शनिवार, 27 अगस्त 2016

असली सुंदरता और हमारी मृगतृष्णा क्या है

एक बार अष्टावक्र जब राजा जनक के दरबार में पहुंचे, तब उन्हें देखते ही सभा में मौजूद सारे राजाओं, विद्वानों और महापंडितों आदि ने हंसना शुरू कर दिया। अपने ऊपर हंसने वालों पर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ और दुख भी। सभा के लोगों के इस व्यवहार से खिन्न अष्टावक्र ने तब राजा जनक से कहा कि महाराज जनक! मैंने सुना था कि आपके दरबार में पंडितों की सभा जारी है। इसलिए यहां आ गया, लेकिन यहां तो मूर्खो की सभा लगी हुई है। फिर समझ में नहीं आ रहा है कि इनके बीच सत्य की चर्चा कैसे हो रही है? 

अष्टावक्र की इस बात से यह स्पष्ट होता है कि जो लोग शरीर को देखते हैं, वे सिवाय शारीरिक सुंदरता के कुछ और देख ही नहीं पाते हैं। वे तो सिर्फ कपड़ों को देखते हैं, बाहरी अलंकारों को देखते हैं, लेकिन जो व्यक्ति मन के अलंकार को देखता है वही सत्य देख पाता है। वही मन की सुंदरता और हमारे चरित्र को भी देख पाता है। इससे यह साबित होता है कि सुंदरता तन की नहीं, बल्कि मन की होनी चाहिए।

अंग्रेजी साहित्य में बायरन नामक एक कवि हुए। उन्हें जहां कहीं भी सुंदर नारी दिखती, वह उसे बड़े लोलुप निगाहों से घूरने लगते थे। एक बार वह बहुत दिनों से किसी सुंदर लड़की का पीछा कर रहे थे। रोज-रोज की परेशानियों से तंग आकर और इन परेशानियों से निजात पाने के लिए आखिरकार वह बायरन से शादी करने के लिए तैयार हो गई। शादी के पूर्व उसने बायरन के समक्ष एक शर्त रखी कि तुम इन हरकतों की पुनरावृत्ति नहीं करोगे। 

शादी करके जब वह चर्च की सीढ़ियां उतर रहे थे, तभी एक दूसरी सुंदर लड़की चर्च के अंदर जा रही थी। बायरन अपनी नई-नवेली पत्नी का हाथ छोड़कर तुरंत उस लड़की की ओर मुखातिब हो गए। अचानक घटी इस घटना से उनकी पत्नी हैरान रह गई।उसने खुद को संभालते हुए पति को दी गई शपथ की याद दिलाई। 

तब बायरन ने जवाब दिया-देखो, प्रियतम! मनुष्य का मन बहुत ही चंचल होता है, उसे जो नहीं मिला रहता है, उसके लिए उसे बड़ी आशा लगी रहती है। यह तो मनुष्य का गुण है कि उसे जो चीज मिल जाए उसकी ओर से वह निश्चिंत हो जाता है और उसका मन अब तक नहीं मिली हुई वस्तुओं की ओर दौड़ने लगता है। हमें जो वस्तु मिल जाती है, हम उस पर संतोष नहीं करते, लेकिन जो वस्तुएं हमारी पहुंच से दूर होती हैं, उनकी ओर हम व्यग्र हो जाते हैं। यही दौड़ हमारे जीवन की मृगतष्णा है।

4 टिप्‍पणियां: