मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

करीना का अपने बेटे का नाम तैमूर रखना और उसका समर्थन भारत की धरती पर सुन कर आज फिर जख्म हरे हो गए

तैमूर लंग दूसरा चंगेज़ ख़ाँ बनना चाहता था। वह चंगेज़ का वंशज होने का दावा करता था, लेकिन असल में वह तुर्क था। वह लंगड़ा था, इसलिए 'तैमूर लंग' (लंग = लंगड़ा) कहलाता था। वह अपने बाप के बाद सन 1369 ई. में समरकंद का शासक बना। इसके बाद ही उसने अपनी विजय और क्रूरता की यात्रा शुरू की।

वह बहुत बड़ा सिपहसलार था, लेकिन पूरा वहशी भी था। मध्य एशिया के मंगोल लोग इस बीच में मुसलमान हो चुके थे और तैमूर खुद भी मुसलमान था। जहाँ-जहाँ वह पहुँचा, उसने तबाही और पूरी मुसीबत फैला दी। नर-मुंडों के बड़े-बड़े ढेर लगवाने में उसे ख़ास मजा आता था। पूर्व में दिल्ली से लगाकर पश्चिम में एशिया-कोचक तक उसने लाखों आदमी क़त्ल कर डाले और उनके कटे सिरों को स्तूपों की शक्ल में जमवाया।

1399 ई. में तैमूर का भारत पर भयानक आक्रमण हुआ। अपनी जीवनी 'तुजुके तैमुरी' में वह कुरान की इस आयत से ही प्रारंभ करता है 'ऐ पैगम्बर काफिरों और विश्वास न लाने वालों से युद्ध करो और उन पर सखती बरतो।' वह आगे भारत पर अपने आक्रमण का कारण बताते हुए लिखता है-

हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने का मेरा ध्येय काफिर हिन्दुओं के विरुद्ध धार्मिक युद्ध करना है (जिससे) इस्लाम की सेना को भी हिन्दुओं की दौलत और मूल्यवान वस्तुएँ मिल जायें।

काश्मीर की सीमा पर कटोर नामी दुर्ग पर आक्रमण हुआ। उसने तमाम पुरुषों को कत्ल और स्त्रियों और बच्चों को कैद करने का आदेश दिया। फिर उन हठी काफिरों के सिरों के मीनार खड़े करने के आदेश दिये। फिर भटनेर के दुर्ग पर घेरा डाला गया। वहाँ के राजपूतों ने कुछ युद्ध के बाद हार मान ली और उन्हें क्षमादान दे दिया गया। किन्तु उनके असवाधान होते ही उन पर आक्रमण कर दिया गया।

तैमूर अपनी जीवनी में लिखता है कि 'थोड़े ही समय में दुर्ग के तमाम लोग तलवार के घाट उतार दिये गये। घंटे भर में १०,००० (दस हजार) लोगों के सिर काटे गये। इस्लाम की तलवार ने काफिरों के रक्त में स्नान किया। उनके सरोसामान, खजाने और अनाज को भी, जो वर्षों से दुर्ग में इकट्‌ठा किया गया था, मेरे सिपाहियों ने लूट लिया। मकानों में आग लगा कर राख कर दिया। इमारतों और दुर्ग को भूमिसात कर दिया गया।

दूसरा नगर सरसुती था जिस पर आक्रमण हुआ। 'सभी काफिर हिन्दू कत्ल कर दिये गये। उनके स्त्री और बच्चे और संपत्ति हमारी हो गई। तैमूर ने जब जाटों के प्रदेश में प्रवेश किया। उसने अपनी सेना को आदेश दिया कि 'जो भी मिल जाये, कत्ल कर दिया जाये।' और फिर सेना के सामने जो भी ग्राम या नगर आया, उसे लूटा गया। पुरुषों को कत्ल कर दिया गया और कुछ लोगों, स्त्रियों और बच्चों को बंदी बना लिया गया।'

दिल्ली के पास लोनी हिन्दू नगर था। किन्तु कुछ मुसलमान भी बंदियों में थे। तैमूर ने आदेश दिया कि मुसलमानों को छोड़कर शेष सभी हिन्दू बंदी इस्लाम की तलवार के घाट उतार दिये जायें। इस समय तक उसके पास हिन्दू बंदियों की संखया एक लाख हो गयी थी। जब यमुना पार कर दिल्ली पर आक्रमण की तैयारी हो रही थी उसके साथ के अमीरों ने उससे कहा कि इन बंदियों को कैम्प में नहीं छोड़ा जा सकता और इन इस्लाम के शत्रुओं को स्वतंत्र कर देना भी युद्ध के नियमों के विरुद्ध होगा। तैमूर लिखता है-

इसलिये उन लोगों को सिवाय तलवार का भोजन बनाने के कोई मार्ग नहीं था। मैंने कैम्प में घोषणा करवा दी कि तमाम बंदी कत्ल कर दिये जायें और इस आदेश के पालन में जो भी लापरवाही करे उसे भी कत्ल कर दिया जाये और उसकी सम्पत्ति सूचना देने वाले को दे दी जाये। जब इस्लाम के गाजियों (काफिरों का कत्ल करने वालों को आदर सूचक नाम) को यह आदेश मिला तो उन्होंने तलवारें सूत लीं और अपने बंदियों को कत्ल कर दिया। उस दिन एक लाख अपवित्र मूर्ति-पूजककाफिर कत्ल कर दिये गये।

तुगलक बादशाह को हराकर तैमूर ने दिल्ली में प्रवेश किया। उसे पता लगा कि आस-पास के देहातों से भागकर हिन्दुओं ने बड़ी संख्या में अपने स्त्री-बच्चों तथा मूल्यवान वस्तुओं के साथ दिल्ली में शरण ली हुई हैं। उसने अपने सिपाहियों को इन हिन्दुओं को उनकी संपत्ति समेत पकड़ लेने के आदेश दिये।

जीवन को सफल व सार्थक बनाने का माध्यम है परोपकार


जिंदगी की सार्थकता को यदि खोजना है तो वह दूसरों की भलाई करने में है। संसार में उसी परिश्रम को सार्थक कहा गया है, जो दूसरों के लिए किया जाता है। वही मेहनत सफल कहलाती है जिससे दूसरों का भला होता है। 
      मनुष्य जीवन की किसी भी अवस्था में और किसी भी स्थिति में परोपकार किया जा सकता है। बस, इसके लिए संवेदनशील और उदार भावनाएं होनी चाहिए।  
      प्राचीन समय में एक वृद्ध बेसहारा आदमी भिक्षा मांगकर अपना जीवन-निर्वाह करता था। उसका नित्य का नियम था कि वह अधिक से अधिक भिक्षा प्राप्त करने का प्रयास करता था। इसी प्रयास में उसे सवेरे से लेकर रात हो जाती थी। वह भटकता रहता और हाथ पसारे भीख मांगता रहता।  
     वृद्ध की दिनचर्या का एक हिस्सा यह भी था कि जैसे ही वह सवेरे सोकर उठता, सबसे पहले शुद्ध होकर मंदिर में जाता, वहां की पूजा में भाग लेता, भगवान को प्रणाम करता, फिर लौटकर आता और भीख मांगने निकल जाता। 
     अपनी कुटिया से मुख्य मार्ग की ओर जाते समय वह अनाज के दानों से मुट्ठियां भर लेता था और जहां पक्षियों को देखता, वहां दाने बिखेर देता। दोपहर को जब खाना खाने बैठता तो आधे से अधिक खाना लोगों में बांट देता। उसे अपना पेट भरने की अधिक चिंता नहीं होती थी। जिस दिन वह अधिक परमार्थ करता, उस रात उसे बड़ी गहरी नींद आती और वह निश्चिन्त  होकर सो जाता।
     सामान्यत: मनुष्य की प्रवृत्ति स्वार्थी होती है और इस स्वार्थी संसार में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो केवल अपने लिए परिश्रम करते हैं। जो मनुष्य औरों के लिए नहीं सोचते उनका जीवन व्यर्थ है। 
      जीवन में सार्थकता तभी आती है जब दूसरों के लिए कुछ किया जाता है। दूसरों की सहायता करने की प्रेरणा तो प्रकृति हर पल देती है, लेकिन मनुष्य फिर भी इनके शिक्षण से अनजान बने रहकर इनकी सेवा को ग्रहण करता रहता है। व्यक्ति के अंदर ऐसा जज्बा होना चाहिए कि जो उसकी राह में कांटे उत्पन्न करे, उसके लिए भी वह फूल उत्पन्न करे। 
      अंत में वह व्यक्ति स्वयं देखेगा कि उसके द्वारा उत्पन्न किए गए फूल तो फूल ही हैं, जबकि दूसरों द्वारा पैदा किए गए कांटे उनके लिए त्रिशूल बन गए हैं। जो व्यक्ति दूसरों का भला करते हैं वे जिंदगी भर मुस्कराते हैं।

गुरुवार, 29 सितंबर 2016

जहां धर्म वहां विजय

रूपनगर में एक दानी और धर्मात्मा राजा राज्य करते थे । एक दिन उनके पास एक साधु आये और बोले  ,'महाराज,आप मुझे बारह साल के लिए अपना राज्य दे दीजिए या अपना धर्म दे दीजिए।' राजा बोले, 'धर्म तो नहीं दे पाऊंगा। आप मेरा राज्य ले सकते है।' साधु  महाराज राजगद्दी पर बैठे और राजा जंगल की ओर चल पडे । 
    जंगल में राजा को एक युवती मिली। उसने बताया कि वह आनंदपुर राज्य की राजकुमारी है। शत्रुओं ने उसके पिता की हत्या कर राज्य हड़प लिया है उस युवती के कहने पर राजा ने एक दूसरे नगर में रहना स्वीकार कर लिया। जब भी राजा को किसी वस्तु की आवश्यकता होती वह युवती मदद करती।  
     एक दिन उस राजा से उस नगर का राजा मिला। और दोनों में दोस्ती हो गयी ।  एक दिन उस विस्थापित राजा ने नगर के राजा और उसके सैनिकों को भोज पर बुलाया। नगर  का राजा यह देखकर हैरान था कि उस विस्थापित राजा ने इतना सारा इंतजाम कैसे किया। विस्थापित राजा खुद भी हैरान था। 
      तब उसने उस युवती से पूछा,'तुमने इतने कम समय में ये सारी व्यवस्थाएं कैसे की?' उस युवती ने राजा से कहा,'आपका राज्य संभालने का वक्त आ गया है। आप जाकर राज्य संभाले। मैं युवती नहीं,धर्म हूँ। एक दिन आपने राजपाट छोड़कर मुझे बचाया था,इसलिए मैंने आपकी मदद की। 
     ग्रन्थों में सत्य ही कहा गया है जो धर्म को जानकर उसकी रक्षा करता है,धर्म उसकी रक्षा करता है। जहां धर्म है, वहां विजय है इसलिए हमारे लिए धर्म को गहराई से समझना और जीवन में अपनाना अत्यंत आवश्यक है।

रविवार, 25 सितंबर 2016

पंडित दीनदयाल उपाध्याय


सुविधायों में पलकर कोई भी सफलता पा सकता है; पर अभावों के बीच रहकर शिखरों को छूना बहुत कठिन है। 25 सितम्बर, 1916 को जयपुर से अजमेर मार्ग पर स्थित ग्राम धनकिया में अपने नाना पण्डित चुन्नीलाल शुक्ल के घर जन्मे दीनदयाल उपाध्याय ऐसी ही विभूति थे।

दीनदयाल जी के पिता श्री भगवती प्रसाद ग्राम नगला चन्द्रभान, जिला मथुरा, उत्तर प्रदेश के निवासी थे। तीन वर्ष की अवस्था में ही उनके पिताजी का तथा आठ वर्ष की अवस्था में माताजी का देहान्त हो गया। अतः दीनदयाल का पालन रेलवे में कार्यरत उनके मामा ने किया। ये सदा प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण होते थे। कक्षा आठ में उन्होंने अलवर बोर्ड, मैट्रिक में अजमेर बोर्ड तथा इण्टर में पिलानी में सर्वाधिक अंक पाये थे।

14 वर्ष की आयु में इनके छोटे भाई शिवदयाल का देहान्त हो गया। 1939 में उन्होंने सनातन धर्म कालिज, कानपुर से प्रथम श्रेणी में बी.ए. पास किया। यहीं उनका सम्पर्क संघ के उत्तर प्रदेश के प्रचारक श्री भाऊराव देवरस से हुआ। इसके बाद वे संघ की ओर खिंचते चले गये। एम.ए. करने के लिए वे आगरा आये; पर घरेलू परिस्थितियों के कारण एम.ए. पूरा नहीं कर पाये। प्रयाग से इन्होंने एल.टी की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। संघ के तृतीय वर्ष की बौद्धिक परीक्षा में उन्हें पूरे देश में प्रथम स्थान मिला था।

अपनी मामी के आग्रह पर उन्होंने प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दी। उसमें भी वे प्रथम रहे; पर तब तक वे नौकरी और गृहस्थी के बन्धन से मुक्त रहकर संघ को सर्वस्व समर्पण करने का मन बना चुके थे। इससे इनका पालन-पोषण करने वाले मामा जी को बहुत कष्ट हुआ। इस पर दीनदयाल जी ने उन्हें एक पत्र लिखकर क्षमा माँगी। वह पत्र ऐतिहासिक महत्त्व का है। 1942 से उनका प्रचारक जीवन गोला गोकर्णनाथ (लखीमपुर, उ.प्र.) से प्रारम्भ हुआ। 1947 में वे उत्तर प्रदेश के सहप्रान्त प्रचारक बनाये गये।

1951 में डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने नेहरू जी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों के विरोध में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल छोड़ दिया। वे राष्ट्रीय विचारों वाले एक नये राजनीतिक दल का गठन करना चाहते थे। उन्होंने संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से सम्पर्क किया। गुरुजी ने दीनदयाल जी को उनका सहयोग करने को कहा। इस प्रकार 'भारतीय जनसंघ' की स्थापना हुई। दीनदयाल जी प्रारम्भ में उसके संगठन मन्त्री और फिर महामन्त्री बनाये गये।

1953 के कश्मीर सत्याग्रह में डा. मुखर्जी की रहस्यपूर्ण परिस्थितियों में मृत्यु के बाद जनसंघ की पूरी जिम्मेदारी दीनदयाल जी पर आ गयी। वे एक कुशल संगठक, वक्ता, लेखक, पत्रकार और चिन्तक भी थे। लखनऊ में राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना उन्होंने ही की थी। एकात्म मानववाद के नाम से उन्होंने नया आर्थिक एवं सामाजिक चिन्तन दिया, जो साम्यवाद और पूँजीवाद की विसंगतियों से ऊपर उठकर देश को सही दिशा दिखाने में सक्षम है।

उनके नेतृत्व में जनसंघ नित नये क्षेत्रों में पैर जमाने लगा। 1967 में कालीकट अधिवेशन में वे सर्वसम्मति से अध्यक्ष बनायेे गये। चारों ओर जनसंघ और दीनदयाल जी के नाम की धूम मच गयी। यह देखकर विरोधियों के दिल फटने लगे। 11 फरवरी, 1968 को वे लखनऊ से पटना जा रहे थे। रास्ते में  किसी ने उनकी हत्या कर मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर लाश नीचे फेंक दी। इस प्रकार अत्यन्त रहस्यपूर्ण परिस्थिति में एक मनीषी का निधन हो गया।

शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

गांधीवादी चिन्तक श्री धर्मपाल


श्री धर्मपाल जी की गणना भारत के महान गांधीवादी चिन्तकों में की जाती है। उनका जन्म 1922 में कांधला (जिला मुजफ्फरनगर, उ.प्र.) में हुआ था। 1942 में वे भारत छोड़ो आन्दोलन में सक्रिय हुए और उन्हें जेल यात्रा करनी पड़ी। शासन ने उनके दिल्ली प्रवेश पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया। अतः गांधी जी की प्रेरणा से वे उनकी एक विदेशी शिष्या मीरा बहन द्वारा ऋषिकेष में किये जा रहे भारतीय खेती के प्रयोगों से जुड़ गये। 

1949 तक धर्मपाल जी वहीं काम करते रहे। इसके बाद मीरा बहन ने उन्हें इंग्लैण्ड होते हुए इसराइल जाकर ग्राम विकास के किबुंज प्रयोग का अध्ययन करने को कहा। इंग्लैण्ड में उनकी भेंट एक महिला समाजसेवी फिलिस से हुई। आगे चलकर दोनों ने विवाह कर लिया और भारत आ गये। 

अब धर्मपाल जी को परिवार चलाने के लिए भी कुछ उद्यम करना था। उनकी पत्नी मसूरी में अध्यापन कार्य करने लगी। कालान्तर में उन्हें एक पुत्र और दो पुत्रियों की प्राप्ति हुई। 1957 में परिवार सहित दिल्ली आकर वे गांधीवादी संस्थाओं में काम करने लगे। इस दौरान उनका सम्पर्क अनेक लोगों से हुआ। इनमें से सीताराम गोयल, रामस्वरूप तथा धर्मपाल जी ने अपने मित्रधर्म का आजीवन पालन किया।

धर्मपाल जी एक बार मद्रास प्रान्त में पंचायत व्यवस्था के अध्ययन के लिए अभिलेखागारों को खंगाल रहे थे। उनकी दृष्टि वहाँ भारत में अंग्रेजी राज्य से पूर्व की पंचायत व्यवस्था सम्बन्धी अभिलेखों पर पड़ी। उन्होंने पाया कि भारतीय पंचायत व्यवस्था बहुत अच्छी थी, जिसे धूर्त अंग्रेजों ने जानबूझ कर नष्ट किया। इससे उनकी सोच की दिशा बदल गयी। 

अब उन्होंने अपना पूरा समय भारत की प्राचीन न्याय, शिक्षा, कृषि, विज्ञान, उद्योग....आदि प्रणालियों के अध्ययन में लगा दिया। इसके लिए उन्हें भारत तथा विदेशों के अनेक अभिलेखागारों में महीनों बैठना पड़ा। निष्कर्ष यह निकला कि अंग्रेजों का 250 साल का काल भारत की सब आधारभूत व्यवस्थाओं की बर्बादी का काल है। उस पर भी तुर्रा यह कि अंग्रेजों ने शिक्षित भारतीयों के मन मस्तिष्क में यह बात बैठा दी कि अंग्रेजों ने आकर जंगली भारतीयों को सभ्य बनाया।

धर्मपाल जी का निष्कर्ष था कि मुस्लिम काल में ये व्यवस्थाएँ नष्ट नहीं हो पायीं; पर अंग्रेजों ने इनका गहन अध्ययन किया और फिर षड्यन्त्रपूर्वक इन्हें तोड़कर सदा के लिए भारतीय मस्तिष्क को गुलाम बना लिया। उनके अध्ययन पर आधारित पुस्तकें जब प्रकाशित हुईं, तो सर्वत्र हलचल मच गयी। गांधी जी के नाम पर सत्ता भोग रहे कांग्रेसी और उनके कम्यूनिस्ट पिट्ठू अंग्रेजी शासन को देश के लिए वरदान मानते थे। अतः उन्होंने धर्मपाल जी से दूरी बना ली।

धर्मपाल जी गांधी जी के भक्त थे, कांग्रेस के नहीं। इसीलिए जब सोनिया गांधी ने प्रधानमन्त्री बनने का प्रयास किया, तो उसके विरुद्ध उन्होंने दिल्ली में प्रदर्शन किया। जीवन के अन्तिम कुछ वर्षों में कांग्रेस और कम्यूनिस्टों से उनका मोहभंग हो गया और वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रभावित हो गये। नागपुर में आयोजित संघ शिक्षा वर्ग (तृतीय वर्ष) के सार्वजनिक समापन कार्यक्रम में वे अध्यक्षता करने गये। दीनदयाल शोध संस्थान में भी कई बार उनके भाषण हुए। 24 अक्तूबर, 2006 को गांधी जी की तपःस्थली सेवाग्राम में 84 वर्षीय इस मनीषी का देहान्त हो गया। 

बुधवार, 21 सितंबर 2016

सत्कार और तिरस्कार का महत्व

एक थका माँदा शिल्पकार लंबी यात्रा के बाद किसी छायादार वृक्ष के नीचे विश्राम के लिये बैठ गया। अचानक उसे सामने एक पत्थर का टुकड़ा पड़ा दिखाई दिया। उसने उस सुंदर पत्थर के टुकड़े को उठा लिया, सामने रखा और औजारों के थैले से छेनी-हथौड़ी निकालकर उसे तराशने के लिए जैसे ही पहली चोट की, पत्थर जोर से चिल्ला पड़ा, "उफ मुझे मत मारो।" दूसरी बार वह रोने लगा, "मत मारो मुझे, मत मारो... मत मारो।

शिल्पकार ने उस पत्थर को छोड़ दिया, अपनी पसंद का एक अन्य टुकड़ा उठाया और उसे हथौड़ी से तराशने लगा। वह टुकड़ा चुपचाप वार सहता गया और देखते ही देखते उसमें से एक देवी की मूर्ति उभर आई। मूर्ति वहीं पेड़ के नीचे रख वह अपनी राह पकड़ आगे चला गया। 

कुछ वर्षों बाद उस शिल्पकार को फिर से उसी पुराने रास्ते से गुजरना पड़ा, जहाँ पिछली बार विश्राम किया था। उस स्थान पर पहुँचा तो देखा कि वहाँ उस मूर्ति की पूजा अर्चना हो रही है, जो उसने बनाई थी। भीड़ है, भजन आरती हो रही है, भक्तों की पंक्तियाँ लगीं हैं, जब उसके दर्शन का समय आया, तो पास आकर देखा कि उसकी बनाई मूर्ति का कितना सत्कार हो रहा है! जो पत्थर का पहला टुकड़ा उसने, उसके रोने चिल्लाने पर फेंक दिया था वह भी एक ओर में पड़ा है और लोग उसके सिर पर नारियल फोड़ फोड़ कर मूर्ति पर चढ़ा रहे है।

शिल्पकार ने मन ही मन सोचा कि जीवन में कुछ बन पाने के लिए शुरू में अपने शिल्पकार को पहचानकर, उनका सत्कारकर कुछ कष्ट झेल लेने से जीवन बन जाता हैं। बाद में सारा विश्व उनका सत्कार करता है। जो डर जाते हैं और बचकर भागना चाहते हैं वे बाद में जीवन भर कष्ट झेलते हैं, उनका सत्कार कोई नहीं करता ।

मंगलवार, 13 सितंबर 2016

गांधी हत्या के बहाने संघ को दबाने की साजिश

डॉ. रवि प्रभात की कलम से

राहुल गांधी आये दिन अपनी नासमझी के कारण कांग्रेस को मुसीबत में डालते रहते हैं, यह उनके लिए कोई नयी बात नही है, शायद यह उनकी आदत में शुमार हो चुका है।राहुल गांधी की बातों यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें भारत के इतिहास की कोई ख़ास समझ नही है, केवल कुछ सुनी सुनाई बातो को बना परखे तोते की तरह रट कर बोलते रहते हैं।अपनी इसी नासमझी की वजह से राहुल गांधी को आजकल कोर्ट कचहरियों के रास्ते नांपने पड़ रहे हैं।गांधी जी की हत्या के लिए संघ को जिम्मेदार बतलाने के बाद राहुल गांधी पर भारी मुसीबत मंडरा रही है , जिसमे शायद उन्हें जेल भी जाना पड़े।

इसी फजीहत के डर से राहुल गांधी ने अपने बयान से पल्ला झाड़ने की भी कोशिश की और कहा कि मैंने कभी भी संघ को गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार नही ठहराया , मैंने तो इतना कहा था कि संघ के लोगो ने गांधी की ह्त्या की है।इसमें कोई दोराय नही कि गेंद अब वकीलो और कानूनविदों के पाले में है  लेकिन यह मामला केवल कानूनी पहलुओ सीमित नही है।राहुल गांधी इसे राजनितिक अवसर के रूप में देख रहे हैं। शायद उनकी मंशा गांधी हत्या के मामले में वर्तमान युवा पीढ़ी को गुमराह करने की भी जो इस पूरे प्रकरण से उतनी परिचित नही है।

मुझे लगता है संघ-विरोधियो के लिए गांधी की हत्या संघ को दबाने और कुचलने का साधन बन गयी थी, जिसका उपकरण के रूप में आज तक उपयोग किया जा रहा है।गांधी की हत्या के बाद दो दो जांच आयोगों ने कभी भी संघ के नेतृत्व को इसमें लिप्त नही पाया, न ही संघ के कार्यकर्ताओ की कोई भूमिका प्रमाणित हुई।तत्कालीन उपप्रधानमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने नेहरू को पत्र लिख कर कहा था "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का इस कार्य से कुछ लेना देना नही है, निस्संदेह संघ को दुसरे कृत्यों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है परंतु इसके लिए नहीँ" ।लेकिन फिर भी कुछ लोग "संघ-शक्ति" को उभरते हुए नही देखना चाहते थे इसलिए हमेशा से यह एकपक्षीय प्रोपेगेंडा चलता रहा है , जिसे सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण जुटाने की जहमत कभी किसी ने उठायी ही नहीँ।

गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार नाथूराम गोडसे कभी भी संघ का जिम्मेदार कार्यकर्ता नही रहा, गोडसे विशुद्ध रूप से हिन्दू महासभा का नेता था , जो खुले आम तत्कालीन संघ नेतृत्व एवं स्वयंसेवको को लानत मलानत भेजता भी भेजा करता था।भागानागर सत्याग्रह के बाद गोडसे संघ को हिन्दुत्वविरोधी कहकर दुष्प्रचार करता था तथा स्वयंसेवको को शाखा में जाने से निरुत्साहित किया करता था।गोडसे की दृष्टी में संघ युवाओ की शक्ति क्षय करने वाला संगठन था।अब अगर गोडसे की संघ के साथ कोई वैचारिक , व्यावहारिक तारतम्यता ही नही थी तो उसके किसी कृत्य के लिए संघ क्योंकर जिम्मेदार होने लगा।

इसी सन्दर्भ में एक बात और समझने की , जिसके घालमेल की वजह से कुछ चीजे समाज में स्पष्ट रूप से नहीँ जा पाती।हमेशा से ही हिन्दू महासभा और संघ दो अलग अलग संगठन रहे हैं,  महासभा एक राजनितिक संगठन था तथा संघ अराजनीतिक संगठन।दोनों की कार्यपद्धति में महान अंतर था लेकिन क्योंकि डा हेडगेवार आरम्भ में महासभा के  वरिष्ठ नेताओ के सम्पर्क में रहे इसलिए तब संघ और महासभा को एक ही संगठन के तौर पे देखने की गलती कुछ लोग करते थे।महासभा के कुछ नेता भी संघ को अपना सैन्य संगठन  बनाना चाहते थे जिसे डा हेडगेवार ने कभी स्वीकार नही किया।

यहां तक कि महासभा समर्थित "वन्देमातरम्" पत्र में 12 लेखो की शृंखला में डा हेडगेवार को हठी ,अभिमानी ,घमण्डी, हिन्दुत्वशक्ति का विभाजक जैसे अपमानित करने वाले शब्दों का भी प्रयोग किया गया तब भी डा हेडगेवार अपने निर्धारित उच्च लक्ष्य की ओर आगे बढ़ते रहे ।कभी भी संघ को महासभा की महत्त्वाकांक्षा की आग में नष्ट नही होने दिया।इसका अभिप्राय यह हुआ कि महासभा के भी किसी कार्य के लिए संघ को उत्तरदायी ठहराना संघ के साथ अन्याय करने जैसा है।

गांधी की हत्या के लिए संघ को जिम्मेदार ठहराने के सन्दर्भ में संघ के शीर्ष नेतृत्व तथा कार्यकर्ताओ का व्यवहार भी परखना चाहिए, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि गांधी की हत्या में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष षड्यंत्र तो छोड़िये संघ का मानसिक या मौन समर्थन भी कदापि नही था।गांधी की हत्या का संदेश मिलते ही तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी सार्वजनिक पत्र लिखकर शोक व्यक्त किया था, वे इसे त्रासदी के रूप में देखते थे। दीनदयाल उपाध्याय जो कि संघ के वरिष्ठ प्रचारक तथा जनसंघ के संस्थापको में रहे उनका मानना था कि गांधी की ह्त्या हिन्दुत्ववादियों का सफाया करने का उत्तम राजनीतिक अवसर था, जिसका लाभ उठाकर 1948 में संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया।संघ एक के अन्य वरिष्ठ प्रचारक तथा भारतीय मजदूर संघ के प्रणेता श्री दत्तोपंत ठेंगडी जी "हिन्दू मानसिकता"पुस्तक में लिखते हैं कि गांधी की हत्या से देश के बाद अगर किसी का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है तो वह संघ है।उस समय संघ का कार्य तेजी से देश भर में बढ़ रहा था परंतु गांधी की ह्त्या में लपेटने और प्रतिबन्ध लगने से संघ कार्य की बड़ी क्षति हुई।उन्होंने गांधी की ह्त्या को किसी भी दृष्टिकोण से उचित नही ठहराया अपितु गोडसे की कड़ी भर्त्सना की।

हम अगर इसका दूसरा पक्ष देखें तो गांधी की मृत्यु से सबसे अधिक लाभ कांग्रेस को ही हुआ।यदि इस प्रकार गांधी की ह्त्या न हुई होती तो कांग्रेस इतने दिनों तक लोकप्रिय नही रही होती।कांग्रेस की रीती निति से खफा होकर गांधी खुद कांग्रेस के विरोध में उतर आते।साथ ही यह भी अन्वेषणा का विषय है कि गांधी की ह्त्या का एक असफल प्रयास होने पर भी नेहरू ने उनकी सुरक्षा का उचित प्रबन्ध क्यों नही किया , क्या इसके लिए नेहरू की जिम्मेदारी नही बनती थी? जैसा कि आजकल हम अन्य सरकारो को जिम्मेदार ठहरातव हैं।दुर्भाग्य से जन विमर्श में इन बातो का सही विश्लेषण होता नही दिखता।

संघ ने कभी भी गांधी की हत्या को उचित नही ठहराया।वर्तमान में संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी के अनुसार " यह सही है कि गांधी जी के साथ संघ के कुछ मुद्दों पर राजनितिक मतभेद थे परंतु इसके साथ साथ गांधी के उठाये सांस्कृतिक मुद्दों पर पूर्ण सहमति भी थी, गांधी के ग्राम स्वराज, स्वदेशी, जातिगत अस्पृश्यता आदि मुद्दों पर संघ आरम्भ से सक्रिय रहा और उन्हें समाज में क्रियान्वित करके दिखाया"। संघ की गांधी के प्रति भावना इस तथ्य से भी व्यक्त होती है  संघ के प्रतिदिन प्रातः स्मरण किये जाने वाले " एकात्मता स्तोत्र"  में अन्य महापुरुषों के साथ साथ गांधी का नाम भी श्रद्धापूर्वक स्मरण किया जाता है।

संघ का व्यवहार कभी भी प्रतिक्रयात्मक नही रहा , संघ अहिंसा को सही अर्थ में अपनाने वाला संगठन है।संघ ने भी वैचारिक भिन्नताओ के आधार पर किसी के लिए कोई प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष साजिश नही रची।अगर संघ की रीती पद्धति ऐसी होती तो ऐसे षडयंत्रो में गांधी की अपेक्षा जिन्नाह या बाकी लोगो का नाम पहले आना चाहिए था।लेकिन तब भी संघ को हिंदुत्ववादि होने का खामियाजा भुगतना पड़ा।नेहरू को हिन्दू शब्द से घृणा थी।काका साहेब गाडगिल लिखते हैं कि गांधी की हत्या के बाद 31 जनवरी और एक फरवरी को दिल्ली में राज्यपालों की बैठक में मैं भी उपस्थित था।इस बैठक में हिन्दू महासभा और संघ के बारे में कठोर निति अपनाने पर विचार व्यक्त किये जा रहे थे।जबकि कई लोगो का मानना था कि केवल हत्यारे और उसके सहयोगियों के खिलाफ ही कठोर नीति अपनानी चाहिए।सावरकर को भी नेहरू के आग्रह पर ही इस मामले में अभियुक्त के तौर पर समेटा गया था।

अनेक तथ्यों का विश्लेषण करने पर कांग्रेस का संघ के प्रति विचार व्यवहार हमेशा विरोधाभास भरा रहा है।यह बात सच है कि कांग्रेस का दृष्टिकोण संघ के आरम्भ से अलग तरह का था, फिर भी 1934 में गांधी के करीबी जमना लाल बजाज डा हेडगेवार के पास यह प्रस्ताव लेकर गए कि संघ का कार्य कांग्रेस के नेतृत्व में चलता रहे।परन्तु डा हेडगेवार ने इसे विनम्रता पूर्वक अस्वीकार कर दिया।एक और अकल्पनीय बात आप देखिये गांधी की हत्या में संघ को लपेटने के बाद एक बार फिर अक्टूबर 1949 में कांग्रेस की कार्यकारिणी द्वारा यह प्रस्ताव पारित किया गया कि संघ के स्वयंसेवको के लिए कांग्रेस के द्वार खुले हैं, संघ के स्वयंसेवको को सीधा न्यौता दिया गया कांग्रेस ज्वाइन करने का।क्या यह सम्भव था कि गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार लोगो के लिए कांग्रेस अपने दरवाजे खोलती।दरअसल दोनों जांच आयोगों के संघ की भूमिका को नकारने के बाद कांग्रेस के लोगो का अंतर्मन यह स्वीकार कर चुका होगा कि संघ का गांधी की हत्या के षड्यंत्र से कुछ लेना देना नही है, परन्तु नेहरू के कारण वह खुलकर इसे स्वीकार नही कर पा रहे हो इसलिए इस प्रस्ताव के माध्यम से कांग्रेस ने यह भावना व्यक्त की।साथ ही यह भी सम्भव है कि शायद हिन्दू महासभा की तरह कांग्रेस भी संघ की ऊर्जावान तेजस्वी युवाशक्ति का राजनितिक उपयोग अपने पक्ष में करना चाहती हो और उसे यह उचित अवसर प्रतीत हुआ हो। 

1962 के चीन युद्ध के बाद नेहरू को संघ के विषय में अपनी भूल का एहसास हुआ और उन्होंने गणतन्त्र दिवस की परेड में संघ के स्वयंसेवको को संचलन का न्यौता देकर भूल सुधार किया।संघ की कार्यपद्धति से प्रभावित एक और गांधी (संजय)  ने संघ की तर्ज पर कांग्रेस की सरपरस्ती में दुसरे संघ के निर्माण की घोषणा की थी यद्यपि वह इसे क्रियान्वित करने से पहले ही चल बसे। अभी भी राहुल गांधी अपनी बैठको में कार्यकर्ताओ को संघ से कुछ सीखने की नसीहत देते पाये गए हैं।अभिप्राय यह है कि कांग्रेस कभी भी संघ के बारे में अपने विचार स्थिर नही कर पायी परंतु राजनैतिक कारणों से संघ की अन्धविरोधी अवश्य बनी रही।

इस पूरी चर्चा से यह तो स्पष्ट है कि गांधी की हत्या से संघ को जोड़ना निहित स्वार्थो, राजनैतिक लाभ, वैचारिक प्रतिद्वंद्विता तथा अपनी दुर्बलता से उपजी कुंठा का परिणाम था जो आज तक बदस्तूर जारी है। राहुल गांधी अब उसी फांस में फंसने जा रहे है जिससे उनके पूर्वज कभी निकल नही पाये।इसका सीधा लाभ यह भी है कि दशको से चले आ रहे प्रोपेगेंडे को दोबारा से छिन्न भिन्न करने का तथा पुरानी अवधारणा को ध्वस्त कर नई अवधारणा गढ़ने का अवसर अकस्मात ही मिल गया है।जिस घटना के लिए पूना के आस पास कुछ व्यक्ति जिम्मेदार थे उसके लिए अखिल भारतीय स्तर के संगठन को जिम्मेदार ठहराने के लिए राहुल गांधी को ऐसे तर्क ढूँढने होंगे जो उनके तरकश में हैं ही नहीँ।साथ साथ अपने नेताओ के तमाम दुष्कृत्यों को कांग्रेसी दुष्कृत्य मानने की मानसिकता बनानी पड़ेगी जो कि खासा घाटे का सौदा होगी। मामला दिलचस्प है।संघ की जो क्षति होनी थी वह 1948 में हो चुकी, संघ अब उससे बहुत आगे निकल चुका।गांधी की ह्त्या के नाम पर न तब संघ को दबाया जा सका है न अब दबाया जा सकेगा।हां जो नए सवाल खड़े होने वाले हैं उनसे राजनितिक भँवर में फंसी कांग्रेस जरूर भरभराने की स्थिति में है, जिससे उसकी रही सही साख भी दांव पर लग गयी है।

सोमवार, 12 सितंबर 2016

जतीन्द्रनाथ दास


जतीन्द्रनाथ दास का जन्म 27 अक्तूबर, 1904 को कोलकाता में हुआ था। 16 वर्ष की अवस्था में ही वे असहयोग आंदोलन में दो बार जेल गये थे। इसके बाद वे क्रांतिकारी दल में शामिल हो गये। जतीन्द्रनाथ सान्याल से उन्होंने बम बनाना सीखा। 1928 में वे फिर पकड़ लियेे गये। वहां जेल अधिकारी द्वारा दुर्व्यवहार करने पर ये उससे भिड़ गये। इस पर इन्हें बहुत निर्ममता से पीटा गया। इसके विरोध में इन्होंने 23 दिन तक भूख हड़ताल की तथा जेल अधिकारी द्वारा क्षमा मांगने पर ही अन्न ग्रहण किया।

क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न रहने के कारण उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। हर बार वे बंदियों के अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहे। लाहौर षड्यंत्र केस में वे छठी बार गिरफ्तार हुए। उन दिनों जेल में क्रांतिवीरों से बहुत दुर्व्यवहार होता था। उन्हें न खाना ठीक मिलता था और न वस्त्र, जबकि सत्याग्रहियों को राजनीतिक बंदी मान कर सब सुविधा दी जाती थीं। जेल अधिकारी क्रांतिकारियों से प्रायः मारपीट भी करते थे। इसके विरोध में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त आदि ने लाहौर के केन्द्रीय कारागार में भूख हड़ताल प्रारम्भ कर दी।

जब इन अनशनकारियों की हालत खराब होने लगी, तो इनके समर्थन में बाकी क्रांतिकारियों ने भी अनशन प्रारम्भ करने का विचार किया। अनेक लोग इसके लिए उतावले हो रहे थेे। जब सबने जतीन्द्र की प्रतिक्रिया जाननी चाही, तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि मैं अनशन तभी करूंगा, जब मुझे कोई इससे पीछे हटने को नहीं कहेगा। मेरे अनशन का अर्थ है ‘विजय या मृत्यु।’

जतीन्द्रनाथ का मत था कि संघर्ष करते हुए गोली खाकर या फांसी पर झूलकर मरना आसान है। क्योंकि उसमें अधिक समय नहीं लगता; पर अनशन में व्यक्ति क्रमशः मृत्यु की ओर आगे बढ़ता है। ऐसे में यदि उसका मनोबल कम हो, तो संगठन के व्यापक उद्देश्य को हानि होती है।

जतीन्द्रनाथ का मनोबल बहुत ऊंचा था। अतः उनके नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने 13 जुलाई, 1929 से अनशन प्रारम्भ कर दिया। जेल में यों तो बहुत खराब खाना दिया जाता था; पर अब जेल अधिकारी स्वादिष्ट भोजन, मिष्ठान और केसरिया दूध आदि उनके कमरों में रखने लगे। सब क्रांतिकारी यह सामग्री फेंक देते थे; पर यतीन्द्र कमरे में रखे होने पर भी इन्हें छूते तक नहीं थे।

अब जेल अधिकारियों ने जबरन अनशन तुड़वाने का निश्चय किया। वे बंदियों के हाथ पैर पकड़कर, नाक में रबड़ की नली घुसेड़कर पेट में दूध डाल देते थे। जब जतीन्द्र के साथ ऐसा किया गया, तो वे जोर से खांसने लगे। इससे दूध उनके फेफड़ों में चला गया और उनकी हालत बहुत बिगड़ गयी।

यह देखकर जेल प्रशासन ने उनके छोटे भाई किरणचंद्र दास को उनकी देखरेख के लिए बुला लिया; पर यतीन्द्रनाथ दास ने उसे इसी शर्त पर अपने साथ रहने की अनुमति दी कि वह उनके संकल्प में बाधक नहीं बनेगा। इतना ही नहीं, यदि उनकी बेहोशी की अवस्था में जेल अधिकारी कोई खाद्य सामग्री, दवा या इंजैक्शन देना चाहें, तो वह ऐसा नहीं होने देगा।

13 सितम्बर, 1929 को अनशन का 63वां दिन था। आज जतीन्द्र के चेहरे पर विशेष प्रकार की मुस्कान थी। उन्होंने सब मित्रों को अपने पास बुलाया। छोटे भाई किरण ने उनका मस्तक अपनी गोद में ले लिया। विजय सिन्हा ने जतीन्द्र का प्रिय गीत ‘एकला चलो रे’ और फिर ‘वन्दे मातरम्’ गाया। गीत पूरा होते ही संकल्प के धनी जतीन्द्रनाथ दास का सिर एक ओर लुढ़क गया।

रविवार, 11 सितंबर 2016

सुब्रह्मण्य भारती


भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम से देश का हर क्षेत्र और हर वर्ग अनुप्राणित था। ऐसे में कवि भला कैसे पीछे रह सकते थे। तमिलनाडु में इसका नेतृत्व कर रहे थे सुब्रह्मण्य भारती. यद्यपि उन्हें अनेक संकटों का सामना करना पड़ा, पर उनका स्वर मन्द नहीं हुआ. सुब्रह्मण्य भारती का जन्म एट्टयपुरम् (तमिलनाडु) में 11 दिसम्बर, 1882 को हुआ था. पाँच वर्ष की अवस्था में ही वे मातृविहीन हो गये. इस दुख को भारती ने अपने काव्य में ढाल लिया. इससे उनकी ख्याति चारों ओर फैल गयी. स्थानीय सामन्त के दरबार में उनका सम्मान हुआ और उन्हें ‘भारती’ की उपाधि दी गयी. 11 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह कर दिया गया. अगले साल पिताजी भी चल बसे. अब भारती पढ़ने के उद्देश्य से अपनी बुआ के पास काशी आ गये.

चार साल के काशीवास में भारती ने संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी भाषा का अध्ययन किया. अंग्रेजी कवि शैली से वे विशेष प्रभावित थे. उन्होंने एट्टयपुरम् में ‘शेलियन गिल्ड’ नामक संस्था भी बनाई. तथा ‘शेलीदासन्’ उपनाम से अनेक रचनाएँ लिखीं. काशी में ही उन्हें राष्ट्रीय चेतना की शिक्षा मिली, जो आगे चलकर उनके काव्य का मुख्य स्वर बन गयी. काशी में उनका सम्पर्क भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा निर्मित ‘हरिश्चन्द्र मण्डल’ से रहा.

काशी में उन्होंने कुछ समय एक विद्यालय में अध्यापन किया. वहाँ उनका सम्पर्क डॉ. एनी बेसेण्ट से हुआ, पर वे उनके विचारों से पूर्णतः सहमत नहीं थे. एक बार उन्होंने अपने आवास शैव मठ में महापण्डित सीताराम शास्त्री की अध्यक्षता में सरस्वती पूजा का आयोजन किया. भारती ने अपने भाषण में नारी शिक्षा, समाज सुधार, विदेशी का बहिष्कार और स्वभाषा की उन्नति पर जोर दिया. अध्यक्ष महोदय ने इसका प्रतिवाद किया. फलतः बहस होने लगी और अन्ततः सभा विसर्जित करनी पड़ी. भारती का प्रिय गान बंकिम चन्द्र का वन्दे मातरम् था. वर्ष 1905 में काशी में हुए कांग्रेस अधिवेशन में सुप्रसिद्ध गायिका सरला देवी ने यह गीत गाया. भारती भी उस अधिवेशन में थे. बस तभी से यह गान उनका जीवन प्राण बन गया. मद्रास लौटकर भारती ने उस गीत का उसी लय में तमिल में पद्यानुवाद किया, जो आगे चलकर तमिलनाडु के घर-घर में गूँज उठा.

सुब्रह्मण्य भारती ने जहाँ गद्य और पद्य की लगभग 400 रचनाओं का सृजन किया, वहाँ उन्होंने स्वदेश मित्रम, चक्रवर्तिनी, इण्डिया, सूर्योदयम, कर्मयोगी आदि तमिल पत्रों तथा बाल भारत नामक अंग्रेजी साप्ताहिक के सम्पादन में भी सहयोग किया. अंग्रेज शासन के विरुद्ध स्वराज्य सभा के आयोजन के लिए भारती को जेल जाना पड़ा. कोलकाता जाकर उन्होंने बम बनाना, पिस्तौल चलाना और गुरिल्ला युद्ध का भी प्रशिक्षण लिया. वे गरम दल के नेता लोकमान्य तिलक के सम्पर्क में भी रहे. भारती ने नानासाहब पेशवा को मद्रास में छिपाकर रखा. शासन की नजर से बचने के लिए वे पाण्डिचेरी आ गये और वहाँ से स्वराज्य साधना करते रहे. निर्धन छात्रों को वे अपनी आय से सहयोग करते थे. वर्ष 1917 में वे गान्धी जी के सम्पर्क में आये और वर्ष 1920 के असहयोग आन्दोलन में भी सहभागी हुए. स्वराज्य, स्वभाषा तथा स्वदेशी के प्रबल समर्थक इस राष्ट्रप्रेमी कवि का 12 सितम्बर, 1921 को मद्रास में देहान्त हुआ.

भूदान यज्ञ के प्रणेता: विनोबा भावे

विनोबा भावे

स्वतंत्रता के बाद निर्धन भूमिहीनों को भूमि दिलाने के लिए हुए ‘भूदान यज्ञ’ के प्रणेता विनायक नरहरि (विनोबा) भावे का जन्म 11 सितम्बर, 1895 को महाराष्ट्र के कोलाबा जिले के गागोदा ग्राम में हुआ था। इनके पिता श्री नरहरि पन्त तथा माता श्रीमती रघुमाई थीं। विनायक बहुत ही विलक्षण बालक था। वह एक बार जो पढ़ लेता, उसे सदा के लिए कण्ठस्थ हो जाता। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा बड़ौदा में हुई। वहाँ के पुस्तकालय में उन्होंने धर्म, दर्शन और साहित्य की हजारों पुस्तकें पढ़ीं।

विनोबा पर उनकी माँ तथा गांधी जी की शिक्षाओं का बहुत प्रभाव पड़ा। अपनी माँ के आग्रह पर उन्होंने ‘श्रीमद भगवद्गीता’ का ‘गीताई’ नामक मराठी काव्यानुुवाद किया। काशी विश्वविद्यालय में संस्कृत का अध्ययन करते समय उन्होंने गांधी जी के विचार समाचार पत्रों में पढ़े। उससे प्रभावित होकर उन्होंने अपना जीवन उन्हें समर्पित कर दिया और गांधी जी के निर्देश पर साबरमती आश्रम के वृद्धाश्रम की देखरेख करने लगे। उनके मन में प्रारम्भ से ही नौकरी करने की इच्छा नहीं थी। इसलिए काशी जाने से पूर्व ही उन्होंने अपने सब शैक्षिक प्रमाण पत्र जला दिये। 1923 में वे झण्डा सत्याग्रह के दौरान नागपुर में गिरफ्तार हुए। उन्हें एक वर्ष की सजा दी गयी।

1940 में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ प्रारम्भ होने पर गान्धी जी ने उन्हें प्रथम सत्याग्रही के रूप में चुना। इसके बाद वे तीन साल तक वर्धा जेल में रहे। वहाँ गीता पर दिये गये उनके प्रवचन बहुत विख्यात हैं। बाद में वे पुस्तक रूप में प्रकाशित भी हुए। गीता की इतनी सरल एवं सुबोध व्याख्या अन्यत्र दुर्लभ है। 1932 में उन्होंने वर्धा के पास पवनार नदी के तट पर एक आश्रम बनाया। जेल से लौटकर वे वहीं रहने लगे। विभाजन के बाद हुए दंगों की आग को शान्त करने के लिए वे देश के अनेक स्थानों पर गये।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद 1948 में विनोबा ने ‘सर्वोदय समाज’ की स्थापना की। इसके बाद 1951 में उन्होंने भूदान यज्ञ का बीड़ा उठाया। इसके अन्तर्गत वे देश भर में घूमे। वे जमीदारों से भूमि दान करने की अपील करते थे। दान में मिली भूमि को वे उसी गाँव के भूमिहीनों को बाँट देते थे। इस प्रकार उन्होंने 70 लाख हेक्टेयर भूमि निर्धनों में बाँटकर उन्हें किसान का दर्जा दिलाया। 19 मई, 1960 को विनोबा भावे ने चम्बल के बीहड़ों में आतंक का पर्याय बने अनेक डाकुओं का आत्मसमर्पण कराया। जयप्रकाश नारायण ने इन कार्यों में उनका पूरा साथ दिया।

जब उनका शरीर कुछ शिथिल हो गया, तो वे वर्धा में ही रहने लगे। वहीं रहकर वे गांधी जी के आचार, विचार और व्यवहार के अनुसार काम करते रहे। गोहत्या बन्दी के लिए उन्होंने अनेक प्रयास किये; पर शासन द्वारा कोई ध्यान ने देने पर उनके मन को भारी चोट लगी। 1975 में इन्दिरा गांधी द्वारा लगाये गये आपातकाल का समर्थन करते हुए उसे उन्होंने ‘अनुशासन पर्व’ कहा। इस कारण उन्हें पूरे देश में आलोचना सहनी पड़ी।

विनोबा जी ने जेल यात्रा के दौरान अनेक भाषाएँ सीखीं। उनके जीवन में सादगी तथा परोपकार की भावना कूट-कूटकर भरी थी। अल्पाहारी विनोबा वसुधैव कुटुम्बकम् के प्रबल समर्थक थे। सन्तुलित आहार एवं नियमित दिनचर्या के कारण वे आजीवन सक्रिय रहे। जब उन्हें लगा कि अब यह शरीर कार्ययोग्य नहीं रहा, तो उन्होंने ‘सन्थारा व्रत’ लेकर अन्न, जल और दवा त्याग दी।
15 नवम्बर, 1982 को सन्त विनोबा का देहान्त हुआ। अपने जीवनकाल में वे ‘भारत रत्न’ का सम्मान ठुकरा चुके थे। अतः 1983 में शासन ने उन्हें मरणोपरान्त ‘भारत रत्न’ से विभूषित किया।

सोमवार, 5 सितंबर 2016

पर्यावरण संरक्षण हेतु अनुपम बलिदान

प्रतिवर्ष पांच जून को हम ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ मनाते हैं; लेकिन यह दिन हमारे मन में सच्ची प्रेरणा नहीं जगा पाता। क्योंकि इसके साथ इतिहास की कोई प्रेरक घटना नहीं जुड़ी। इस दिन कुछ जुलूस, धरने, प्रदर्शन, भाषण तो होते हैं; पर उससे सामान्य लोगों के मन पर कोई असर नहीं होता। दूसरी ओर भारत के इतिहास में पाँच सितम्बर, 1730 को एक ऐसी घटना घटी है, जिसकी विश्व में कोई तुलना नहीं की जा सकती।

राजस्थान तथा भारत के अनेक अन्य क्षेत्रों में बिश्नोई समुदाय के लोग रहते हैं। उनके गुरु जम्भेश्वर जी ने अपने अनुयायियों को हरे पेड़ न काटने, पशु-पक्षियों को न मारने तथा जल गन्दा न करने जैसे 29 नियम दिये थे। इन 20 + 9 नियमों के कारण उनके शिष्य बिश्नोई कहलाते हैं। 

पर्यावरण प्रेमी होने के कारण इनके गाँवों में पशु-पक्षी निर्भयता से विचरण करते हैं। 1730 में इन पर्यावरण-प्रेमियों के सम्मुख परीक्षा की वह महत्वपूर्ण घड़ी आयी थी, जिसमें उत्तीर्ण होकर इन्होंने विश्व-इतिहास में स्वयं को अमर कर लिया।

1730 ई. में जोधपुर नरेश अजय सिंह को अपने महल में निर्माण कार्य के लिए चूना और उसे पकाने के लिए ईंधन की आवश्यकता पड़ी। उनके आदेश पर सैनिकों के साथ सैकड़ों लकड़हारे निकटवर्ती गाँव खेजड़ली में शमी वृक्षों को काटने चल दिये। 

जैसे ही यह समाचार उस क्षेत्र में रहने वाले बिश्नोइयों को मिला, वे इसका विरोध करने लगेे। जब सैनिक नहीं माने, तो एक साहसी महिला ‘इमरती देवी’ (अम्रता देवी ) के नेतृत्व में सैकड़ों ग्रामवासी; जिनमें बच्चे और बड़े, स्त्री और पुरुष सब शामिल थे; पेड़ों से लिपट गये। उन्होंने सैनिकों को बता दिया कि उनकी देह के कटने के बाद ही कोई हरा पेड़ कट पायेगा।

सैनिकों पर भला इन बातों का क्या असर होना था ? वे  राजज्ञा से बँधे थे, तो ग्रामवासी धर्माज्ञा से। अतः वृक्षों के साथ ही ग्रामवासियों के अंग भी कटकर धरती पर गिरने लगे। सबसे पहले वीरांगना ‘इमरती देवी’ पर ही कुल्हाड़ियों के निर्मम प्रहार हुए और वह वृक्ष-रक्षा के लिए प्राण देने वाली विश्व की पहली महिला बन गयी। 

इस बलिदान से उत्साहित ग्रामवासी पूरी ताकत से पेड़ों से चिपक गये। 20वीं शती में गढ़वाल (उत्तराखंड) में गौरा देवी, चण्डीप्रसाद भट्ट तथा सुन्दरलाल बहुगुणा ने वृक्षों के संरक्षण के लिए ‘चिपको आन्दोलन’ चलाया, उसकी प्रेरणास्रोत इमरती देवी ही थीं।

भाद्रपद शुक्ल 10 (5 सितम्बर, 1730) को प्रारम्भ हुआ यह बलिदान-पर्व 27 दिन तक चलता रहा। इस दौरान 363 लोगों ने बलिदान दिया। इनमें इमरती देवी की तीनों पुत्रियों सहित 69 महिलाएँ भी थीं। अन्ततः राजा ने स्वयं आकर क्षमा माँगी और हरे पेड़ों को काटने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। ग्रामवासियों को उससे कोई बैर तो था नहीं, उन्होंने राजा को क्षमा कर दिया।

उस ऐतिहासिक घटना की याद में आज भी वहाँ ‘भाद्रपद शुक्ल 10’ को बड़ा मेला लगता है। राजस्थान शासन ने वन, वन्य जीव तथा पर्यावरण-रक्षा हेतु ‘अमृता देवी बिश्नोई स्मृति पुरस्कार’ तथा केन्द्र शासन ने ‘अमृता देवी बिश्नोई पुरस्कार’ देना प्रारम्भ किया है। यह बलिदान विश्व इतिहास की अनुपम घटना है। इसलिए यही तिथि (भाद्रपद शुक्ल 10 या पाँच सितम्बर) वास्तविक ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ होने योग्य है।

रविवार, 4 सितंबर 2016

दादा भाई नौरोजी


दादा भाई नौरोजी का जन्म चार सितम्बर, 1825 को मुम्बई के एक पारसी परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री नौरोजी पालनजी दोर्दी तथा माता श्रीमती मानिकबाई थीं। जब वे छोटे ही थे, तो उनके पिता का देहान्त हो गया; पर उनकी माता ने बड़े धैर्य से उनकी देखभाल की। यद्यपि वे शिक्षित नहीं थीं; पर उनके दिये गये संस्कारों ने दादा भाई के जीवन पर अमिट छाप छोड़ी।

पिता के देहान्त के बाद घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ने से इन्हें
पढ़ने में कठिनाई आ गयी। ऐसे में उनके अध्यापक श्री मेहता ने सहारा दिया। वे सम्पन्न छात्रों की पुस्तकें लाकर इन्हें देते थे। निर्धन छात्रों की इस कठिनाई को समझने के कारण आगे चलकर दादाभाई निःशुल्क शिक्षा के बड़े समर्थक बने।

11 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह हो गया। इनकी योग्यता देखकर मुम्बई उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सर एर्सकिनपेरी ने इन्हें इंग्लैण्ड जाकर बैरिस्टर बनने को प्रेरित किया; पर कुछ समय पूर्व ही बैरिस्टर बनने के लिए इंग्लैण्ड गये दो पारसी युवकों की मजबूरी का लाभ उठाकर उन्हें ईसाई बना लिया गया था। इस कारण इनके परिवारजनों ने इन्हें वहाँ नहीं भेजा।

आगे चलकर जब ये व्यापार के लिए इंग्लैण्ड गये, तो इन्होंने वहाँ भारतीय छात्रों के भोजन और आवास का उचित प्रबन्ध किया, जिससे किसी को मजबूरी में ईसाई न बनना पड़े। गान्धी जी की इंग्लैण्ड में शिक्षा पूर्ण कराने में दादाभाई का बहुत योगदान था। दादा भाई व्यापार में ईमानदारी के पक्षधर थे। इससे उनके अपनी फर्म के साथ मतभेद उत्पन्न हो गये। अतः वे अपनी निजी फर्म बनाकर व्यापार करने लगे।

अमरीकी गृहयुद्ध के दौरान इन्हें व्यापार में बहुत लाभ हुआ; पर गृहयुद्ध समाप्त होते ही एकदम से बहुत घाटा भी हो गया। बैंकों का भारी कर्ज होने पर दादाभाई ने अपने खाते सार्वजनिक निरीक्षण के लिए खोल दिये। यह पारदर्शिता देखकर बैंकों तथा उनके कर्जदाताओं ने कर्ज माफ कर दिया। कुछ ही समय में उनकी प्रतिष्ठा भारत की तरह इंग्लैण्ड में भी सर्वत्र फैल गयी।

दादाभाई का मत था कि अंग्रेजी शासन को समझाकर ही हम अधिकाधिक लाभ उठा सकते हैं। अतः वे समाचार पत्रों में लेख तथा तर्कपूर्ण ज्ञापनों से शासकों का ध्यान भारतीय समस्याओं की ओर दिलाते रहते थे। जब एक अंग्रेज अधिकारी ए.ओ.ह्यूम ने 27 दिसम्बर, 1885 को मुम्बई में कांग्रेस की स्थापना की, तो दादाभाई ने उसमें बहुत सहयोग दिया। अगले साल कोलकाता में हुए दूसरे अधिवेशन में वे कांग्रेस के अध्यक्ष बनाये गये।

दादाभाई नौरोजी की इंग्लैण्ड में लोकप्रियता को देखकर उन्हें कुछ लोगों ने इंग्लैण्ड की संसद के लिए चुनाव लड़ने को प्रेरित किया। शुभचिन्तकों की बात मानकर वे पहली बार चुनाव हारे; पर दूसरे प्रयास में विजयी हुए। इस प्रकार वे भारत तथा इंग्लैण्ड के बीच सेतु बन गये। उन्होंने ब्रिटिश संसद में भारत से सम्बन्धित अनेक विषय उठाये तथा शासन की गलत नीतियों को बदलवाया। ब्रिटिश शासन के अन्य उपनिवेशों में रहने वाले भारतीयों के अधिकारों के लिए भी उन्होंने संघर्ष किया। उन्हें रेल की उच्च श्रेणी में यात्रा तथा अंग्रेजों की तरह अच्छे मकानों में रहने की सुविधा दिलायी।

91 वर्ष के सक्रिय जीवन के बाद 20 अगस्त, 1917 को दादाभाई नौरोजी ने आँखें मूँद लीं। पारसी परम्पराओं के अनुसार उनके पार्थिव शरीर को ‘शान्ति मीनार’ पर विसर्जित कर दिया गया।

शनिवार, 3 सितंबर 2016

ईसाई षड्यन्त्रों के अध्येता कृष्णराव सप्रे

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजना से कई प्रचारक शाखा कार्य के अतिरिक्त समाज जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी काम करते हैं। ऐसा ही एक क्षेत्र वनवासियों का भी है। ईसाई मिशनरियां उन्हें आदिवासी कहकर शेष हिन्दू समाज से अलग कर देती हैं। उनके षड्यन्त्रों से कई क्षेत्रों में अलगाववादी आंदोलन भी खड़े हुए हैं। शासन का ध्यान स्वाधीनता प्राप्ति के बाद इस ओर गया। 

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल को एक बार भ्रमण के दौरान जब वनवासी ईसाइयों ने काले झंडे दिखाये, तो उन्होंने मिशनरियों के षड्यन्त्रों की गहन जानकारी करने के लिए न्यायमूर्ति श्री भवानीशंकर नियोगी के नेतृत्व में ‘नियोगी आयोग’ का गठन किया। संघ ने भी उनका सहयोग करने के लिए कुछ कार्यकर्ता लगाये। इनमें से ही एक थे श्री कृष्णराव दामोदर सप्रे।

कृष्णराव सप्रे का जन्म म.प्र. की संस्कारधानी जबलपुर में चार सितम्बर, 1931 को हुआ था। उनका परिवार मूलतः महाराष्ट्र का निवासी था। छात्र जीवन से ही किसी भी विषय में गहन अध्ययन उनके स्वभाव में था। संघप्रेमी परिवार होने के कारण पिताजी संघ में, तो माताजी ‘राष्ट्र सेविका समिति’ में सक्रिय रहती थीं। इस कारण कृष्णराव और शेष तीनों भाई भी स्वयंसेवक बने। उनमें से एक डा. प्रसन्न दामोदर सप्रे प्रचारक के नाते आज भी ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ में सक्रिय हैं, जबकि डा. सदानंद सप्रे प्राध्यापक रहते हुए तथा अब अवकाश प्राप्ति के बाद पूरी तरह संघ के ही काम में लगे हैं।

जिन दिनों कृष्णराव ने शाखा जाना प्रारम्भ किया, उन दिनों युवाओं में कम्युनिस्ट विचार बहुत प्रभावी था। उसे पराजित करने के लिए कृष्णराव और उनके मित्रों ने गहन अध्ययन किया। इस प्रकार श्रेष्ठ विचारकों की एक टोली बन गयी। पांचवें सरसंघचालक श्री सुदर्शन जी भी उसके एक सदस्य थे।

अपनी शिक्षा पूर्ण कर कृष्णराव प्रचारक बन गये। उन्हें शाखा कार्य के लिए पहले रायगढ़ और फिर छिंदवाड़ा विभाग का काम दिया गया। इसके बाद ‘नियोगी आयोग’ को सहयोग देने के लिए श्री बालासाहब देशपांडे के साथ उन्हें भी लगाया गया। उनकी अध्ययनशीलता और अथक प्रयास से वनवासियों ने ईसाई मिशनरियों के षड्यन्त्र के विरुद्ध सैकड़ों शपथपत्र भर कर दिये, जिससे ‘नियोगी आयोग’ इस पूरे विषय को समझकर ठीक निष्कर्ष निकाल सका। 

भारत में ईसाई मिशनरियों का सर्वाधिक प्रभाव पूर्वोत्तर भारत में है। इस आयोग के साथ काम करते हुए कृष्णराव को जो अनुभव प्राप्त हुए, उसके आधार पर उन्हें पूर्वोत्तर में काम करने को भेजा गया। वहां के जनजातीय समाज में मिशनरियों द्वारा धर्मान्तरण का खेल बहुत तेजी से खेला जा रहा था। कृष्णराव ने ‘भारतीय जनजातीय सांस्कृतिक मंच’ की स्थापना कर वहां अनेक गतिविधियां प्रारम्भ कीं। इससे हिन्दू समाज की मुख्यधारा से दूर हो चुके लोग फिर पास आने लगे। अतः धर्मान्तरण रुका और परावर्तन प्रारम्भ हुआ। 

जनता और कार्यकर्ताओं को जागरूक करने के लिए इस बारे में उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के संस्थापक श्री बालासाहब देशपांडे के प्रति उनके मन में बहुत श्रद्धा थी। उनके जीवन पर उन्होंने ‘वनयोगी श्री बालासाहब देशपांडे की जीवन झांकी’ नामक पुस्तक भी लिखी। 

वनवासी क्षेत्र में भाषा और भोजन की कठिनाई के साथ ही बीहड़ों में यातायात के साधन भी नहीं है। इसके बाद भी कृष्णराव सदा हंसते हुए काम करते रहे। वृद्धावस्था में शरीर अशक्त होने पर वे जबलपुर ही आ गये। वहां संघ कार्यालय पर कल्याण आश्रम के एक कार्यकर्ता शिवव्रत मोहंती ने पुत्रवत उनकी सेवा की। 27 जनवरी, 1999 को वहां पर ही उनका निधन हुआ। उनकी स्मृति में छिंदवाड़ा में प्रतिवर्ष व्याख्यानमाला का आयोजन किया जाता है।  

(संदर्भ: पांचजन्य/धर्मनारायण जी)

शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

बाल बलिदानी कुमारी मैना

1857 के स्वाधीनता संग्राम में प्रारम्भ में तो भारतीय पक्ष की जीत हुई; पर फिर अंग्रेजों का पलड़ा भारी होने लगा। भारतीय सेनानियों का नेतृत्व नाना साहब पेशवा कर रहे थे। उन्होंने अपने सहयोगियों के आग्रह पर बिठूर का महल छोड़ने का निर्णय कर लिया। उनकी योजना थी कि किसी सुरक्षित स्थान पर जाकर फिर से सेना एकत्र करें और अंग्रेजों ने नये सिरे से मोर्चा लें।

मैना नानासाहब की दत्तक पुत्री थी। वह उस समय केवल 13 वर्ष की थी। नानासाहब बड़े असमंजस में थे कि उसका क्या करें ? नये स्थान पर पहुंचने में न जाने कितने दिन लगें और मार्ग में न जाने कैसी कठिनाइयां आयें। अतः उसे साथ रखना खतरे से खाली नहीं था; पर महल में छोड़ना भी कठिन था। ऐसे में मैना ने स्वयं महल में रुकने की इच्छा प्रकट की।

नानासाहब ने उसे समझाया कि अंग्रेज अपने बन्दियों से बहुत दुष्टता का व्यवहार करते हैं। फिर मैना तो एक कन्या थी। अतः उसके साथ दुराचार भी हो सकता था; पर मैना साहसी लड़की थी। उसने अस्त्र-शस्त्र चलाना भी सीखा था। उसने कहा कि मैं क्रांतिकारी की पुत्री होने के साथ ही एक हिन्दू ललना भी हूं। मुझे अपने शरीर और नारी धर्म की रक्षा करना आता है। अतः नानासाहब ने विवश होकर कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ उसे वहीं छोड़ दिया।

पर कुछ दिन बाद ही अंग्रेज सेनापति हे ने गुप्तचरों से सूचना पाकर महल को घेर लिया और तोपों से गोले दागने लगा। इस पर मैना बाहर आ गयी। सेनापति हे नाना साहब के दरबार में प्रायः आता था। अतः उसकी बेटी मेरी से मैना की अच्छी मित्रता हो गयी थी। मैना ने यह संदर्भ देकर उसे महल गिराने से रोका; पर जनरल आउटरम के आदेश के कारण सेनापति हे विवश था। अतः उसने मैना को गिरफ्तार करने का आदेश दिया।

पर मैना को महल के सब गुप्त रास्ते और तहखानों की जानकारी थी। जैसे ही सैनिक उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़े, वह वहां से गायब हो गयी। सेनापति के आदेश पर फिर से तोपें आग उगलने लगीं और कुछ ही घंटों में वह महल ध्वस्त हो गया। सेनापति ने सोचा कि मैना भी उस महल में दब कर मर गयी होगी। अतः वह वापस अपने निवास पर लौट आया।

पर मैना जीवित थी। रात में वह अपने गुप्त ठिकाने से बाहर आकर यह विचार करने लगी कि उसे अब क्या करना चाहिए ? उसे मालूम नहीं था कि महल ध्वस्त होने के बाद भी कुछ सैनिक वहां तैनात हैं। ऐसे दो सैनिकों ने उसे पकड़ कर जनरल आउटरम के सामने प्रस्तुत कर दिया।

नानासाहब पर एक लाख रु. का पुरस्कार घोषित था। जनरल आउटरम उन्हें पकड़ कर आंदोलन को पूरी तरह कुचलना तथा ब्रिटेन में बैठे शासकों से बड़ा पुरस्कार पाना चाहता था। उसने सोचा कि मैना छोटी सी बच्ची है। अतः पहले उसे प्यार से समझाया गया; पर मैना चुप रही। यह देखकर उसे जिन्दा जला देने की धमकी दी गयी; पर मैना इससे भी विचलित नहीं हुई।

अंततः आउटरम ने उसे पेड़ से बांधकर जलाने का आदेश दे दिया। निर्दयी सैनिकों ने ऐसा ही किया। तीन सितम्बर, 1857 की रात में 13 वर्षीय मैना चुपचाप आग में जल गयी। इस प्रकार उसने देश के लिए बलिदान होने वाले बच्चों की सूची में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवा लिया।

मंगलवार, 30 अगस्त 2016

देशद्रोही का वध

स्वाधीनता प्राप्ति के प्रयत्न में लगे क्रांतिकारियों को जहां एक ओर अंग्रेजों से लड़ना पड़ता था, वहां कभी-कभी उन्हें देशद्रोही भारतीय, यहां तक कि अपने गद्दार साथियों को भी दंड देना पड़ता था।

बंगाल के प्रसिद्ध अलीपुर बम कांड में कन्हाईलाल दत्त,  सत्येन्द्रनाथ बोस तथा नरेन्द्र गोस्वामी गिरफ्तार हुए थे। अन्य भी कई लोग इस कांड में शामिल थे, जो फरार हो गयेे। पुलिस ने इन तीन में से एक नरेन्द्र को मुखबिर बना लिया। उसने कई साथियों के पते-ठिकाने बता दिये। इस चक्कर में कई निरपराध लोग भी पकड़ लिये गये। अतः कन्हाई और सत्येन्द्र ने उसे सजा देने का निश्चय किया और एक पिस्तौल जेल में मंगवा ली।

सुरक्षा की दृष्टि से पुलिस ने नरेन्द्र गोस्वामी को जेल में सामान्य वार्ड की बजाय एक सुविधाजनक यूरोपीय वार्ड में रख दिया था। एक दिन कन्हाई बीमारी का बहाना बनाकर अस्पताल पहुंच गया। कुछ दिन बाद सत्येन्द्र भी पेट दर्द के नाम पर वहां आ गया। अस्पताल उस यूरोपीय वार्ड के पास था, जहां नरेन्द्र रह रहा था। एक-दो दिन बाद सत्येन्द्र ने ऐसा प्रदर्शित किया, मानो वह इस जीवन से तंग आकर मुखबिर बनना चाहता है। उसने नरेन्द्र से मिलने की इच्छा भी व्यक्त की। यह सुनकर नरेन्द्र को बहुत प्रसन्नता हुई।

31 अगस्त, 1908 को नरेन्द्र जेल के एक अधिकारी हिंगिस के साथ उससे मिलने अस्पताल चला गया। सत्येन्द्र अस्पताल की पहली मंजिल पर उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। वहां कन्हाई को देखकर एक बार नरेन्द्र को शक हुआ; पर फिर वह सत्येन्द्र के संकेत पर हिंगिस को पीछे छोड़कर उनसे एकांत वार्ता करने के लिए कमरे से बाहर बरामदे में आ गया।

कन्हाई और सत्येन्द्र तो इस अवसर की प्रतीक्षा में ही थे। मौका देखकर कन्हाई ने नरेन्द्र गोस्वामी पर गोली दाग दी। वह चिल्लाते हुए नीचे की ओर भागा। इस पर सत्येन्द्र ने उसे पकड़ लिया। गोली की आवाज सुनकर हिंगिस और एक अन्य जेल अधिकारी लिंटन आ गये। लिंटन ने सत्येन्द्र को गिराकर कन्हाई को जकड़ लिया। इस पर कन्हाई ने पिस्तौल की नाल उसके सिर में दे मारी। इस हाथापाई में कई गोलियां व्यर्थ हो गयीं। अब केवल एक गोली शेष थी। कन्हाई ने झटके से स्वयं को छुड़ाकर बची हुई गोली नरेन्द्र पर दाग दी। इस बार निशाना ठीक लगा और देशद्रोही धरती पर लुढ़क गया।

दोनों ने अपना उद्देश्य पूरा होने पर समर्पण कर दिया। मुकदमे में कन्हाई ने अपना अपराध स्वीकार कर किसी वकील की सहायता लेने से मना कर दिया। अतः उसे फांसी की सजा सुनाई गयी। न्यायालय ने सत्येन्द्र को फांसी योग्य अपराधी नहीं माना। शासन ने इसकी अपील ऊपर के न्यायालय में की। वहां से सत्येन्द्र के लिए भी फांसी की सजा घोषित कर दी गयी।

अलीपुर केन्द्रीय कारागार में 10 नवम्बर, 1908 को कन्हाई को फांसी दी गयी। वह इतना मस्त था कि फांसी वाले दिन तक उसका भार 16 पौंड बढ़ गया। फांसी वाली रात वह इतनी गहरी नींद में सोया कि उसे आवाज देकर जगाना पड़ा। उसके शव की विशाल शोभायात्रा निकालकर चंदन के ढेर पर उसका दाह संस्कार किया गया। अंत्यक्रिया पूरी होने तक हजारों लोग वहां डटे रहे। चिता शांत होने पर लोगों ने भस्म से तिलक किया। सैकड़ों लोगों ने भस्म के ताबीज बच्चों के हाथ पर बांधे। हजारों ने उसे पूजागृह में रख लिया।

21 नवम्बर, 1908 को सत्येन्द्र को भी फांसी दे दी गयी। कन्हाई की शवयात्रा से घबराये शासन ने उसका शव परिवार वालों को न देकर जेल में ही उसका दाह संस्कार कर दिया। !!!

सोमवार, 29 अगस्त 2016

सुख़ कहाँ रहता है

चाँदपुर इलाके के राजा कुँवरसिंह जी बड़े अमीर थे। उन्हें किसी चीज़ की कमी नहीं थी, फिर भी उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं था। बीमारी के मारे वे सदा परेशान रहते थे। कई वैद्यों ने उनका इलाज किया, लेकिन उनको कुछ फ़ायदा नहीं हुआ।

राजा की बीमारी बढ़ती गई। सारे नगर में यह बात फैल गई। तब एक बूढ़े ने राजा के पास आकर कहा, ''महाराज, आपकी बीमारी का इलाज करने की मुझे आज्ञा दीजिए।'' राजा से अनुमति पाकर वह बोला, ''आप किसी सुखी मनुष्य का कुरता पहनिए, अवश्य स्वस्थ हो जाएँगे।''

बूढ़े की बात सुनकर सभी दरबारी हँसने लगे, लेकिन राजा ने सोचा, ''इतने इलाज किए हैं तो एक और सही।'' राजा के सेवकों ने सुखी मनुष्य की बहुत खोज की, लेकिन उन्हें कोई पूर्ण सुखी मनुष्य नहीं मिला। सभी लोगों को किसी न किसी बात का दुख था।

अब राजा स्वयं सुखी मनुष्य की खोज में निकल पड़े। बहुत तलाश के बाद वे एक खेत में जा पहुँचे। जेठ की धूप में एक किसान अपने काम में लगा हुआ था। राजा ने उससे पूछा, ''क्यों जी, तुमसुखी हो?'' किसान की आँखें चमक उठी, चेहरा मुस्करा उठा। वह बोला, ''ईश्वर की कृपा से मुझे कोई दुख नहीं है।'' यह सुनकर राजा का अंग-अंग मुस्करा उठा। उस किसान का कुरता माँगने के लिए ज्यों ही उन्होंने उसके शरीर की ओर देखा, उन्हें मालूम हुआ कि किसान सिर्फ़ धोती पहने हुए है और उसकी सारी देह पसीने से तर है।

राजा समझ गया कि श्रम करने के कारण ही यह किसान सच्चा सुखी है। उन्होंने आराम-चैन छोड़कर परिश्रम करने का संकल्प किया।
थोड़े ही दिनों में राजा की बीमारी दूर हो गई।

हॉकी के जादूगर "ध्यानचन्द"

मेजर ध्यानचंद


जब भारतीय हॉकी का पूरे विश्व में दबदबा था। उसका श्रेय जिन्हें जाता है, उन मेजर ध्यानचन्द का जन्म प्रयाग, उत्तर प्रदेश में 29 अगस्त, 1905 को हुआ था। उनके पिता सेना में सूबेदार थे। उन्होंने 16 साल की अवस्था में ध्यानचन्द को भी सेना में भर्ती करा दिया। वहाँ वे कुश्ती में बहुत रुचि लेते थे; पर सूबेदार मेजर बाले तिवारी ने उन्हें हॉकी के लिए प्रेरित किया। इसके बाद तो वे और हॉकी एक दूसरे के पर्याय बन गये।

वे कुछ दिन बाद ही अपनी रेजिमेण्ट की टीम में चुन लिये गये। उनका मूल नाम ध्यानसिंह था; पर वे प्रायः चाँदनी रात में अकेले घण्टों तक हॉकी का अभ्यास करते रहते थे। इससे उनके साथी तथा सेना के अधिकारी उन्हें ‘चाँद’ कहने लगे। फिर तो यह उनके नाम के साथ ऐसा जुड़ा कि वे ध्यानसिंह से ध्यानचन्द हो गये। आगे चलकर वे ‘दद्दा’ ध्यानचन्द कहलाने लगे।

चार साल तक ध्यानचन्द अपनी रेजिमेण्ट की टीम में रहे। 1926 में वे सेना एकादश और फिर राष्ट्रीय टीम में चुन लिये गये। इसी साल भारतीय टीम ने न्यूजीलैण्ड का दौरा किया। इस दौरे में पूरे विश्व ने उनकी अद्भुत प्रतिभा को देखा। गेंद उनके पास आने के बाद फिर किसी अन्य खिलाड़ी तक नहीं जा पाती थी। कई बार उनकी हॉकी की जाँच की गयी, कि उसमें गोंद तो नहीं लगी है। अनेक बार खेल के बीच में उनकी हॉकी बदली गयी; पर वे तो अभ्यास के धनी थे। वे उल्टी हॉकी से भी उसी कुशलता से खेल लेते थे। इसीलिए उन्हें लोग हॉकी का जादूगर’ कहते थे।

भारत ने सर्वप्रथम 1928 के एम्सटर्डम ओलम्पिक में भाग लिया। ध्यानचन्द भी इस दल में थे। इससे पूर्व इंग्लैण्ड ही हॉकी का स्वर्ण जीतता था; पर इस बार भारत से हारने के भय से उसने हॉकी प्रतियोगिता में भाग ही नहीं लिया। भारत ने इसमें स्वर्ण पदक जीता। 1936 के बर्लिन ओलम्पिक के समय उन्हें भारतीय दल का कप्तान बनाया गया। इसमें भी भारत ने स्वर्ण जीता। इसके बाद 1948 के ओलम्पिक में भारतीय दल ने कुल 29 गोल किये थे। इनमें से 15 अकेले ध्यानचन्द के ही थे। इन तीन ओलम्पिक में उन्होंने 12 मैचों में 38 गोल किये।

1936 के बर्लिन ओलम्पिक के तैयारी खेलों में जर्मनी ने भारत को 4-1 से हरा दिया था। फाइनल के समय फिर से दोनों टीमों की भिड़न्त हुई। प्रथम भाग में दोनों टीम 1-1 से बराबरी पर थीं। मध्यान्तर में ध्यानचन्द ने सब खिलाड़ियों को तिरंगा झण्डा दिखाकर प्रेरित किया। इससे सबमें जोश भर गया और उन्होंने धड़ाधड़ सात गोल कर डाले। इस प्रकार भारत 8-1 से विजयी हुआ। उस दिन 15 अगस्त था। कौन जानता था कि 11 साल बाद इसी दिन भारतीय तिरंगा पूरी शान से देश भर में फहरा उठेगा।

1926 से 1948 तक ध्यानचन्द दुनिया में जहाँ भी हॉकी खेलने गये, वहाँ दर्शक उनकी कलाइयों का चमत्कार देखने के लिए उमड़ आते थे। आस्ट्रिया की राजधानी वियना के एक स्टेडियम में उनकी प्रतिमा ही स्थापित कर दी गयी। 42 वर्ष की अवस्था में उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय हॉकी से संन्यास ले लिया। कुछ समय वे राष्ट्रीय खेल संस्थान में हॉकी के प्रशिक्षक भी रहे।

भारत के इस महान सपूत को शासन ने 1956 में ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया। 3 दिसम्बर, 1979 को उनका देहान्त हुआ। उनका जन्मदिवस 29 अगस्त भारत में ‘खेल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

शनिवार, 27 अगस्त 2016

असली सुंदरता और हमारी मृगतृष्णा क्या है

एक बार अष्टावक्र जब राजा जनक के दरबार में पहुंचे, तब उन्हें देखते ही सभा में मौजूद सारे राजाओं, विद्वानों और महापंडितों आदि ने हंसना शुरू कर दिया। अपने ऊपर हंसने वालों पर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ और दुख भी। सभा के लोगों के इस व्यवहार से खिन्न अष्टावक्र ने तब राजा जनक से कहा कि महाराज जनक! मैंने सुना था कि आपके दरबार में पंडितों की सभा जारी है। इसलिए यहां आ गया, लेकिन यहां तो मूर्खो की सभा लगी हुई है। फिर समझ में नहीं आ रहा है कि इनके बीच सत्य की चर्चा कैसे हो रही है? 

अष्टावक्र की इस बात से यह स्पष्ट होता है कि जो लोग शरीर को देखते हैं, वे सिवाय शारीरिक सुंदरता के कुछ और देख ही नहीं पाते हैं। वे तो सिर्फ कपड़ों को देखते हैं, बाहरी अलंकारों को देखते हैं, लेकिन जो व्यक्ति मन के अलंकार को देखता है वही सत्य देख पाता है। वही मन की सुंदरता और हमारे चरित्र को भी देख पाता है। इससे यह साबित होता है कि सुंदरता तन की नहीं, बल्कि मन की होनी चाहिए।

अंग्रेजी साहित्य में बायरन नामक एक कवि हुए। उन्हें जहां कहीं भी सुंदर नारी दिखती, वह उसे बड़े लोलुप निगाहों से घूरने लगते थे। एक बार वह बहुत दिनों से किसी सुंदर लड़की का पीछा कर रहे थे। रोज-रोज की परेशानियों से तंग आकर और इन परेशानियों से निजात पाने के लिए आखिरकार वह बायरन से शादी करने के लिए तैयार हो गई। शादी के पूर्व उसने बायरन के समक्ष एक शर्त रखी कि तुम इन हरकतों की पुनरावृत्ति नहीं करोगे। 

शादी करके जब वह चर्च की सीढ़ियां उतर रहे थे, तभी एक दूसरी सुंदर लड़की चर्च के अंदर जा रही थी। बायरन अपनी नई-नवेली पत्नी का हाथ छोड़कर तुरंत उस लड़की की ओर मुखातिब हो गए। अचानक घटी इस घटना से उनकी पत्नी हैरान रह गई।उसने खुद को संभालते हुए पति को दी गई शपथ की याद दिलाई। 

तब बायरन ने जवाब दिया-देखो, प्रियतम! मनुष्य का मन बहुत ही चंचल होता है, उसे जो नहीं मिला रहता है, उसके लिए उसे बड़ी आशा लगी रहती है। यह तो मनुष्य का गुण है कि उसे जो चीज मिल जाए उसकी ओर से वह निश्चिंत हो जाता है और उसका मन अब तक नहीं मिली हुई वस्तुओं की ओर दौड़ने लगता है। हमें जो वस्तु मिल जाती है, हम उस पर संतोष नहीं करते, लेकिन जो वस्तुएं हमारी पहुंच से दूर होती हैं, उनकी ओर हम व्यग्र हो जाते हैं। यही दौड़ हमारे जीवन की मृगतष्णा है।

शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

Scientific reasons behind vedic stories

रात्रि के अंतिम प्रहर में एक बुझी हुई चिता की भस्म पर
अघोरी ने जैसे ही आसन लगाया, एक प्रेत ने उसकी गर्दन जकड़
ली और बोला- मैं जीवन भर विज्ञान का छात्र रहा और
जीवन के उत्तरार्ध में तुम्हारे पुराणों की विचित्र कथाएं
पढ़कर भ्रमित होता रहा। यदि तुम मुझे पौराणिक कथाओं
की सार्थकता नहीं समझा सके तो मैं तुम्हे भी इसी भस्म में
मिला दूंगा।
अघोरी बोला- एक कथा सुनो, रैवतक राजा की पुत्री का
नाम रेवती था। वह सामान्य कद के पुरुषों से बहुत लंबी थी,
राजा उसके विवाह योग्य वर खोजकर थक गये और चिंतित रहने
लगे। थक-हारकर वो योगबल के द्वारा पुत्री को लेकर
ब्रह्मलोक गए। राजा जब वहां पहुंचे तब गन्धर्वों का गायन
समारोह चल रहा था, राजा ने गायन समाप्त होने की
प्रतीक्षा की।
गायन समाप्ति के उपरांत ब्रह्मदेव ने राजा को देखा और
पूछा- कहो, कैसे आना हुआ?
राजा ने कहा- मेरी पुत्री के लिए किसी वर को आपने
बनाया अथवा नहीं?
ब्रह्मा जोर से हंसे और बोले- जब तुम आये तबतक तो नहीं, पर
जिस कालावधि में तुमने यहाँ गन्धर्वगान सुना उतनी ही
अवधि में पृथ्वी पर २७ चतुर्युग बीत चुके हैं और २८ वां द्वापर
समाप्त होने वाला है, अब तुम वहां जाओ और कृष्ण के बड़े
भाई बलराम से इसका विवाह कर दो, अच्छा हुआ की तुम
रेवती को अपने साथ लाए जिससे इसकी आयु नहीं बढ़ी।
इस कथा का वैज्ञानिक संदर्भ समझो- आर्थर सी क्लार्क ने
आइंस्टीन की थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी की व्याख्या में एक
पुस्तक लिखी है- मैन एंड स्पेस, उसमे गणना है की यदि 10 वर्ष
का बालक यदि प्रकाश की गति वाले यान में बैठकर
एंड्रोमेडा गैलेक्सी का एक चक्कर लगाये तो वापस आनेपर
उसकी आयु ६६ वर्ष की होगी पर धरती पर 40 लाख वर्ष बीत
चुके होंगे। यह आइंस्टीन की time dilation theory ही तो
है जिसके लिए जॉर्ज गैमो ने एक मजाकिया कविता लिखी
थी-
There was a young girl named Miss Bright,
Who could travel much faster than light
She departed one day in an Einstein way
And came back previous night
प्रेत यह सुनकर चकित था, बोला- यह कथा नहीं है, यह तो
पौराणिक विज्ञान है, हमारी सभ्यता इतनी अद्भुत रही है,
अविश्वसनीय है। तभी तो आइंस्टीन पुराणों को अपनी
प्रेरणा कहते थे। मैं अब सभी शवों और प्रेतों को यह
विज्ञानकथा बताऊंगा ताकि वो राष्ट्रीय शरीर धारण कर
सकें। अनेक वामपंथी प्रेत यह कहते फिरते हैं कि यदि इतना ही
उन्नत था हमारा प्राचीन, तो प्रमाण क्या है? अब उनको
देता हूँ यह प्रमाण।
अघोरी मुस्कुराता रहा और प्रेत वायु में विलीन हो गया।
हम विश्व की सबसे उन्नत संस्कृति हैं यह विश्वास मत खोना।
भारत माता की जय...

उत्कृष्टता के पुजारी "अजीत कुमार" जी

कुछ लोग बनी-बनायी लीक पर चलना पसंद करते हैं, जबकि कुछ अपनी कल्पनाशीलता से काम में नये आयाम भी जोड़ते हैं। संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री अजीत जी दूसरी श्रेणी के कार्यकर्ता थे। उनका जन्म 27 अगस्त, 1934 को कर्नाटक के जिला गुडीवंडेयवर में कोलार नामक स्थान पर हुआ था। श्रीमती पुट्टताईम्म तथा वरिष्ठ सरकारी अधिकारी श्री ब्रह्मसुरय्य की आठ संतानों में से केवल तीन जीवित रहे। इनमें अजीत जी भी थे।

प्राथमिक शिक्षा ननिहाल में पूरी कर वे पिताजी के साथ बंगलौर आ गये। यहां उनका संघ से सम्पर्क हुआ। कर्नाटक प्रांत प्रचारक श्री यादवराव जोशी से वे बहुत प्रभावित थे। अभियन्ता की शिक्षा प्राप्त करते समय वे 'अ.भा.विद्यार्थी परिषद' में भी सक्रिय रहे। अपनी कक्षा में सदा प्रथम श्रेणी पाने वाले अजीत जी ने इलैक्ट्रिक एवं मैकेनिकल इंजीनियर की डिग्री स्वर्ण पदक सहित प्राप्त की। उनकी रुचि खेलने, परिश्रम करने तथा साहसिक कार्यों में थी। नानी के घर में कुएं से 100 बाल्टी पानी वे अकेले निकाल देते थे। एक शिविर में उन्होंने 1,752 दंड-बैठक लगाकर पुरस्कार पाया था। 

1957 में शिवगंगा में आयोजित एक वन-विहार कार्यक्रम में उन्होंने प्रचारक बनने का निश्चय किया। उन्हें क्रमशः नगर,  महानगर, विभाग प्रचारक आदि जिम्मेदारियां मिलीं। संघ शिक्षा वर्ग में कई बार वे मुख्यशिक्षक रहे। वे हर काम उत्कृष्टता से करते थे। कपड़े धोने से लेकर सुखाने तक को वे एक कला मानते थे। गणवेश कैसा हो, इसके लिए लोग उनका उदाहरण देते थे। कार्यक्रम के बाद भी वे पेटी और जूते पॉलिश कर के ही रखते थे।

अजीत जी ने प्रख्यात योगाचार्य श्री पट्टाभि तथा श्री आयंगर से योगासन सीखे। फिर उन्होंने संघ शिक्षा वर्ग के लिए इसका पाठ्यक्रम बनाया। इसके बाद उन्होंने बंगलौर के डा.कृष्णमूर्ति से आरोग्य संबंधी कुछ आवश्यक सूत्र सीखकर उनका प्रयोग भी विभिन्न प्रशिक्षण वर्गों में किया। योग और शरीर विज्ञान के समन्वय का अभ्यास उन्होंने डा. नागेन्द्र के पास जाकर किया। अपने ये अनुभव उन्होंने ‘योग प्रवेश’ तथा ‘शरीर शिल्प’ नामक पुस्तक में छपवाये।

1975 में आपातकाल लगने पर वे भूमिगत होकर काम करते रहे; पर एक सत्याग्रह कार्यक्रम के समय वे पहचान लिये गये। पहले बंगलौर और फिर गुलबर्गा जेल में उन्हें रखा गया। वहां भी उन्होंने योग की कक्षाएं लगायीं।

अजीत जी की मान्यता थी कि समाज में अच्छे लोगों की संख्या बहुत अधिक है। अतः उन्होंने ‘हिन्दू सेवा प्रतिष्ठान’ संस्था के माध्यम से ऐसे सैकड़ों युवक व युवतियों को जोड़ा। उन्हें थोड़ा मानदेय एवं प्रशिक्षण देकर अनेक सेवा कार्यों में लगाया गया। संस्कृत संभाषण योजना के सूत्रधार भी अजीत जी ही थे। 1980 के दशक में उन्होंने ऐसी कई योजनाओं को साकार किया।

उनके मन में और भी अनेक योजनाएं थीं, जिनके बारे में वे चर्चा किया करते थे। उनका परिश्रम और काम के प्रति छटपटाहट देखकर लोग उन्हें saint in a hurry कहते थे। 1990 में वे कर्नाटक प्रान्त प्रचारक बनाये गये। दिसम्बर मास में बंगलौर में विश्व संघ शिविर होने वाला था। तीन दिसम्बर, 1990 को उसकी तैयारी के लिए अजीत जी के साथ नरेन्द्र जी, विजयेन्द्र नरहरि तथा गणेश नीर्कजे कार से कहीं जा रहे थे; पर नेलमंगल के पास एक ट्रक से हुई भीषण टक्कर में चारों कार्यकर्ता असमय काल-कवलित हो गये।

एक बार भैया जी दाणी के पूछने पर अजीत जी ने कहा था कि जब तक दम है, तब तक काम करूंगा। उन्होंने मर कर भी अपना यह संकल्प पूरा कर दिखाया।

गुरुवार, 25 अगस्त 2016

कृष्ण उठत, कृष्ण चलत, कृष्ण शाम-भोर है

कृष्ण उठत, कृष्ण चलत, कृष्ण शाम-भोर है।
कृष्ण बुद्धि,कृष्ण चित्त,कृष्ण मन विभोर है॥
कृष्ण रात्रि,कृष्ण दिवस,कृष्ण स्वप्न-शयन है।
कृष्ण काल,कृष्ण कला,कृष्ण मास-अयन है॥
कृष्ण शब्द, कृष्ण अर्थ, कृष्ण ही परमार्थ है।
कृष्ण कर्म, कृष्ण भाग्य, कृष्ण ही पुरुषार्थ है॥
कृष्ण स्नेह, कृष्ण राग, कृष्ण ही अनुराग है।
कृष्ण कली, कृष्ण कुसुम, कृष्ण ही पराग है॥
कृष्ण भोग, कृष्ण त्याग, कृष्ण तत्व-ज्ञान है।
कृष्ण भक्ति, कृष्ण प्रेम, कृष्ण ही विज्ञान है॥
कृष्ण स्वर्ग, कृष्ण मोक्ष, कृष्ण परम साध्य है।
कृष्ण जीव,कृष्ण ब्रह्म, कृष्ण ही आराध्य है !!

बुधवार, 24 अगस्त 2016

हिन्दुत्व के व्याख्याकार तनसुखराम गुप्त

हिन्दू और हिन्दुत्व के जागरण को पूर्णतः समर्पित प्रखर लेखक, पत्रकार व प्रकाशक श्री तनसुखराम गुप्त का जन्म 25 अगस्त, 1928 को हरियाणा में सोनीपत जिले के निवासी श्री ताराचंद एवं श्रीमती किशनदेई के घर में हुआ था। उनका बचपन पुरानी दिल्ली के कूचा नटवा की गलियों में बीता।

तनसुखराम जी 1939 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आये। शाखा जाने से उनके मन में देशभक्ति के संस्कार और प्रबल हो गये। 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में भाग लेने के कारण उन्हें विद्यालय से निकाल दिया गया; पर एक सहृदय अध्यापक के कहने से फिर प्रवेश मिल गया।

1943 में पिताजी के देहांत से परिवार के पालन का भार उनके सिर पर आ गया। अतः उन्होंने प्रथम श्रेणी में हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण कर नियमित पढ़ाई को विराम दे दिया और दिल्ली नगरपालिका में लिपिक बन गये। 1946 में विवाह के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी और स्कूल सामग्री तथा अन्य दैनिक उपयोगी वस्तुओं की दुकान खोल ली। कुछ समय बाद उन्होंने अपना पूरा ध्यान पुस्तक बिक्री और फिर पुस्तक प्रकाशन पर ही केन्द्रित कर लिया।

पुस्तक और प्रकाशन व्यवसाय में लगे व्यक्ति में साहित्य सृजन के प्रति प्रायः अनुराग होता ही है। अतः तनसुखराम जी ने कहानी लेखन के माध्यम से इस क्षेत्र में प्रवेश किया। 1946 में उनका पहला कहानी संग्रह ‘तीन कहानियां’ प्रकाशित हुआ। उनकी कहानियां मुख्यतः देश, धर्म और समाज के प्रति त्याग व समर्पण की प्रेरणा देती थीं। इसके बाद मेरा रंग दे बसंती चोला, नैतिक कथाएं तथा कई अन्य कहानी संग्रह भी प्रकाशित और लोकप्रिय हुए। 

तनसुखराम जी को पारिवारिक कारणों से नियमित पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी; पर उनकी पढ़ने की इच्छा बनी हुई थी। अतः निजी रूप से अध्ययन करते हुए उन्होंने संस्कृत की ‘विशारद’ और ‘प्रभाकर’ परीक्षाएं उत्तीर्ण कर लीं। अध्ययन और चिंतन-मनन का दायरा बढ़ने के कारण अब वे कहानी के साथ निबन्ध भी लिखने लगे और 361 निबन्धों की पुस्तक ‘निबन्ध सौरभ’ प्रकाशित की। 

जीवन की यात्रा में पग-पग पर ऐसे लोग मिलते हैं, जो किसी न किसी कारण से मन-मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ देते हैं। तनसुखराम जी ने ऐसे लोगों के साथ अपने संस्मरणों को तीन पुस्तकों में संकलित किया है। ये हैं - जीवन के कुछ क्षणों में, विस्तृति के भय से तथा संघर्ष के पथ पर। इसके साथ ही दीनदयाल उपाध्याय: महाप्रस्थान, लाल बहादुर शास्त्री: महाप्रयाण तथा रग-रग हिन्दू मेरा परिचय उनकी अन्य प्रसिद्ध पुस्तकें हैं।

तनसुखराम जी ने ‘श्रीरामचरितमानस’ का अध्ययन कर मानस मंथन, वैदेही विवाह तथा श्रीरामचरितमानस भाष्य नामक पुस्तकें लिखीं। इनमें मानस के धार्मिक व आध्यात्मिक पक्ष के साथ ही सामाजिक पक्ष के दर्शन भी होते हैं। उनकी एक अन्य उल्लेखनीय पुस्तक ‘हिन्दू धर्म परिचय’ है, जिसमें हिन्दू मान्यताओं और परम्पराओं की सरल और आधुनिक व्याख्या की गयी है।

तनसुखराम जी हिन्दी काव्य एवं साहित्य के क्षेत्र में वरिष्ठ कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ से बहुत प्रभावित थे। अतः उन्होंने अपने प्रकाशन का नाम ‘सूर्य प्रकाशन’ रखा। यहां से तीन खंडों में प्रकाशित ‘व्यावहारिक हिन्दी व्याकरण कोश’ हिन्दी के अध्येताओं के लिए एक अति उपयोगी ग्रन्थ है। 

प्रतिष्ठित प्रकाशन प्रायः नये लेखकों की पुस्तकें नहीं छापते; लेकिन तनसुखराम जी ने दर्जनों नये और युवा लेखकों की पुस्तकें छापकर उन्हें प्रतिष्ठा दिलाई। अपनी लेखनी और प्रकाशन द्वारा हिन्दुत्व की महान सेवा करने वाले श्री तनसुखराम गुप्त का 26 जनवरी, 2004 को दिल्ली में देहांत हुआ। 

मंगलवार, 23 अगस्त 2016

क्रांतिवीर राजगुरु

बलिदान को उत्सुक राजगुरु 


लोग धन, पद या प्रतिष्ठा प्राप्ति के लिए एक-दूसरे से होड़ करते हैं; पर क्रांतिवीर राजगुरु सदा इस होड़ में रहते थे कि किसी भी खतरनाक काम का मौका भगतसिंह से पहले उन्हें मिलना चाहिए।

श्री हरि नारायण और श्रीमती पार्वतीबाई के पुत्र शिवराम हरि राजगुरु का जन्म 24 अगस्त, 1908 को पुणे के पास खेड़ा (वर्तमान राजगुरु नगर) में हुआ था। उनके एक पूर्वज पंडित कचेश्वर को छत्रपति शिवाजी के प्रपौत्र साहू जी ने राजगुरु का पद दिया था। तब से इस परिवार में यह नाम लगने लगा।

छह वर्ष की अवस्था में राजगुरु के पिताजी का देहांत हो गया। पढ़ाई की बजाय खेलकूद में अधिक रुचि लेने से उनके भाई नाराज हो गये। इस पर राजगुरु ने घर छोड़ दिया और कई दिन इधर-उधर घूमते हुए काशी आकर संस्कृत पढ़ने लगे। भोजन और आवास के बदले उन्हें अपने अध्यापक के घरेलू काम करने पड़ते थे। एक दिन उस अध्यापक से भी झगड़ा हो गया और पढ़ाई छोड़कर वे एक प्राथमिक शाला में व्यायाम सिखाने लगे।

यहां उनका परिचय स्वदेश साप्ताहिक, गोरखपुर के सह सम्पादक मुनीश अवस्थी से हुआ। कुछ ही समय में वे क्रांतिकारी दलसामान्यतः  के विश्वस्त सदस्य बन गये। जब दल की ओर से दिल्ली में एक व्यक्ति को मारने का निश्चय हुआ, तो इस काम में राजगुरु को भी लगाया गया। राजगुरु इसके लिए इतने उतावले थे कि उन्होंने रात के अंधेरे में किसी और व्यक्ति को ही मार दिया।

राजगुरु मस्त स्वभाव के युवक थे। उन्हें सोने का बहुत शौक था। एक बार उन्हें एक अभियान के लिए कानपुर के छात्रावास में 15 दिन रुकना पड़ा। वे 15 दिन उन्होंने रजाई में सोकर ही गुजारे। राजगुरु को यह मलाल था कि भगतसिंह बहुत सुंदर है, जबकि उनका अपना रंग सांवला है। इसलिए वह हर सुंदर वस्तु से प्यार करते थे। यहां तक कि सांडर्स को मारने के बाद जब सब कमरे पर आये, तो राजगुरु ने सांडर्स की सुंदरता की प्रशंसा की।

भगतसिंह से आगे निकलने की होड़ में राजगुरु ने सबसे पहले सांडर्स पर गोली चलाई थी। लाहौर से निकलतेे समय सूटधारी अफसर बने भगतसिंह  के साथ हाथ में बक्सा और सिर पर होलडाल लेकर नौकर के वेष में राजगुरु ही चले थे। इसके बाद वे महाराष्ट्र आ गये। संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार ने अपने एक कार्यकर्ता के फार्म हाउस पर उनके रहने की व्यवस्था की। जब दिल्ली की असेम्बली में बम फंेकने का निश्चय हुआ, तो राजगुरु ने चंद्रशेखर आजाद से आग्रह किया कि भगतसिंह के साथ उसे भेजा जाए; पर उन्हें इसकी अनुमति नहीं मिली। इससे वे वापस पुणे आ गये।

राजगुरु स्वभाव से कुछ वाचाल थे। पुणे में उन्होंने कई लोगों से सांडर्स वध की चर्चा कर दी। उनके पास कुछ शस्त्र भी थे। क्रांति समर्थक एक सम्पादक की शवयात्रा में उन्होंने उत्साह में आकर कुछ नारे भी लगा दिये। इससे वे गुप्तचरों की निगाह में आ गये। पुणे में उन्होंने एक अंग्रेज अधिकारी को मारने का प्रयास किया; पर दूरी के कारण सफलता नहीं मिली।

इसके अगले ही दिन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तथा सांडर्स वध का मुकदमा चलाकर मृत्यु दंड घोषित किया गया। 23 मार्च, 1931 को भगतसिंह और सुखदेव के साथ वे भी फांसी पर चढ़ गये। मरते हुए उन्हें यह संतोष रहा कि बलिदान प्रतिस्पर्धा में वे भगतसिंह से पीछे नहीं रहे।

उड़ीसा में हिन्दू जागरण के अग्रदूत: "स्वामी लक्ष्मणानंद"

स्वामी लक्ष्मणानंद

कंधमाल उड़ीसा का वनवासी बहुल पिछड़ा क्षेत्र है। पूरे देश की तरह वहां भी 23 अगस्त, 2008 को जन्माष्टमी पर्व मनाया जा रहा था। रात में लगभग 30-40 क्रूर चर्चवादियों ने फुलबनी जिले के तुमुडिबंध से तीन कि.मी दूर स्थित जलेसपट्टा कन्याश्रम में हमला बोल दिया। 84 वर्षीय देवतातुल्य स्वामी लक्ष्मणानंद उस समय शौचालय में थे। हत्यारों ने दरवाजा तोड़कर पहले उन्हें गोली मारी और फिर कुल्हाड़ी से उनके शरीर के टुकड़े कर दिये।

