डॉ. रवि प्रभात की कलम से
राहुल गांधी आये दिन अपनी नासमझी के कारण कांग्रेस को मुसीबत में डालते रहते हैं, यह उनके लिए कोई नयी बात नही है, शायद यह उनकी आदत में शुमार हो चुका है।राहुल गांधी की बातों यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें भारत के इतिहास की कोई ख़ास समझ नही है, केवल कुछ सुनी सुनाई बातो को बना परखे तोते की तरह रट कर बोलते रहते हैं।अपनी इसी नासमझी की वजह से राहुल गांधी को आजकल कोर्ट कचहरियों के रास्ते नांपने पड़ रहे हैं।गांधी जी की हत्या के लिए संघ को जिम्मेदार बतलाने के बाद राहुल गांधी पर भारी मुसीबत मंडरा रही है , जिसमे शायद उन्हें जेल भी जाना पड़े।
इसी फजीहत के डर से राहुल गांधी ने अपने बयान से पल्ला झाड़ने की भी कोशिश की और कहा कि मैंने कभी भी संघ को गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार नही ठहराया , मैंने तो इतना कहा था कि संघ के लोगो ने गांधी की ह्त्या की है।इसमें कोई दोराय नही कि गेंद अब वकीलो और कानूनविदों के पाले में है लेकिन यह मामला केवल कानूनी पहलुओ सीमित नही है।राहुल गांधी इसे राजनितिक अवसर के रूप में देख रहे हैं। शायद उनकी मंशा गांधी हत्या के मामले में वर्तमान युवा पीढ़ी को गुमराह करने की भी जो इस पूरे प्रकरण से उतनी परिचित नही है।
मुझे लगता है संघ-विरोधियो के लिए गांधी की हत्या संघ को दबाने और कुचलने का साधन बन गयी थी, जिसका उपकरण के रूप में आज तक उपयोग किया जा रहा है।गांधी की हत्या के बाद दो दो जांच आयोगों ने कभी भी संघ के नेतृत्व को इसमें लिप्त नही पाया, न ही संघ के कार्यकर्ताओ की कोई भूमिका प्रमाणित हुई।तत्कालीन उपप्रधानमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने नेहरू को पत्र लिख कर कहा था "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का इस कार्य से कुछ लेना देना नही है, निस्संदेह संघ को दुसरे कृत्यों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है परंतु इसके लिए नहीँ" ।लेकिन फिर भी कुछ लोग "संघ-शक्ति" को उभरते हुए नही देखना चाहते थे इसलिए हमेशा से यह एकपक्षीय प्रोपेगेंडा चलता रहा है , जिसे सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण जुटाने की जहमत कभी किसी ने उठायी ही नहीँ।
गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार नाथूराम गोडसे कभी भी संघ का जिम्मेदार कार्यकर्ता नही रहा, गोडसे विशुद्ध रूप से हिन्दू महासभा का नेता था , जो खुले आम तत्कालीन संघ नेतृत्व एवं स्वयंसेवको को लानत मलानत भेजता भी भेजा करता था।भागानागर सत्याग्रह के बाद गोडसे संघ को हिन्दुत्वविरोधी कहकर दुष्प्रचार करता था तथा स्वयंसेवको को शाखा में जाने से निरुत्साहित किया करता था।गोडसे की दृष्टी में संघ युवाओ की शक्ति क्षय करने वाला संगठन था।अब अगर गोडसे की संघ के साथ कोई वैचारिक , व्यावहारिक तारतम्यता ही नही थी तो उसके किसी कृत्य के लिए संघ क्योंकर जिम्मेदार होने लगा।
इसी सन्दर्भ में एक बात और समझने की , जिसके घालमेल की वजह से कुछ चीजे समाज में स्पष्ट रूप से नहीँ जा पाती।हमेशा से ही हिन्दू महासभा और संघ दो अलग अलग संगठन रहे हैं, महासभा एक राजनितिक संगठन था तथा संघ अराजनीतिक संगठन।दोनों की कार्यपद्धति में महान अंतर था लेकिन क्योंकि डा हेडगेवार आरम्भ में महासभा के वरिष्ठ नेताओ के सम्पर्क में रहे इसलिए तब संघ और महासभा को एक ही संगठन के तौर पे देखने की गलती कुछ लोग करते थे।महासभा के कुछ नेता भी संघ को अपना सैन्य संगठन बनाना चाहते थे जिसे डा हेडगेवार ने कभी स्वीकार नही किया।
