भी एक ओर में पड़ा है और लोग उसके सिर पर नारियल फोड़ फोड़ कर मूर्ति पर चढ़ा रहे है।

शिल्पकार ने मन ही मन सोचा कि जीवन में कुछ बन पाने के लिए शुरू में अपने शिल्पकार को पहचानकर, उनका सत्कारकर कुछ कष्ट झेल लेने से जीवन बन जाता हैं। बाद में सारा विश्व उनका सत्कार करता है। जो डर जाते हैं और बचकर भागना चाहते हैं वे बाद में जीवन भर कष्ट झेलते हैं, उनका सत्कार कोई नहीं करता ।

मंगलवार, 13 सितंबर 2016

गांधी हत्या के बहाने संघ को दबाने की साजिश

डॉ. रवि प्रभात की कलम से

राहुल गांधी आये दिन अपनी नासमझी के कारण कांग्रेस को मुसीबत में डालते रहते हैं, यह उनके लिए कोई नयी बात नही है, शायद यह उनकी आदत में शुमार हो चुका है।राहुल गांधी की बातों यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें भारत के इतिहास की कोई ख़ास समझ नही है, केवल कुछ सुनी सुनाई बातो को बना परखे तोते की तरह रट कर बोलते रहते हैं।अपनी इसी नासमझी की वजह से राहुल गांधी को आजकल कोर्ट कचहरियों के रास्ते नांपने पड़ रहे हैं।गांधी जी की हत्या के लिए संघ को जिम्मेदार बतलाने के बाद राहुल गांधी पर भारी मुसीबत मंडरा रही है , जिसमे शायद उन्हें जेल भी जाना पड़े।

इसी फजीहत के डर से राहुल गांधी ने अपने बयान से पल्ला झाड़ने की भी कोशिश की और कहा कि मैंने कभी भी संघ को गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार नही ठहराया , मैंने तो इतना कहा था कि संघ के लोगो ने गांधी की ह्त्या की है।इसमें कोई दोराय नही कि गेंद अब वकीलो और कानूनविदों के पाले में है  लेकिन यह मामला केवल कानूनी पहलुओ सीमित नही है।राहुल गांधी इसे राजनितिक अवसर के रूप में देख रहे हैं। शायद उनकी मंशा गांधी हत्या के मामले में वर्तमान युवा पीढ़ी को गुमराह करने की भी जो इस पूरे प्रकरण से उतनी परिचित नही है।

मुझे लगता है संघ-विरोधियो के लिए गांधी की हत्या संघ को दबाने और कुचलने का साधन बन गयी थी, जिसका उपकरण के रूप में आज तक उपयोग किया जा रहा है।गांधी की हत्या के बाद दो दो जांच आयोगों ने कभी भी संघ के नेतृत्व को इसमें लिप्त नही पाया, न ही संघ के कार्यकर्ताओ की कोई भूमिका प्रमाणित हुई।तत्कालीन उपप्रधानमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने नेहरू को पत्र लिख कर कहा था "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का इस कार्य से कुछ लेना देना नही है, निस्संदेह संघ को दुसरे कृत्यों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है परंतु इसके लिए नहीँ" ।लेकिन फिर भी कुछ लोग "संघ-शक्ति" को उभरते हुए नही देखना चाहते थे इसलिए हमेशा से यह एकपक्षीय प्रोपेगेंडा चलता रहा है , जिसे सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण जुटाने की जहमत कभी किसी ने उठायी ही नहीँ।

गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार नाथूराम गोडसे कभी भी संघ का जिम्मेदार कार्यकर्ता नही रहा, गोडसे विशुद्ध रूप से हिन्दू महासभा का नेता था , जो खुले आम तत्कालीन संघ नेतृत्व एवं स्वयंसेवको को लानत मलानत भेजता भी भेजा करता था।भागानागर सत्याग्रह के बाद गोडसे संघ को हिन्दुत्वविरोधी कहकर दुष्प्रचार करता था तथा स्वयंसेवको को शाखा में जाने से निरुत्साहित किया करता था।गोडसे की दृष्टी में संघ युवाओ की शक्ति क्षय करने वाला संगठन था।अब अगर गोडसे की संघ के साथ कोई वैचारिक , व्यावहारिक तारतम्यता ही नही थी तो उसके किसी कृत्य के लिए संघ क्योंकर जिम्मेदार होने लगा।

इसी सन्दर्भ में एक बात और समझने की , जिसके घालमेल की वजह से कुछ चीजे समाज में स्पष्ट रूप से नहीँ जा पाती।हमेशा से ही हिन्दू महासभा और संघ दो अलग अलग संगठन रहे हैं,  महासभा एक राजनितिक संगठन था तथा संघ अराजनीतिक संगठन।दोनों की कार्यपद्धति में महान अंतर था लेकिन क्योंकि डा हेडगेवार आरम्भ में महासभा के  वरिष्ठ नेताओ के सम्पर्क में रहे इसलिए तब संघ और महासभा को एक ही संगठन के तौर पे देखने की गलती कुछ लोग करते थे।महासभा के कुछ नेता भी संघ को अपना सैन्य संगठन  बनाना चाहते थे जिसे डा हेडगेवार ने कभी स्वीकार नही किया।

यहां तक कि महासभा समर्थित "वन्देमातरम्" पत्र में 12 लेखो की शृंखला में डा हेडगेवार को हठी ,अभिमानी ,घमण्डी, हिन्दुत्वशक्ति का विभाजक जैसे अपमानित करने वाले शब्दों का भी प्रयोग किया गया तब भी डा हेडगेवार अपने निर्धारित उच्च लक्ष्य की ओर आगे बढ़ते रहे ।कभी भी संघ को महासभा की महत्त्वाकांक्षा की आग में नष्ट नही होने दिया।इसका अभिप्राय यह हुआ कि महासभा के भी किसी कार्य के लिए संघ को उत्तरदायी ठहराना संघ के साथ अन्याय करने जैसा है।