स्वामी जी का जन्म ग्राम गुरुजंग, जिला तालचेर (उड़ीसा) में 1924 में हुआ था। वे गत 45 साल से वनवासियों के बीच चिकित्सालय, विद्यालय, छात्रावास, कन्याश्रम आदि प्रकल्पों के माध्यम से सेवा कार्य कर रहे थे। गृहस्थ और दो पुत्रों के पिता होने पर भी जब उन्हें अध्यात्म की भूख जगी, तो उन्होंने हिमालय में 12 वर्ष तक कठोर साधना की; पर 1966 में प्रयाग कुुंभ के समय संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी तथा अन्य कई श्रेष्ठ संतों के आग्रह पर उन्होंने ‘नर सेवा, नारायण सेवा’ को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।

इसके बाद उन्होेंने फुलबनी (कंधमाल) में सड़क से 20 कि.मी. दूर घने जंगलों के बीच चकापाद में अपना आश्रम बनाया और जनसेवा में जुट गये। इससे वे ईसाई मिशनरियों की आंख की किरकिरी बन गये। स्वामी जी ने भजन मंडलियों के माध्यम से अपने कार्य को बढ़ाया। उन्होंने 1,000 से भी अधिक गांवों में भागवत घर (टुंगी) स्थापित कर श्रीमद्भागवत की स्थापना की। उन्होंने हजारों कि.मी पदयात्रा कर वनवासियों में हिन्दुत्व की अलख जगाई। उड़ीसा के राजा गजपति एवं पुरी के शंकराचार्य ने स्वामी जी की विद्वत्ता को देखकर उन्हें 'वेदांत केसरी' की उपाधि दी थी।

जगन्नाथ जी की रथ यात्रा में हर वर्ष लाखों भक्त पुरी जाते हैं; पर निर्धनता के कारण वनवासी प्रायः इससे वंचित ही रहते थे। स्वामी जी ने 1986 में जगन्नाथ रथ का प्रारूप बनवाकर उस पर श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा की प्रतिमाएं रखवाईं। इसके बाद उसे वनवासी गांवों में ले गये। वनवासी भगवान को अपने घर आया देख रथ के आगे नाचने लगे। जो लोग मिशन के चंगुल में फंस चुके थे, वे भी उत्साहित हो उठे। जब चर्च वालों ने आपत्ति की, तो उन्होंने अपने गले में पड़े क्रॉस फेंक दिये। तीन माह तक चली रथ यात्रा के दौरान हजारों लोग हिन्दू धर्म में लौट आये। उन्होंने नशे और सामाजिक कुरीतियों से मुक्ति हेतु जनजागरण भी किया। इस प्रकार मिशनरियों के 50 साल के षड्यन्त्र पर स्वामी जी ने झाड़ू फेर दिया।

स्वामी जी धर्म प्रचार के साथ ही सामाजिक व राष्ट्रीय सरोकारों से भी जुड़े थे। जब-जब देश पर आक्रमण हुआ या कोई प्राकृतिक आपदा आई, उन्होंने जनता को जागरूक कर सहयोग किया; पर चर्च को इससे कष्ट हो रहा था, इसलिए उन पर नौ बार हमले हुए। हत्या से कुछ दिन पूर्व ही उन्हें धमकी भरा पत्र मिला था। इसकी सूचना उन्होंने पुलिस को दे दी थी; पर पुलिस ने कुछ नहीं किया। यहां तक कि उनकी सुरक्षा को और ढीला कर दिया गया। इससे संदेह होता है कि चर्च और नक्सली कम्युनिस्टों के साथ कुछ पुलिस वाले भी इस षड्यन्त्र में शामिल थे।

स्वामी जी का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उनकी हत्या के बाद पूरे कंधमाल और निकटवर्ती जिलों में वनवासी हिन्दुओं में आक्रोश फूट पड़ा। लोगों ने मिशनरियों के अनेक केन्द्रों को जला दिया। चर्च के समर्थक अपने गांव छोड़कर भाग गये। स्वामी जी के शिष्यों तथा अनेक संतों ने हिम्मत न हारते हुए सम्पूर्ण उड़ीसा में हिन्दुत्व के ज्वार को और तीव्र करने का संकल्प लिया है।

मारवाड़ के रक्षक वीर दुर्गादास राठौड़



अपनी जन्मभूमि मारवाड़ को मुगलों के आधिपत्य से मुक्त कराने वाले वीर दुर्गादास राठौड़ का जन्म 13 अगस्त, 1638 को ग्राम सालवा में हुआ था। उनके पिता जोधपुर राज्य के दीवान श्री आसकरण तथा माता नेतकँवर थीं। आसकरण की अन्य पत्नियाँ नेतकँवर से जलती थीं। अतः मजबूर होकर आसकरण ने उसे सालवा के पास लूणवा गाँव में रखवा दिया। छत्रपति शिवाजी की तरह दुर्गादास का लालन-पालन उनकी माता ने ही किया। उन्होंने दुर्गादास में वीरता के साथ-साथ देश और धर्म पर मर-मिटने के संस्कार डाले।

उस समय मारवाड़ में राजा जसवन्त सिंह (प्रथम) शासक थे। एक बार उनके एक मुँहलगे दरबारी राईके ने कुछ उद्दण्डता की। दुर्गादास से सहा नहीं गया। उसने सबके सामने राईके को कठोर दण्ड दिया। इससे प्रसन्न होकर राजा ने उन्हें निजी सेवा में रख लिया और अपने साथ अभियानों में ले जाने लगे। एक बार उन्होंने दुर्गादास को ‘मारवाड़ का भावी रक्षक’ कहा; पर वीर दुर्गादास सदा स्वयं को मारवाड़ की गद्दी का सेवक ही मानते थे।

उस समय उत्तर भारत में औरंगजेब प्रभावी था। उसकी कुदृष्टि मारवाड़ के विशाल राज्य पर भी थी। उसने षड्यन्त्रपूर्वक जसवन्त सिंह को अफगानिस्तान में पठान विद्रोहियों से लड़ने भेज दिया। इस अभियान के दौरान नवम्बर 1678 में जमरूद में उनकी मृत्यु हो गयी। इसी बीच उनकी रानी आदम जी ने पेशावर में एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम अजीत सिंह रखा गया। जसवन्त सिंह के मरते ही औरंगजेब ने जोधपुर रियासत पर कब्जा कर वहाँ शाही हाकिम बैठा दिया। उसने अजीतसिंह को मारवाड़ का राजा घोषित करने के बहाने दिल्ली बुलाया। वस्तुतः वह उसे मुसलमान बनाना या मारना चाहता था।

इस कठिन घड़ी में दुर्गादास अजीत सिंह के साथ दिल्ली पहुंचे। एक दिन अचानक मुगल सैनिकों ने अजीत सिंह के आवास को घेर लिया। अजीत सिंह की धाय गोरा टांक ने पन्ना धाय की तरह अपने पुत्र को वहां छोड़ दिया और उन्हें लेकर गुप्त मार्ग से बाहर निकल गयी। उधर दुर्गादास ने हमला कर घेरा तोड़ दिया और वे भी जोधपुर की ओर निकल गये। उन्होेंने अजीत सिंह को सिरोही के पास कालिन्दी गाँव में पुरोहित जयदेव के घर रखवा कर मुकुनदास खीची को साधु वेश में उनकी रक्षा के लिए नियुक्त कर दिया। कई दिन बाद औरंगजेब को जब वास्तविकता पता लगी, तो उसने बालक की हत्या कर दी।

अब दुर्गादास मारवाड़ के सामन्तों के साथ छापामार शैली में मुगल सेनाओं पर हमले करने लगे। उन्होंने मेवाड़ के महाराणा राजसिंह तथा मराठों को भी जोड़ना चाहा; पर इसमें उन्हें पूरी सफलता नहीं मिली। उन्होंने औरंगजेब के छोटे पुत्र अकबर को राजा बनाने का लालच देकर अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह के लिए तैयार किया; पर दुर्भाग्यवश यह योजना भी पूरी नहीं हो पायी।

अगले 30 साल तक वीर दुर्गादास इसी काम में लगे रहे। औरंगजेब की मृत्यु के बाद उनके प्रयास सफल हुए। 20 मार्च, 1707 को महाराजा अजीत सिंह ने धूमधाम से जोधपुर दुर्ग में प्रवेश किया। वे जानते थे कि इसका श्रेय दुर्गादास को है, अतः उन्होंने दुर्गादास से रियासत का प्रधान पद स्वीकार करने को कहा; पर दुर्गादास ने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया। उनकी अवस्था भी अब इस योग्य नहीं थी। अतः वे अजीतसिंह की अनुमति लेकर उज्जैन के पास सादड़ी चले गये। इस प्रकार उन्होंने महाराजा जसवन्त सिंह द्वारा उन्हें दी गयी उपाधि ‘मारवाड़ का भावी रक्षक’ को सत्य सिद्ध कर दिखाया। उनकी प्रशंसा में आज भी मारवाड़ में निम्न पंक्तियाँ प्रचलित हैं -

माई ऐहड़ौ पूत जण, जेहड़ौ दुर्गादास
मार गण्डासे थामियो, बिन थाम्बा आकास।।

सोमवार, 22 अगस्त 2016

बन्दा बहादुर

बन्दा बहादुर / बंदा सिंह बहादुर / लछमन दास / लछमन देव / माधो दास

बन्दा बहादुर (जन्म - 16 अक्टूबर 1670, राजौरी; मृत्यु - जून 1716, दिल्ली) प्रसिद्ध सिक्ख सैनिक और राजनीतिक नेता थे। भारत के मुग़ल शासकों के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने वाले पहले सिक्ख सैन्य प्रमुख, जिन्होंने सिक्खों के राज्य का अस्थायी विस्तार भी किया।

जीवन परिचय



बन्दा बहादुर का जन्म 1670 ई. में कश्मीर के पुंछ ज़िले के राजौरी क्षेत्र में एक राजपूत परिवार में हुआ था। उसका बचपन का नाम 'लक्ष्मण देव' था। 15 वर्ष की उम्र में वह एक बैरागी का शिष्य बना और उसका नाम 'माधोदास' हो गया। कुछ समय तकपंचवटी (नासिक) में रहने के बाद दक्षिण की ओर चला गया और उसने वहाँ एक आश्रम की स्थापना की। दसवें गुरु गोविन्द सिंह की 1708 ई. में हत्या हो जाने के बाद बन्दा सिक्खों का नेता बना। वह सिक्खों का आध्यात्मिक नेता नहीं था, किन्तु 1708 से 1715 ई. तक अपनी मृत्यु पर्यन्त उनका राजनीतिक नेता रहा।

अन्य नाम


युवावस्था में उन्होंने पहले समन (योगी) बनने का निश्चय किया और 1708 में गुरु गोबिंद सिंह का शिष्य बनने तक वह माधो दास के नाम से जाने जाते रहे। सिक्ख बिरादरी में शामिल होने के बाद उनका नाम बंदा सिंह बहादुर हो गया और वह लोकप्रिय तो नहीं, सम्मानित सेनानी अवश्य बन गए, उनके तटस्थ, ठंडे और अवैयक्तिक स्वभाव ने उन्हें उनके लोगों के बीच लोकप्रिय नहीं बनने दिया।

प्रतिशोध


1708 ई. में सिक्खों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह ने बन्दा के आश्रम को देखा। उन्होंने माधोदास कोसिक्ख धर्म में दीक्षित किया और उसका नाम 'बन्दा सिंह' रख दिया। गुरु गोविन्द सिंह जी के सात और नौ वर्ष के बच्चों की जब सरहिन्द के फ़ौजदार वज़ीर ख़ाँ ने क्रूरता के साथ हत्या कर दी, तो बन्दा सिंह पर इसकी बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। उसने वज़ीर ख़ाँ से बदला लेना अपना मुख्य कर्तव्य मान लिया। उसने पंजाब आकर बड़ी संख्या में सिक्खों को संगठित किया और सरहिन्द पर क़ब्ज़ा करके वज़ीर ख़ाँ को मार डाला।

राज्य विस्तार एवं अज्ञातवास


बन्दा बहादुर ने यमुना और सतलुज के प्रदेश को अपने अधीन कर लिया और मुखीशपुर में लोहागढ़ (लोहगढ़ अथवा लौहगढ़) नामक एक मज़बूत क़िला निर्मित कराया, इसके साथ ही राजा की उपाधि ग्रहण कर अपने नाम से सिक्के भी जारी करा दिये। कुछ काल बाद सम्राट बहादुर शाह प्रथम (1707-12) ने शीघ्र ही लोहगढ़ पर घेरा डालकर उसे अपने अधीन कर लिया। बन्दा तथा उसके अनेक अनुयायियों को बाध्य होकर शाह प्रथम की मृत्यु तक अज्ञातवास करना पड़ा।

मुग़लों से सामना


बन्दा बहादुर ने 1706 में मुग़लों पर हमला करके बहुत बड़े क्षेत्र पर क़ब्ज़ा कर लिया। इसके उपरान्त बन्दा ने लोहगढ़ को फिर से अपने अधिकार में कर लिया और सरहिन्द के सूबे में लूटपाट आरम्भ कर दी। दक्कन क्षेत्र में अनके द्वारा लूटपाट और क़त्लेआम से मुग़लों को उन पर पूरी ताकत से हमला करना पड़ा। किन्तु 1715 ई. में मुग़लों नेगुरदासपुर के क़िले पर घेरा डाल दिया। बन्दा उस समय उसी क़िले में था। कई माह की घेराबन्दी के बाद खाद्य सामग्री के अभाव के कारण उन लोगों को आत्म समर्पण करने के लिए बाध्य होना पड़ा। मुग़लों ने क़िले पर अधिकार करने के साथ ही बन्दा तथा उसके अनेक साथियों को बन्दी बना लिया।

शहादत


फ़रवरी, 1716 में बन्दा और उसके 794 साथियों को कैद करके दिल्ली ले जाया गया। उन्हें अमानुषिक यातनाएँ दी गईं। प्रतिदिन 100 की संख्या में सिक्ख फाँसी पर लटकाए गए। बन्दा के सामने उसके पुत्र को मार डाला गया। जब उनकी बारी आई, तो बंदा सिंह ने मुसलमान न्यायाधीश से कहा कि उनका यही हाल होना था, क्योंकि अपने प्यारे गुरु गोबिंद सिंह की इच्छाओं को पूरा करने में वह नाक़ाम रहे। उन्हें लाल गर्म लोहे की छड़ों से यातना देकर मार डाला गया। फ़र्रुख़सियर के आदेश पर बन्दा के शरीर को गर्म चिमटों से नुचवाया गया और फिर हाथी से कुचलवाकर उसे मार डाला गया। यह घटना 16 जून, 1716 ई. को हुई थी।