यहां तक कि महासभा समर्थित "वन्देमातरम्" पत्र में 12 लेखो की शृंखला में डा हेडगेवार को हठी ,अभिमानी ,घमण्डी, हिन्दुत्वशक्ति का विभाजक जैसे अपमानित करने वाले शब्दों का भी प्रयोग किया गया तब भी डा हेडगेवार अपने निर्धारित उच्च लक्ष्य की ओर आगे बढ़ते रहे ।कभी भी संघ को महासभा की महत्त्वाकांक्षा की आग में नष्ट नही होने दिया।इसका अभिप्राय यह हुआ कि महासभा के भी किसी कार्य के लिए संघ को उत्तरदायी ठहराना संघ के साथ अन्याय करने जैसा है।
गांधी की हत्या के लिए संघ को जिम्मेदार ठहराने के सन्दर्भ में संघ के शीर्ष नेतृत्व तथा कार्यकर्ताओ का व्यवहार भी परखना चाहिए, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि गांधी की हत्या में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष षड्यंत्र तो छोड़िये संघ का मानसिक या मौन समर्थन भी कदापि नही था।गांधी की हत्या का संदेश मिलते ही तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी सार्वजनिक पत्र लिखकर शोक व्यक्त किया था, वे इसे त्रासदी के रूप में देखते थे। दीनदयाल उपाध्याय जो कि संघ के वरिष्ठ प्रचारक तथा जनसंघ के संस्थापको में रहे उनका मानना था कि गांधी की ह्त्या हिन्दुत्ववादियों का सफाया करने का उत्तम राजनीतिक अवसर था, जिसका लाभ उठाकर 1948 में संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया।संघ एक के अन्य वरिष्ठ प्रचारक तथा भारतीय मजदूर संघ के प्रणेता श्री दत्तोपंत ठेंगडी जी "हिन्दू मानसिकता"पुस्तक में लिखते हैं कि गांधी की हत्या से देश के बाद अगर किसी का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है तो वह संघ है।उस समय संघ का कार्य तेजी से देश भर में बढ़ रहा था परंतु गांधी की ह्त्या में लपेटने और प्रतिबन्ध लगने से संघ कार्य की बड़ी क्षति हुई।उन्होंने गांधी की ह्त्या को किसी भी दृष्टिकोण से उचित नही ठहराया अपितु गोडसे की कड़ी भर्त्सना की।
हम अगर इसका दूसरा पक्ष देखें तो गांधी की मृत्यु से सबसे अधिक लाभ कांग्रेस को ही हुआ।यदि इस प्रकार गांधी की ह्त्या न हुई होती तो कांग्रेस इतने दिनों तक लोकप्रिय नही रही होती।कांग्रेस की रीती निति से खफा होकर गांधी खुद कांग्रेस के विरोध में उतर आते।साथ ही यह भी अन्वेषणा का विषय है कि गांधी की ह्त्या का एक असफल प्रयास होने पर भी नेहरू ने उनकी सुरक्षा का उचित प्रबन्ध क्यों नही किया , क्या इसके लिए नेहरू की जिम्मेदारी नही बनती थी? जैसा कि आजकल हम अन्य सरकारो को जिम्मेदार ठहरातव हैं।दुर्भाग्य से जन विमर्श में इन बातो का सही विश्लेषण होता नही दिखता।
संघ ने कभी भी गांधी की हत्या को उचित नही ठहराया।वर्तमान में संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी के अनुसार " यह सही है कि गांधी जी के साथ संघ के कुछ मुद्दों पर राजनितिक मतभेद थे परंतु इसके साथ साथ गांधी के उठाये सांस्कृतिक मुद्दों पर पूर्ण सहमति भी थी, गांधी के ग्राम स्वराज, स्वदेशी, जातिगत अस्पृश्यता आदि मुद्दों पर संघ आरम्भ से सक्रिय रहा और उन्हें समाज में क्रियान्वित करके दिखाया"। संघ की गांधी के प्रति भावना इस तथ्य से भी व्यक्त होती है संघ के प्रतिदिन प्रातः स्मरण किये जाने वाले " एकात्मता स्तोत्र" में अन्य महापुरुषों के साथ साथ गांधी का नाम भी श्रद्धापूर्वक स्मरण किया जाता है।
संघ का व्यवहार कभी भी प्रतिक्रयात्मक नही रहा , संघ अहिंसा को सही अर्थ में अपनाने वाला संगठन है।संघ ने भी वैचारिक भिन्नताओ के आधार पर किसी के लिए कोई प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष साजिश नही रची।अगर संघ की रीती पद्धति ऐसी होती तो ऐसे षडयंत्रो में गांधी की अपेक्षा जिन्नाह या बाकी लोगो का नाम पहले आना चाहिए था।लेकिन तब भी संघ को हिंदुत्ववादि होने का खामियाजा भुगतना पड़ा।नेहरू को हिन्दू शब्द से घृणा थी।काका साहेब गाडगिल लिखते हैं कि गांधी की हत्या के बाद 31 जनवरी और एक फरवरी को दिल्ली में राज्यपालों की बैठक में मैं भी उपस्थित था।इस बैठक में हिन्दू महासभा और संघ के बारे में कठोर निति अपनाने पर विचार व्यक्त किये जा रहे थे।जबकि कई लोगो का मानना था कि केवल हत्यारे और उसके सहयोगियों के खिलाफ ही कठोर नीति अपनानी चाहिए।सावरकर को भी नेहरू के आग्रह पर ही इस मामले में अभियुक्त के तौर पर समेटा गया था।