गांधी की हत्या के लिए संघ को जिम्मेदार ठहराने के सन्दर्भ में संघ के शीर्ष नेतृत्व तथा कार्यकर्ताओ का व्यवहार भी परखना चाहिए, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि गांधी की हत्या में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष षड्यंत्र तो छोड़िये संघ का मानसिक या मौन समर्थन भी कदापि नही था।गांधी की हत्या का संदेश मिलते ही तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी सार्वजनिक पत्र लिखकर शोक व्यक्त किया था, वे इसे त्रासदी के रूप में देखते थे। दीनदयाल उपाध्याय जो कि संघ के वरिष्ठ प्रचारक तथा जनसंघ के संस्थापको में रहे उनका मानना था कि गांधी की ह्त्या हिन्दुत्ववादियों का सफाया करने का उत्तम राजनीतिक अवसर था, जिसका लाभ उठाकर 1948 में संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया।संघ एक के अन्य वरिष्ठ प्रचारक तथा भारतीय मजदूर संघ के प्रणेता श्री दत्तोपंत ठेंगडी जी "हिन्दू मानसिकता"पुस्तक में लिखते हैं कि गांधी की हत्या से देश के बाद अगर किसी का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है तो वह संघ है।उस समय संघ का कार्य तेजी से देश भर में बढ़ रहा था परंतु गांधी की ह्त्या में लपेटने और प्रतिबन्ध लगने से संघ कार्य की बड़ी क्षति हुई।उन्होंने गांधी की ह्त्या को किसी भी दृष्टिकोण से उचित नही ठहराया अपितु गोडसे की कड़ी भर्त्सना की।

हम अगर इसका दूसरा पक्ष देखें तो गांधी की मृत्यु से सबसे अधिक लाभ कांग्रेस को ही हुआ।यदि इस प्रकार गांधी की ह्त्या न हुई होती तो कांग्रेस इतने दिनों तक लोकप्रिय नही रही होती।कांग्रेस की रीती निति से खफा होकर गांधी खुद कांग्रेस के विरोध में उतर आते।साथ ही यह भी अन्वेषणा का विषय है कि गांधी की ह्त्या का एक असफल प्रयास होने पर भी नेहरू ने उनकी सुरक्षा का उचित प्रबन्ध क्यों नही किया , क्या इसके लिए नेहरू की जिम्मेदारी नही बनती थी? जैसा कि आजकल हम अन्य सरकारो को जिम्मेदार ठहरातव हैं।दुर्भाग्य से जन विमर्श में इन बातो का सही विश्लेषण होता नही दिखता।

संघ ने कभी भी गांधी की हत्या को उचित नही ठहराया।वर्तमान में संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी के अनुसार " यह सही है कि गांधी जी के साथ संघ के कुछ मुद्दों पर राजनितिक मतभेद थे परंतु इसके साथ साथ गांधी के उठाये सांस्कृतिक मुद्दों पर पूर्ण सहमति भी थी, गांधी के ग्राम स्वराज, स्वदेशी, जातिगत अस्पृश्यता आदि मुद्दों पर संघ आरम्भ से सक्रिय रहा और उन्हें समाज में क्रियान्वित करके दिखाया"। संघ की गांधी के प्रति भावना इस तथ्य से भी व्यक्त होती है  संघ के प्रतिदिन प्रातः स्मरण किये जाने वाले " एकात्मता स्तोत्र"  में अन्य महापुरुषों के साथ साथ गांधी का नाम भी श्रद्धापूर्वक स्मरण किया जाता है।

संघ का व्यवहार कभी भी प्रतिक्रयात्मक नही रहा , संघ अहिंसा को सही अर्थ में अपनाने वाला संगठन है।संघ ने भी वैचारिक भिन्नताओ के आधार पर किसी के लिए कोई प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष साजिश नही रची।अगर संघ की रीती पद्धति ऐसी होती तो ऐसे षडयंत्रो में गांधी की अपेक्षा जिन्नाह या बाकी लोगो का नाम पहले आना चाहिए था।लेकिन तब भी संघ को हिंदुत्ववादि होने का खामियाजा भुगतना पड़ा।नेहरू को हिन्दू शब्द से घृणा थी।काका साहेब गाडगिल लिखते हैं कि गांधी की हत्या के बाद 31 जनवरी और एक फरवरी को दिल्ली में राज्यपालों की बैठक में मैं भी उपस्थित था।इस बैठक में हिन्दू महासभा और संघ के बारे में कठोर निति अपनाने पर विचार व्यक्त किये जा रहे थे।जबकि कई लोगो का मानना था कि केवल हत्यारे और उसके सहयोगियों के खिलाफ ही कठोर नीति अपनानी चाहिए।सावरकर को भी नेहरू के आग्रह पर ही इस मामले में अभियुक्त के तौर पर समेटा गया था।

अनेक तथ्यों का विश्लेषण करने पर कांग्रेस का संघ के प्रति विचार व्यवहार हमेशा विरोधाभास भरा रहा है।यह बात सच है कि कांग्रेस का दृष्टिकोण संघ के आरम्भ से अलग तरह का था, फिर भी 1934 में गांधी के करीबी जमना लाल बजाज डा हेडगेवार के पास यह प्रस्ताव लेकर गए कि संघ का कार्य कांग्रेस के नेतृत्व में चलता रहे।परन्तु डा हेडगेवार ने इसे विनम्रता पूर्वक अस्वीकार कर दिया।एक और अकल्पनीय बात आप देखिये गांधी की हत्या में संघ को लपेटने के बाद एक बार फिर अक्टूबर 1949 में कांग्रेस की कार्यकारिणी द्वारा यह प्रस्ताव पारित किया गया कि संघ के स्वयंसेवको के लिए कांग्रेस के द्वार खुले हैं, संघ के स्वयंसेवको को सीधा न्यौता दिया गया कांग्रेस ज्वाइन करने का।क्या यह सम्भव था कि गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार लोगो के लिए कांग्रेस अपने दरवाजे खोलती।दरअसल दोनों जांच आयोगों के संघ की भूमिका को नकारने के बाद कांग्रेस के लोगो का अंतर्मन यह स्वीकार कर चुका होगा कि संघ का गांधी की हत्या के षड्यंत्र से कुछ लेना देना नही है, परन्तु नेहरू के कारण वह खुलकर इसे स्वीकार नही कर पा रहे हो इसलिए इस प्रस्ताव के माध्यम से कांग्रेस ने यह भावना व्यक्त की।साथ ही यह भी सम्भव है कि शायद हिन्दू महासभा की तरह कांग्रेस भी संघ की ऊर्जावान तेजस्वी युवाशक्ति का राजनितिक उपयोग अपने पक्ष में करना चाहती हो और उसे यह उचित अवसर प्रतीत हुआ हो। 

1962 के चीन युद्ध के बाद नेहरू को संघ के विषय में अपनी भूल का एहसास हुआ और उन्होंने गणतन्त्र दिवस की परेड में संघ के स्वयंसेवको को संचलन का न्यौता देकर भूल सुधार किया।संघ की कार्यपद्धति से प्रभावित एक और गांधी (संजय)  ने संघ की तर्ज पर कांग्रेस की सरपरस्ती में दुसरे संघ के निर्माण की घोषणा की थी यद्यपि वह इसे क्रियान्वित करने से पहले ही चल बसे। अभी भी राहुल गांधी अपनी बैठको में कार्यकर्ताओ को संघ से कुछ सीखने की नसीहत देते पाये गए हैं।अभिप्राय यह है कि कांग्रेस कभी भी संघ के बारे में अपने विचार स्थिर नही कर पायी परंतु राजनैतिक कारणों से संघ की अन्धविरोधी अवश्य बनी रही।

इस पूरी चर्चा से यह तो स्पष्ट है कि गांधी की हत्या से संघ को जोड़ना निहित स्वार्थो, राजनैतिक लाभ, वैचारिक प्रतिद्वंद्विता तथा अपनी दुर्बलता से उपजी कुंठा का परिणाम था जो आज तक बदस्तूर जारी है। राहुल गांधी अब उसी फांस में फंसने जा रहे है जिससे उनके पूर्वज कभी निकल नही पाये।इसका सीधा लाभ यह भी है कि दशको से चले आ रहे प्रोपेगेंडे को दोबारा से छिन्न भिन्न करने का तथा पुरानी अवधारणा को ध्वस्त कर नई अवधारणा गढ़ने का अवसर अकस्मात ही मिल गया है।जिस घटना के लिए पूना के आस पास कुछ व्यक्ति जिम्मेदार थे उसके लिए अखिल भारतीय स्तर के संगठन को जिम्मेदार ठहराने के लिए राहुल गांधी को ऐसे तर्क ढूँढने होंगे जो उनके तरकश में हैं ही नहीँ।साथ साथ अपने नेताओ के तमाम दुष्कृत्यों को कांग्रेसी दुष्कृत्य मानने की मानसिकता बनानी पड़ेगी जो कि खासा घाटे का सौदा होगी। मामला दिलचस्प है।संघ की जो क्षति होनी थी वह 1948 में हो चुकी, संघ अब उससे बहुत आगे निकल चुका।गांधी की ह्त्या के नाम पर न तब संघ को दबाया जा सका है न अब दबाया जा सकेगा।हां जो नए सवाल खड़े होने वाले हैं उनसे राजनितिक भँवर में फंसी कांग्रेस जरूर भरभराने की स्थिति में है, जिससे उसकी रही सही साख भी दांव पर लग गयी है।

सोमवार, 12 सितंबर 2016

जतीन्द्रनाथ दास


जतीन्द्रनाथ दास का जन्म 27 अक्तूबर, 1904 को कोलकाता में हुआ था। 16 वर्ष की अवस्था में ही वे असहयोग आंदोलन में दो बार जेल गये थे। इसके बाद वे क्रांतिकारी दल में शामिल हो गये। जतीन्द्रनाथ सान्याल से उन्होंने बम बनाना सीखा। 1928 में वे फिर पकड़ लियेे गये। वहां जेल अधिकारी द्वारा दुर्व्यवहार करने पर ये उससे भिड़ गये। इस पर इन्हें बहुत निर्ममता से पीटा गया। इसके विरोध में इन्होंने 23 दिन तक भूख हड़ताल की तथा जेल अधिकारी द्वारा क्षमा मांगने पर ही अन्न ग्रहण किया।

क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न रहने के कारण उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। हर बार वे बंदियों के अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहे। लाहौर षड्यंत्र केस में वे छठी बार गिरफ्तार हुए। उन दिनों जेल में क्रांतिवीरों से बहुत दुर्व्यवहार होता था। उन्हें न खाना ठीक मिलता था और न वस्त्र, जबकि सत्याग्रहियों को राजनीतिक बंदी मान कर सब सुविधा दी जाती थीं। जेल अधिकारी क्रांतिकारियों से प्रायः मारपीट भी करते थे। इसके विरोध में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त आदि ने लाहौर के केन्द्रीय कारागार में भूख हड़ताल प्रारम्भ कर दी।

जब इन अनशनकारियों की हालत खराब होने लगी, तो इनके समर्थन में बाकी क्रांतिकारियों ने भी अनशन प्रारम्भ करने का विचार किया। अनेक लोग इसके लिए उतावले हो रहे थेे। जब सबने जतीन्द्र की प्रतिक्रिया जाननी चाही, तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि मैं अनशन तभी करूंगा, जब मुझे कोई इससे पीछे हटने को नहीं कहेगा। मेरे अनशन का अर्थ है ‘विजय या मृत्यु।’

जतीन्द्रनाथ का मत था कि संघर्ष करते हुए गोली खाकर या फांसी पर झूलकर मरना आसान है। क्योंकि उसमें अधिक समय नहीं लगता; पर अनशन में व्यक्ति क्रमशः मृत्यु की ओर आगे बढ़ता है। ऐसे में यदि उसका मनोबल कम हो, तो संगठन के व्यापक उद्देश्य को हानि होती है।

जतीन्द्रनाथ का मनोबल बहुत ऊंचा था। अतः उनके नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने 13 जुलाई, 1929 से अनशन प्रारम्भ कर दिया। जेल में यों तो बहुत खराब खाना दिया जाता था; पर अब जेल अधिकारी स्वादिष्ट भोजन, मिष्ठान और केसरिया दूध आदि उनके कमरों में रखने लगे। सब क्रांतिकारी यह सामग्री फेंक देते थे; पर यतीन्द्र कमरे में रखे होने पर भी इन्हें छूते तक नहीं थे।

अब जेल अधिकारियों ने जबरन अनशन तुड़वाने का निश्चय किया। वे बंदियों के हाथ पैर पकड़कर, नाक में रबड़ की नली घुसेड़कर पेट में दूध डाल देते थे। जब जतीन्द्र के साथ ऐसा किया गया, तो वे जोर से खांसने लगे। इससे दूध उनके फेफड़ों में चला गया और उनकी हालत बहुत बिगड़ गयी।

यह देखकर जेल प्रशासन ने उनके छोटे भाई किरणचंद्र दास को उनकी देखरेख के लिए बुला लिया; पर यतीन्द्रनाथ दास ने उसे इसी शर्त पर अपने साथ रहने की अनुमति दी कि वह उनके संकल्प में बाधक नहीं बनेगा। इतना ही नहीं, यदि उनकी बेहोशी की अवस्था में जेल अधिकारी कोई खाद्य सामग्री, दवा या इंजैक्शन देना चाहें, तो वह ऐसा नहीं होने देगा।

13 सितम्बर, 1929 को अनशन का 63वां दिन था। आज जतीन्द्र के चेहरे पर विशेष प्रकार की मुस्कान थी। उन्होंने सब मित्रों को अपने पास बुलाया। छोटे भाई किरण ने उनका मस्तक अपनी गोद में ले लिया। विजय सिन्हा ने जतीन्द्र का प्रिय गीत ‘एकला चलो रे’ और फिर ‘वन्दे मातरम्’ गाया। गीत पूरा होते ही संकल्प के धनी जतीन्द्रनाथ दास का सिर एक ओर लुढ़क गया।

रविवार, 11 सितंबर 2016

सुब्रह्मण्य भारती


भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम से देश का हर क्षेत्र और हर वर्ग अनुप्राणित था। ऐसे में कवि भला कैसे पीछे रह सकते थे। तमिलनाडु में इसका नेतृत्व कर रहे थे सुब्रह्मण्य भारती. यद्यपि उन्हें अनेक संकटों का सामना करना पड़ा, पर उनका स्वर मन्द नहीं हुआ. सुब्रह्मण्य भारती का जन्म एट्टयपुरम् (तमिलनाडु) में 11 दिसम्बर, 1882 को हुआ था. पाँच वर्ष की अवस्था में ही वे मातृविहीन हो गये. इस दुख को भारती ने अपने काव्य में ढाल लिया. इससे उनकी ख्याति चारों ओर फैल गयी. स्थानीय सामन्त के दरबार में उनका सम्मान हुआ और उन्हें ‘भारती’ की उपाधि दी गयी. 11 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह कर दिया गया. अगले साल पिताजी भी चल बसे. अब भारती पढ़ने के उद्देश्य से अपनी बुआ के पास काशी आ गये.

चार साल के काशीवास में भारती ने संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी भाषा का अध्ययन किया. अंग्रेजी कवि शैली से वे विशेष प्रभावित थे. उन्होंने एट्टयपुरम् में ‘शेलियन गिल्ड’ नामक संस्था भी बनाई. तथा ‘शेलीदासन्’ उपनाम से अनेक रचनाएँ लिखीं. काशी में ही उन्हें राष्ट्रीय चेतना की शिक्षा मिली, जो आगे चलकर उनके काव्य का मुख्य स्वर बन गयी. काशी में उनका सम्पर्क भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा निर्मित ‘हरिश्चन्द्र मण्डल’ से रहा.

काशी में उन्होंने कुछ समय एक विद्यालय में अध्यापन किया. वहाँ उनका सम्पर्क डॉ. एनी बेसेण्ट से हुआ, पर वे उनके विचारों से पूर्णतः सहमत नहीं थे. एक बार उन्होंने अपने आवास शैव मठ में महापण्डित सीताराम शास्त्री की अध्यक्षता में सरस्वती पूजा का आयोजन किया. भारती ने अपने भाषण में नारी शिक्षा, समाज सुधार, विदेशी का बहिष्कार और स्वभाषा की उन्नति पर जोर दिया. अध्यक्ष महोदय ने इसका प्रतिवाद किया. फलतः बहस होने लगी और अन्ततः सभा विसर्जित करनी पड़ी. भारती का प्रिय गान बंकिम चन्द्र का वन्दे मातरम् था. वर्ष 1905 में काशी में हुए कांग्रेस अधिवेशन में सुप्रसिद्ध गायिका सरला देवी ने यह गीत गाया. भारती भी उस अधिवेशन में थे. बस तभी से यह गान उनका जीवन प्राण बन गया. मद्रास लौटकर भारती ने उस गीत का उसी लय में तमिल में पद्यानुवाद किया, जो आगे चलकर तमिलनाडु के घर-घर में गूँज उठा.

सुब्रह्मण्य भारती ने जहाँ गद्य और पद्य की लगभग 400 रचनाओं का सृजन किया, वहाँ उन्होंने स्वदेश मित्रम, चक्रवर्तिनी, इण्डिया, सूर्योदयम, कर्मयोगी आदि तमिल पत्रों तथा बाल भारत नामक अंग्रेजी साप्ताहिक के सम्पादन में भी सहयोग किया. अंग्रेज शासन के विरुद्ध स्वराज्य सभा के आयोजन के लिए भारती को जेल जाना पड़ा. कोलकाता जाकर उन्होंने बम बनाना, पिस्तौल चलाना और गुरिल्ला युद्ध का भी प्रशिक्षण लिया. वे गरम दल के नेता लोकमान्य तिलक के सम्पर्क में भी रहे. भारती ने नानासाहब पेशवा को मद्रास में छिपाकर रखा. शासन की नजर से बचने के लिए वे पाण्डिचेरी आ गये और वहाँ से स्वराज्य साधना करते रहे. निर्धन छात्रों को वे अपनी आय से सहयोग करते थे. वर्ष 1917 में वे गान्धी जी के सम्पर्क में आये और वर्ष 1920 के असहयोग आन्दोलन में भी सहभागी हुए. स्वराज्य, स्वभाषा तथा स्वदेशी के प्रबल समर्थक इस राष्ट्रप्रेमी कवि का 12 सितम्बर, 1921 को मद्रास में देहान्त हुआ.

भूदान यज्ञ के प्रणेता: विनोबा भावे

विनोबा भावे

स्वतंत्रता के बाद निर्धन भूमिहीनों को भूमि दिलाने के लिए हुए ‘भूदान यज्ञ’ के प्रणेता विनायक नरहरि (विनोबा) भावे का जन्म 11 सितम्बर, 1895 को महाराष्ट्र के कोलाबा जिले के गागोदा ग्राम में हुआ था। इनके पिता श्री नरहरि पन्त तथा माता श्रीमती रघुमाई थीं। विनायक बहुत ही विलक्षण बालक था। वह एक बार जो पढ़ लेता, उसे सदा के लिए कण्ठस्थ हो जाता। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा बड़ौदा में हुई। वहाँ के पुस्तकालय में उन्होंने धर्म, दर्शन और साहित्य की हजारों पुस्तकें पढ़ीं।

विनोबा पर उनकी माँ तथा गांधी जी की शिक्षाओं का बहुत प्रभाव पड़ा। अपनी माँ के आग्रह पर उन्होंने ‘श्रीमद भगवद्गीता’ का ‘गीताई’ नामक मराठी काव्यानुुवाद किया। काशी विश्वविद्यालय में संस्कृत का अध्ययन करते समय उन्होंने गांधी जी के विचार समाचार पत्रों में पढ़े। उससे प्रभावित होकर उन्होंने अपना जीवन उन्हें समर्पित कर दिया और गांधी जी के निर्देश पर साबरमती आश्रम के वृद्धाश्रम की देखरेख करने लगे। उनके मन में प्रारम्भ से ही नौकरी करने की इच्छा नहीं थी। इसलिए काशी जाने से पूर्व ही उन्होंने अपने सब शैक्षिक प्रमाण पत्र जला दिये। 1923 में वे झण्डा सत्याग्रह के दौरान नागपुर में गिरफ्तार हुए। उन्हें एक वर्ष की सजा दी गयी।

1940 में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ प्रारम्भ होने पर गान्धी जी ने उन्हें प्रथम सत्याग्रही के रूप में चुना। इसके बाद वे तीन साल तक वर्धा जेल में रहे। वहाँ गीता पर दिये गये उनके प्रवचन बहुत विख्यात हैं। बाद में वे पुस्तक रूप में प्रकाशित भी हुए। गीता की इतनी सरल एवं सुबोध व्याख्या अन्यत्र दुर्लभ है। 1932 में उन्होंने वर्धा के पास पवनार नदी के तट पर एक आश्रम बनाया। जेल से लौटकर वे वहीं रहने लगे। विभाजन के बाद हुए दंगों की आग को शान्त करने के लिए वे देश के अनेक स्थानों पर गये।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद 1948 में विनोबा ने ‘सर्वोदय समाज’ की स्थापना की। इसके बाद 1951 में उन्होंने भूदान यज्ञ का बीड़ा उठाया। इसके अन्तर्गत वे देश भर में घूमे। वे जमीदारों से भूमि दान करने की अपील करते थे। दान में मिली भूमि को वे उसी गाँव के भूमिहीनों को बाँट देते थे। इस प्रकार उन्होंने 70 लाख हेक्टेयर भूमि निर्धनों में बाँटकर उन्हें किसान का दर्जा दिलाया। 19 मई, 1960 को विनोबा भावे ने चम्बल के बीहड़ों में आतंक का पर्याय बने अनेक डाकुओं का आत्मसमर्पण कराया। जयप्रकाश नारायण ने इन कार्यों में उनका पूरा साथ दिया।

जब उनका शरीर कुछ शिथिल हो गया, तो वे वर्धा में ही रहने लगे। वहीं रहकर वे गांधी जी के आचार, विचार और व्यवहार के अनुसार काम करते रहे। गोहत्या बन्दी के लिए उन्होंने अनेक प्रयास किये; पर शासन द्वारा कोई ध्यान ने देने पर उनके मन को भारी चोट लगी। 1975 में इन्दिरा गांधी द्वारा लगाये गये आपातकाल का समर्थन करते हुए उसे उन्होंने ‘अनुशासन पर्व’ कहा। इस कारण उन्हें पूरे देश में आलोचना सहनी पड़ी।

विनोबा जी ने जेल यात्रा के दौरान अनेक भाषाएँ सीखीं। उनके जीवन में सादगी तथा परोपकार की भावना कूट-कूटकर भरी थी। अल्पाहारी विनोबा वसुधैव कुटुम्बकम् के प्रबल समर्थक थे। सन्तुलित आहार एवं नियमित दिनचर्या के कारण वे आजीवन सक्रिय रहे। जब उन्हें लगा कि अब यह शरीर कार्ययोग्य नहीं रहा, तो उन्होंने ‘सन्थारा व्रत’ लेकर अन्न, जल और दवा त्याग दी।
15 नवम्बर, 1982 को सन्त विनोबा का देहान्त हुआ। अपने जीवनकाल में वे ‘भारत रत्न’ का सम्मान ठुकरा चुके थे। अतः 1983 में शासन ने उन्हें मरणोपरान्त ‘भारत रत्न’ से विभूषित किया।

सोमवार, 5 सितंबर 2016

पर्यावरण संरक्षण हेतु अनुपम बलिदान

प्रतिवर्ष पांच जून को हम ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ मनाते हैं; लेकिन यह दिन हमारे मन में सच्ची प्रेरणा नहीं जगा पाता। क्योंकि इसके साथ इतिहास की कोई प्रेरक घटना नहीं जुड़ी। इस दिन कुछ जुलूस, धरने, प्रदर्शन, भाषण तो होते हैं; पर उससे सामान्य लोगों के मन पर कोई असर नहीं होता। दूसरी ओर भारत के इतिहास में पाँच सितम्बर, 1730 को एक ऐसी घटना घटी है, जिसकी विश्व में कोई तुलना नहीं की जा सकती।

राजस्थान तथा भारत के अनेक अन्य क्षेत्रों में बिश्नोई समुदाय के लोग रहते हैं। उनके गुरु जम्भेश्वर जी ने अपने अनुयायियों को हरे पेड़ न काटने, पशु-पक्षियों को न मारने तथा जल गन्दा न करने जैसे 29 नियम दिये थे। इन 20 + 9 नियमों के कारण उनके शिष्य बिश्नोई कहलाते हैं। 

पर्यावरण प्रेमी होने के कारण इनके गाँवों में पशु-पक्षी निर्भयता से विचरण करते हैं। 1730 में इन पर्यावरण-प्रेमियों के सम्मुख परीक्षा की वह महत्वपूर्ण घड़ी आयी थी, जिसमें उत्तीर्ण होकर इन्होंने विश्व-इतिहास में स्वयं को अमर कर लिया।

1730 ई. में जोधपुर नरेश अजय सिंह को अपने महल में निर्माण कार्य के लिए चूना और उसे पकाने के लिए ईंधन की आवश्यकता पड़ी। उनके आदेश पर सैनिकों के साथ सैकड़ों लकड़हारे निकटवर्ती गाँव खेजड़ली में शमी वृक्षों को काटने चल दिये। 

जैसे ही यह समाचार उस क्षेत्र में रहने वाले बिश्नोइयों को मिला, वे इसका विरोध करने लगेे। जब सैनिक नहीं माने, तो एक साहसी महिला ‘इमरती देवी’ (अम्रता देवी ) के नेतृत्व में सैकड़ों ग्रामवासी; जिनमें बच्चे और बड़े, स्त्री और पुरुष सब शामिल थे; पेड़ों से लिपट गये। उन्होंने सैनिकों को बता दिया कि उनकी देह के कटने के बाद ही कोई हरा पेड़ कट पायेगा।

सैनिकों पर भला इन बातों का क्या असर होना था ? वे  राजज्ञा से बँधे थे, तो ग्रामवासी धर्माज्ञा से। अतः वृक्षों के साथ ही ग्रामवासियों के अंग भी कटकर धरती पर गिरने लगे। सबसे पहले वीरांगना ‘इमरती देवी’ पर ही कुल्हाड़ियों के निर्मम प्रहार हुए और वह वृक्ष-रक्षा के लिए प्राण देने वाली विश्व की पहली महिला बन गयी। 

इस बलिदान से उत्साहित ग्रामवासी पूरी ताकत से पेड़ों से चिपक गये। 20वीं शती में गढ़वाल (उत्तराखंड) में गौरा देवी, चण्डीप्रसाद भट्ट तथा सुन्दरलाल बहुगुणा ने वृक्षों के संरक्षण के लिए ‘चिपको आन्दोलन’ चलाया, उसकी प्रेरणास्रोत इमरती देवी ही थीं।

भाद्रपद शुक्ल 10 (5 सितम्बर, 1730) को प्रारम्भ हुआ यह बलिदान-पर्व 27 दिन तक चलता रहा। इस दौरान 363 लोगों ने बलिदान दिया। इनमें इमरती देवी की तीनों पुत्रियों सहित 69 महिलाएँ भी थीं। अन्ततः राजा ने स्वयं आकर क्षमा माँगी और हरे पेड़ों को काटने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। ग्रामवासियों को उससे कोई बैर तो था नहीं, उन्होंने राजा को क्षमा कर दिया।

उस ऐतिहासिक घटना की याद में आज भी वहाँ ‘भाद्रपद शुक्ल 10’ को बड़ा मेला लगता है। राजस्थान शासन ने वन, वन्य जीव तथा पर्यावरण-रक्षा हेतु ‘अमृता देवी बिश्नोई स्मृति पुरस्कार’ तथा केन्द्र शासन ने ‘अमृता देवी बिश्नोई पुरस्कार’ देना प्रारम्भ किया है। यह बलिदान विश्व इतिहास की अनुपम घटना है। इसलिए यही तिथि (भाद्रपद शुक्ल 10 या पाँच सितम्बर) वास्तविक ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ होने योग्य है।

रविवार, 4 सितंबर 2016

दादा भाई नौरोजी


दादा भाई नौरोजी का जन्म चार सितम्बर, 1825 को मुम्बई के एक पारसी परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री नौरोजी पालनजी दोर्दी तथा माता श्रीमती मानिकबाई थीं। जब वे छोटे ही थे, तो उनके पिता का देहान्त हो गया; पर उनकी माता ने बड़े धैर्य से उनकी देखभाल की। यद्यपि वे शिक्षित नहीं थीं; पर उनके दिये गये संस्कारों ने दादा भाई के जीवन पर अमिट छाप छोड़ी।

पिता के देहान्त के बाद घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ने से इन्हें
पढ़ने में कठिनाई आ गयी। ऐसे में उनके अध्यापक श्री मेहता ने सहारा दिया। वे सम्पन्न छात्रों की पुस्तकें लाकर इन्हें देते थे। निर्धन छात्रों की इस कठिनाई को समझने के कारण आगे चलकर दादाभाई निःशुल्क शिक्षा के बड़े समर्थक बने।

11 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह हो गया। इनकी योग्यता देखकर मुम्बई उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सर एर्सकिनपेरी ने इन्हें इंग्लैण्ड जाकर बैरिस्टर बनने को प्रेरित किया; पर कुछ समय पूर्व ही बैरिस्टर बनने के लिए इंग्लैण्ड गये दो पारसी युवकों की मजबूरी का लाभ उठाकर उन्हें ईसाई बना लिया गया था। इस कारण इनके परिवारजनों ने इन्हें वहाँ नहीं भेजा।

आगे चलकर जब ये व्यापार के लिए इंग्लैण्ड गये, तो इन्होंने वहाँ भारतीय छात्रों के भोजन और आवास का उचित प्रबन्ध किया, जिससे किसी को मजबूरी में ईसाई न बनना पड़े। गान्धी जी की इंग्लैण्ड में शिक्षा पूर्ण कराने में दादाभाई का बहुत योगदान था। दादा भाई व्यापार में ईमानदारी के पक्षधर थे। इससे उनके अपनी फर्म के साथ मतभेद उत्पन्न हो गये। अतः वे अपनी निजी फर्म बनाकर व्यापार करने लगे।

अमरीकी गृहयुद्ध के दौरान इन्हें व्यापार में बहुत लाभ हुआ; पर गृहयुद्ध समाप्त होते ही एकदम से बहुत घाटा भी हो गया। बैंकों का भारी कर्ज होने पर दादाभाई ने अपने खाते सार्वजनिक निरीक्षण के लिए खोल दिये। यह पारदर्शिता देखकर बैंकों तथा उनके कर्जदाताओं ने कर्ज माफ कर दिया। कुछ ही समय में उनकी प्रतिष्ठा भारत की तरह इंग्लैण्ड में भी सर्वत्र फैल गयी।

दादाभाई का मत था कि अंग्रेजी शासन को समझाकर ही हम अधिकाधिक लाभ उठा सकते हैं। अतः वे समाचार पत्रों में लेख तथा तर्कपूर्ण ज्ञापनों से शासकों का ध्यान भारतीय समस्याओं की ओर दिलाते रहते थे। जब एक अंग्रेज अधिकारी ए.ओ.ह्यूम ने 27 दिसम्बर, 1885 को मुम्बई में कांग्रेस की स्थापना की, तो दादाभाई ने उसमें बहुत सहयोग दिया। अगले साल कोलकाता में हुए दूसरे अधिवेशन में वे कांग्रेस के अध्यक्ष बनाये गये।

दादाभाई नौरोजी की इंग्लैण्ड में लोकप्रियता को देखकर उन्हें कुछ लोगों ने इंग्लैण्ड की संसद के लिए चुनाव लड़ने को प्रेरित किया। शुभचिन्तकों की बात मानकर वे पहली बार चुनाव हारे; पर दूसरे प्रयास में विजयी हुए। इस प्रकार वे भारत तथा इंग्लैण्ड के बीच सेतु बन गये। उन्होंने ब्रिटिश संसद में भारत से सम्बन्धित अनेक विषय उठाये तथा शासन की गलत नीतियों को बदलवाया। ब्रिटिश शासन के अन्य उपनिवेशों में रहने वाले भारतीयों के अधिकारों के लिए भी उन्होंने संघर्ष किया। उन्हें रेल की उच्च श्रेणी में यात्रा तथा अंग्रेजों की तरह अच्छे मकानों में रहने की सुविधा दिलायी।

91 वर्ष के सक्रिय जीवन के बाद 20 अगस्त, 1917 को दादाभाई नौरोजी ने आँखें मूँद लीं। पारसी परम्पराओं के अनुसार उनके पार्थिव शरीर को ‘शान्ति मीनार’ पर विसर्जित कर दिया गया।

शनिवार, 3 सितंबर 2016

ईसाई षड्यन्त्रों के अध्येता कृष्णराव सप्रे

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजना से कई प्रचारक शाखा कार्य के अतिरिक्त समाज जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी काम करते हैं। ऐसा ही एक क्षेत्र वनवासियों का भी है। ईसाई मिशनरियां उन्हें आदिवासी कहकर शेष हिन्दू समाज से अलग कर देती हैं। उनके षड्यन्त्रों से कई क्षेत्रों में अलगाववादी आंदोलन भी खड़े हुए हैं। शासन का ध्यान स्वाधीनता प्राप्ति के बाद इस ओर गया। 

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल को एक बार भ्रमण के दौरान जब वनवासी ईसाइयों ने काले झंडे दिखाये, तो उन्होंने मिशनरियों के षड्यन्त्रों की गहन जानकारी करने के लिए न्यायमूर्ति श्री भवानीशंकर नियोगी के नेतृत्व में ‘नियोगी आयोग’ का गठन किया। संघ ने भी उनका सहयोग करने के लिए कुछ कार्यकर्ता लगाये। इनमें से ही एक थे श्री कृष्णराव दामोदर सप्रे।

कृष्णराव सप्रे का जन्म म.प्र. की संस्कारधानी जबलपुर में चार सितम्बर, 1931 को हुआ था। उनका परिवार मूलतः महाराष्ट्र का निवासी था। छात्र जीवन से ही किसी भी विषय में गहन अध्ययन उनके स्वभाव में था। संघप्रेमी परिवार होने के कारण पिताजी संघ में, तो माताजी ‘राष्ट्र सेविका समिति’ में सक्रिय रहती थीं। इस कारण कृष्णराव और शेष तीनों भाई भी स्वयंसेवक बने। उनमें से एक डा. प्रसन्न दामोदर सप्रे प्रचारक के नाते आज भी ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ में सक्रिय हैं, जबकि डा. सदानंद सप्रे प्राध्यापक रहते हुए तथा अब अवकाश प्राप्ति के बाद पूरी तरह संघ के ही काम में लगे हैं।

जिन दिनों कृष्णराव ने शाखा जाना प्रारम्भ किया, उन दिनों युवाओं में कम्युनिस्ट विचार बहुत प्रभावी था। उसे पराजित करने के लिए कृष्णराव और उनके मित्रों ने गहन अध्ययन किया। इस प्रकार श्रेष्ठ विचारकों की एक टोली बन गयी। पांचवें सरसंघचालक श्री सुदर्शन जी भी उसके एक सदस्य थे।

अपनी शिक्षा पूर्ण कर कृष्णराव प्रचारक बन गये। उन्हें शाखा कार्य के लिए पहले रायगढ़ और फिर छिंदवाड़ा विभाग का काम दिया गया। इसके बाद ‘नियोगी आयोग’ को सहयोग देने के लिए श्री बालासाहब देशपांडे के साथ उन्हें भी लगाया गया। उनकी अध्ययनशीलता और अथक प्रयास से वनवासियों ने ईसाई मिशनरियों के षड्यन्त्र के विरुद्ध सैकड़ों शपथपत्र भर कर दिये, जिससे ‘नियोगी आयोग’ इस पूरे विषय को समझकर ठीक निष्कर्ष निकाल सका। 

भारत में ईसाई मिशनरियों का सर्वाधिक प्रभाव पूर्वोत्तर भारत में है। इस आयोग के साथ काम करते हुए कृष्णराव को जो अनुभव प्राप्त हुए, उसके आधार पर उन्हें पूर्वोत्तर में काम करने को भेजा गया। वहां के जनजातीय समाज में मिशनरियों द्वारा धर्मान्तरण का खेल बहुत तेजी से खेला जा रहा था। कृष्णराव ने ‘भारतीय जनजातीय सांस्कृतिक मंच’ की स्थापना कर वहां अनेक गतिविधियां प्रारम्भ कीं। इससे हिन्दू समाज की मुख्यधारा से दूर हो चुके लोग फिर पास आने लगे। अतः धर्मान्तरण रुका और परावर्तन प्रारम्भ हुआ। 

जनता और कार्यकर्ताओं को जागरूक करने के लिए इस बारे में उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के संस्थापक श्री बालासाहब देशपांडे के प्रति उनके मन में बहुत श्रद्धा थी। उनके जीवन पर उन्होंने ‘वनयोगी श्री बालासाहब देशपांडे की जीवन झांकी’ नामक पुस्तक भी लिखी। 

वनवासी क्षेत्र में भाषा और भोजन की कठिनाई के साथ ही बीहड़ों में यातायात के साधन भी नहीं है। इसके बाद भी कृष्णराव सदा हंसते हुए काम करते रहे। वृद्धावस्था में शरीर अशक्त होने पर वे जबलपुर ही आ गये। वहां संघ कार्यालय पर कल्याण आश्रम के एक कार्यकर्ता शिवव्रत मोहंती ने पुत्रवत उनकी सेवा की। 27 जनवरी, 1999 को वहां पर ही उनका निधन हुआ। उनकी स्मृति में छिंदवाड़ा में प्रतिवर्ष व्याख्यानमाला का आयोजन किया जाता है।  

(संदर्भ: पांचजन्य/धर्मनारायण जी)

शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

बाल बलिदानी कुमारी मैना

1857 के स्वाधीनता संग्राम में प्रारम्भ में तो भारतीय पक्ष की जीत हुई; पर फिर अंग्रेजों का पलड़ा भारी होने लगा। भारतीय सेनानियों का नेतृत्व नाना साहब पेशवा कर रहे थे। उन्होंने अपने सहयोगियों के आग्रह पर बिठूर का महल छोड़ने का निर्णय कर लिया। उनकी योजना थी कि किसी सुरक्षित स्थान पर जाकर फिर से सेना एकत्र करें और अंग्रेजों ने नये सिरे से मोर्चा लें।

मैना नानासाहब की दत्तक पुत्री थी। वह उस समय केवल 13 वर्ष की थी। नानासाहब बड़े असमंजस में थे कि उसका क्या करें ? नये स्थान पर पहुंचने में न जाने कितने दिन लगें और मार्ग में न जाने कैसी कठिनाइयां आयें। अतः उसे साथ रखना खतरे से खाली नहीं था; पर महल में छोड़ना भी कठिन था। ऐसे में मैना ने स्वयं महल में रुकने की इच्छा प्रकट की।

नानासाहब ने उसे समझाया कि अंग्रेज अपने बन्दियों से बहुत दुष्टता का व्यवहार करते हैं। फिर मैना तो एक कन्या थी। अतः उसके साथ दुराचार भी हो सकता था; पर मैना साहसी लड़की थी। उसने अस्त्र-शस्त्र चलाना भी सीखा था। उसने कहा कि मैं क्रांतिकारी की पुत्री होने के साथ ही एक हिन्दू ललना भी हूं। मुझे अपने शरीर और नारी धर्म की रक्षा करना आता है। अतः नानासाहब ने विवश होकर कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ उसे वहीं छोड़ दिया।

पर कुछ दिन बाद ही अंग्रेज सेनापति हे ने गुप्तचरों से सूचना पाकर महल को घेर लिया और तोपों से गोले दागने लगा। इस पर मैना बाहर आ गयी। सेनापति हे नाना साहब के दरबार में प्रायः आता था। अतः उसकी बेटी मेरी से मैना की अच्छी मित्रता हो गयी थी। मैना ने यह संदर्भ देकर उसे महल गिराने से रोका; पर जनरल आउटरम के आदेश के कारण सेनापति हे विवश था। अतः उसने मैना को गिरफ्तार करने का आदेश दिया।

पर मैना को महल के सब गुप्त रास्ते और तहखानों की जानकारी थी। जैसे ही सैनिक उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़े, वह वहां से गायब हो गयी। सेनापति के आदेश पर फिर से तोपें आग उगलने लगीं और कुछ ही घंटों में वह महल ध्वस्त हो गया। सेनापति ने सोचा कि मैना भी उस महल में दब कर मर गयी होगी। अतः वह वापस अपने निवास पर लौट आया।

पर मैना जीवित थी। रात में वह अपने गुप्त ठिकाने से बाहर आकर यह विचार करने लगी कि उसे अब क्या करना चाहिए ? उसे मालूम नहीं था कि महल ध्वस्त होने के बाद भी कुछ सैनिक वहां तैनात हैं। ऐसे दो सैनिकों ने उसे पकड़ कर जनरल आउटरम के सामने प्रस्तुत कर दिया।

नानासाहब पर एक लाख रु. का पुरस्कार घोषित था। जनरल आउटरम उन्हें पकड़ कर आंदोलन को पूरी तरह कुचलना तथा ब्रिटेन में बैठे शासकों से बड़ा पुरस्कार पाना चाहता था। उसने सोचा कि मैना छोटी सी बच्ची है। अतः पहले उसे प्यार से समझाया गया; पर मैना चुप रही। यह देखकर उसे जिन्दा जला देने की धमकी दी गयी; पर मैना इससे भी विचलित नहीं हुई।

अंततः आउटरम ने उसे पेड़ से बांधकर जलाने का आदेश दे दिया। निर्दयी सैनिकों ने ऐसा ही किया। तीन सितम्बर, 1857 की रात में 13 वर्षीय मैना चुपचाप आग में जल गयी। इस प्रकार उसने देश के लिए बलिदान होने वाले बच्चों की सूची में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवा लिया।