अनेक तथ्यों का विश्लेषण करने पर कांग्रेस का संघ के प्रति विचार व्यवहार हमेशा विरोधाभास भरा रहा है।यह बात सच है कि कांग्रेस का दृष्टिकोण संघ के आरम्भ से अलग तरह का था, फिर भी 1934 में गांधी के करीबी जमना लाल बजाज डा हेडगेवार के पास यह प्रस्ताव लेकर गए कि संघ का कार्य कांग्रेस के नेतृत्व में चलता रहे।परन्तु डा हेडगेवार ने इसे विनम्रता पूर्वक अस्वीकार कर दिया।एक और अकल्पनीय बात आप देखिये गांधी की हत्या में संघ को लपेटने के बाद एक बार फिर अक्टूबर 1949 में कांग्रेस की कार्यकारिणी द्वारा यह प्रस्ताव पारित किया गया कि संघ के स्वयंसेवको के लिए कांग्रेस के द्वार खुले हैं, संघ के स्वयंसेवको को सीधा न्यौता दिया गया कांग्रेस ज्वाइन करने का।क्या यह सम्भव था कि गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार लोगो के लिए कांग्रेस अपने दरवाजे खोलती।दरअसल दोनों जांच आयोगों के संघ की भूमिका को नकारने के बाद कांग्रेस के लोगो का अंतर्मन यह स्वीकार कर चुका होगा कि संघ का गांधी की हत्या के षड्यंत्र से कुछ लेना देना नही है, परन्तु नेहरू के कारण वह खुलकर इसे स्वीकार नही कर पा रहे हो इसलिए इस प्रस्ताव के माध्यम से कांग्रेस ने यह भावना व्यक्त की।साथ ही यह भी सम्भव है कि शायद हिन्दू महासभा की तरह कांग्रेस भी संघ की ऊर्जावान तेजस्वी युवाशक्ति का राजनितिक उपयोग अपने पक्ष में करना चाहती हो और उसे यह उचित अवसर प्रतीत हुआ हो।
1962 के चीन युद्ध के बाद नेहरू को संघ के विषय में अपनी भूल का एहसास हुआ और उन्होंने गणतन्त्र दिवस की परेड में संघ के स्वयंसेवको को संचलन का न्यौता देकर भूल सुधार किया।संघ की कार्यपद्धति से प्रभावित एक और गांधी (संजय) ने संघ की तर्ज पर कांग्रेस की सरपरस्ती में दुसरे संघ के निर्माण की घोषणा की थी यद्यपि वह इसे क्रियान्वित करने से पहले ही चल बसे। अभी भी राहुल गांधी अपनी बैठको में कार्यकर्ताओ को संघ से कुछ सीखने की नसीहत देते पाये गए हैं।अभिप्राय यह है कि कांग्रेस कभी भी संघ के बारे में अपने विचार स्थिर नही कर पायी परंतु राजनैतिक कारणों से संघ की अन्धविरोधी अवश्य बनी रही।
इस पूरी चर्चा से यह तो स्पष्ट है कि गांधी की हत्या से संघ को जोड़ना निहित स्वार्थो, राजनैतिक लाभ, वैचारिक प्रतिद्वंद्विता तथा अपनी दुर्बलता से उपजी कुंठा का परिणाम था जो आज तक बदस्तूर जारी है। राहुल गांधी अब उसी फांस में फंसने जा रहे है जिससे उनके पूर्वज कभी निकल नही पाये।इसका सीधा लाभ यह भी है कि दशको से चले आ रहे प्रोपेगेंडे को दोबारा से छिन्न भिन्न करने का तथा पुरानी अवधारणा को ध्वस्त कर नई अवधारणा गढ़ने का अवसर अकस्मात ही मिल गया है।जिस घटना के लिए पूना के आस पास कुछ व्यक्ति जिम्मेदार थे उसके लिए अखिल भारतीय स्तर के संगठन को जिम्मेदार ठहराने के लिए राहुल गांधी को ऐसे तर्क ढूँढने होंगे जो उनके तरकश में हैं ही नहीँ।साथ साथ अपने नेताओ के तमाम दुष्कृत्यों को कांग्रेसी दुष्कृत्य मानने की मानसिकता बनानी पड़ेगी जो कि खासा घाटे का सौदा होगी। मामला दिलचस्प है।संघ की जो क्षति होनी थी वह 1948 में हो चुकी, संघ अब उससे बहुत आगे निकल चुका।गांधी की ह्त्या के नाम पर न तब संघ को दबाया जा सका है न अब दबाया जा सकेगा।हां जो नए सवाल खड़े होने वाले हैं उनसे राजनितिक भँवर में फंसी कांग्रेस जरूर भरभराने की स्थिति में है, जिससे उसकी रही सही साख भी दांव पर लग गयी है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें