मंगलवार, 30 अगस्त 2016

देशद्रोही का वध

स्वाधीनता प्राप्ति के प्रयत्न में लगे क्रांतिकारियों को जहां एक ओर अंग्रेजों से लड़ना पड़ता था, वहां कभी-कभी उन्हें देशद्रोही भारतीय, यहां तक कि अपने गद्दार साथियों को भी दंड देना पड़ता था।

बंगाल के प्रसिद्ध अलीपुर बम कांड में कन्हाईलाल दत्त,  सत्येन्द्रनाथ बोस तथा नरेन्द्र गोस्वामी गिरफ्तार हुए थे। अन्य भी कई लोग इस कांड में शामिल थे, जो फरार हो गयेे। पुलिस ने इन तीन में से एक नरेन्द्र को मुखबिर बना लिया। उसने कई साथियों के पते-ठिकाने बता दिये। इस चक्कर में कई निरपराध लोग भी पकड़ लिये गये। अतः कन्हाई और सत्येन्द्र ने उसे सजा देने का निश्चय किया और एक पिस्तौल जेल में मंगवा ली।

सुरक्षा की दृष्टि से पुलिस ने नरेन्द्र गोस्वामी को जेल में सामान्य वार्ड की बजाय एक सुविधाजनक यूरोपीय वार्ड में रख दिया था। एक दिन कन्हाई बीमारी का बहाना बनाकर अस्पताल पहुंच गया। कुछ दिन बाद सत्येन्द्र भी पेट दर्द के नाम पर वहां आ गया। अस्पताल उस यूरोपीय वार्ड के पास था, जहां नरेन्द्र रह रहा था। एक-दो दिन बाद सत्येन्द्र ने ऐसा प्रदर्शित किया, मानो वह इस जीवन से तंग आकर मुखबिर बनना चाहता है। उसने नरेन्द्र से मिलने की इच्छा भी व्यक्त की। यह सुनकर नरेन्द्र को बहुत प्रसन्नता हुई।

31 अगस्त, 1908 को नरेन्द्र जेल के एक अधिकारी हिंगिस के साथ उससे मिलने अस्पताल चला गया। सत्येन्द्र अस्पताल की पहली मंजिल पर उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। वहां कन्हाई को देखकर एक बार नरेन्द्र को शक हुआ; पर फिर वह सत्येन्द्र के संकेत पर हिंगिस को पीछे छोड़कर उनसे एकांत वार्ता करने के लिए कमरे से बाहर बरामदे में आ गया।

कन्हाई और सत्येन्द्र तो इस अवसर की प्रतीक्षा में ही थे। मौका देखकर कन्हाई ने नरेन्द्र गोस्वामी पर गोली दाग दी। वह चिल्लाते हुए नीचे की ओर भागा। इस पर सत्येन्द्र ने उसे पकड़ लिया। गोली की आवाज सुनकर हिंगिस और एक अन्य जेल अधिकारी लिंटन आ गये। लिंटन ने सत्येन्द्र को गिराकर कन्हाई को जकड़ लिया। इस पर कन्हाई ने पिस्तौल की नाल उसके सिर में दे मारी। इस हाथापाई में कई गोलियां व्यर्थ हो गयीं। अब केवल एक गोली शेष थी। कन्हाई ने झटके से स्वयं को छुड़ाकर बची हुई गोली नरेन्द्र पर दाग दी। इस बार निशाना ठीक लगा और देशद्रोही धरती पर लुढ़क गया।

दोनों ने अपना उद्देश्य पूरा होने पर समर्पण कर दिया। मुकदमे में कन्हाई ने अपना अपराध स्वीकार कर किसी वकील की सहायता लेने से मना कर दिया। अतः उसे फांसी की सजा सुनाई गयी। न्यायालय ने सत्येन्द्र को फांसी योग्य अपराधी नहीं माना। शासन ने इसकी अपील ऊपर के न्यायालय में की। वहां से सत्येन्द्र के लिए भी फांसी की सजा घोषित कर दी गयी।

अलीपुर केन्द्रीय कारागार में 10 नवम्बर, 1908 को कन्हाई को फांसी दी गयी। वह इतना मस्त था कि फांसी वाले दिन तक उसका भार 16 पौंड बढ़ गया। फांसी वाली रात वह इतनी गहरी नींद में सोया कि उसे आवाज देकर जगाना पड़ा। उसके शव की विशाल शोभायात्रा निकालकर चंदन के ढेर पर उसका दाह संस्कार किया गया। अंत्यक्रिया पूरी होने तक हजारों लोग वहां डटे रहे। चिता शांत होने पर लोगों ने भस्म से तिलक किया। सैकड़ों लोगों ने भस्म के ताबीज बच्चों के हाथ पर बांधे। हजारों ने उसे पूजागृह में रख लिया।

21 नवम्बर, 1908 को सत्येन्द्र को भी फांसी दे दी गयी। कन्हाई की शवयात्रा से घबराये शासन ने उसका शव परिवार वालों को न देकर जेल में ही उसका दाह संस्कार कर दिया। !!!

सोमवार, 29 अगस्त 2016

सुख़ कहाँ रहता है

चाँदपुर इलाके के राजा कुँवरसिंह जी बड़े अमीर थे। उन्हें किसी चीज़ की कमी नहीं थी, फिर भी उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं था। बीमारी के मारे वे सदा परेशान रहते थे। कई वैद्यों ने उनका इलाज किया, लेकिन उनको कुछ फ़ायदा नहीं हुआ।

राजा की बीमारी बढ़ती गई। सारे नगर में यह बात फैल गई। तब एक बूढ़े ने राजा के पास आकर कहा, ''महाराज, आपकी बीमारी का इलाज करने की मुझे आज्ञा दीजिए।'' राजा से अनुमति पाकर वह बोला, ''आप किसी सुखी मनुष्य का कुरता पहनिए, अवश्य स्वस्थ हो जाएँगे।''

बूढ़े की बात सुनकर सभी दरबारी हँसने लगे, लेकिन राजा ने सोचा, ''इतने इलाज किए हैं तो एक और सही।'' राजा के सेवकों ने सुखी मनुष्य की बहुत खोज की, लेकिन उन्हें कोई पूर्ण सुखी मनुष्य नहीं मिला। सभी लोगों को किसी न किसी बात का दुख था।

अब राजा स्वयं सुखी मनुष्य की खोज में निकल पड़े। बहुत तलाश के बाद वे एक खेत में जा पहुँचे। जेठ की धूप में एक किसान अपने काम में लगा हुआ था। राजा ने उससे पूछा, ''क्यों जी, तुमसुखी हो?'' किसान की आँखें चमक उठी, चेहरा मुस्करा उठा। वह बोला, ''ईश्वर की कृपा से मुझे कोई दुख नहीं है।'' यह सुनकर राजा का अंग-अंग मुस्करा उठा। उस किसान का कुरता माँगने के लिए ज्यों ही उन्होंने उसके शरीर की ओर देखा, उन्हें मालूम हुआ कि किसान सिर्फ़ धोती पहने हुए है और उसकी सारी देह पसीने से तर है।

राजा समझ गया कि श्रम करने के कारण ही यह किसान सच्चा सुखी है। उन्होंने आराम-चैन छोड़कर परिश्रम करने का संकल्प किया।
थोड़े ही दिनों में राजा की बीमारी दूर हो गई।

हॉकी के जादूगर "ध्यानचन्द"

मेजर ध्यानचंद


जब भारतीय हॉकी का पूरे विश्व में दबदबा था। उसका श्रेय जिन्हें जाता है, उन मेजर ध्यानचन्द का जन्म प्रयाग, उत्तर प्रदेश में 29 अगस्त, 1905 को हुआ था। उनके पिता सेना में सूबेदार थे। उन्होंने 16 साल की अवस्था में ध्यानचन्द को भी सेना में भर्ती करा दिया। वहाँ वे कुश्ती में बहुत रुचि लेते थे; पर सूबेदार मेजर बाले तिवारी ने उन्हें हॉकी के लिए प्रेरित किया। इसके बाद तो वे और हॉकी एक दूसरे के पर्याय बन गये।

वे कुछ दिन बाद ही अपनी रेजिमेण्ट की टीम में चुन लिये गये। उनका मूल नाम ध्यानसिंह था; पर वे प्रायः चाँदनी रात में अकेले घण्टों तक हॉकी का अभ्यास करते रहते थे। इससे उनके साथी तथा सेना के अधिकारी उन्हें ‘चाँद’ कहने लगे। फिर तो यह उनके नाम के साथ ऐसा जुड़ा कि वे ध्यानसिंह से ध्यानचन्द हो गये। आगे चलकर वे ‘दद्दा’ ध्यानचन्द कहलाने लगे।

चार साल तक ध्यानचन्द अपनी रेजिमेण्ट की टीम में रहे। 1926 में वे सेना एकादश और फिर राष्ट्रीय टीम में चुन लिये गये। इसी साल भारतीय टीम ने न्यूजीलैण्ड का दौरा किया। इस दौरे में पूरे विश्व ने उनकी अद्भुत प्रतिभा को देखा। गेंद उनके पास आने के बाद फिर किसी अन्य खिलाड़ी तक नहीं जा पाती थी। कई बार उनकी हॉकी की जाँच की गयी, कि उसमें गोंद तो नहीं लगी है। अनेक बार खेल के बीच में उनकी हॉकी बदली गयी; पर वे तो अभ्यास के धनी थे। वे उल्टी हॉकी से भी उसी कुशलता से खेल लेते थे। इसीलिए उन्हें लोग हॉकी का जादूगर’ कहते थे।

भारत ने सर्वप्रथम 1928 के एम्सटर्डम ओलम्पिक में भाग लिया। ध्यानचन्द भी इस दल में थे। इससे पूर्व इंग्लैण्ड ही हॉकी का स्वर्ण जीतता था; पर इस बार भारत से हारने के भय से उसने हॉकी प्रतियोगिता में भाग ही नहीं लिया। भारत ने इसमें स्वर्ण पदक जीता। 1936 के बर्लिन ओलम्पिक के समय उन्हें भारतीय दल का कप्तान बनाया गया। इसमें भी भारत ने स्वर्ण जीता। इसके बाद 1948 के ओलम्पिक में भारतीय दल ने कुल 29 गोल किये थे। इनमें से 15 अकेले ध्यानचन्द के ही थे। इन तीन ओलम्पिक में उन्होंने 12 मैचों में 38 गोल किये।

1936 के बर्लिन ओलम्पिक के तैयारी खेलों में जर्मनी ने भारत को 4-1 से हरा दिया था। फाइनल के समय फिर से दोनों टीमों की भिड़न्त हुई। प्रथम भाग में दोनों टीम 1-1 से बराबरी पर थीं। मध्यान्तर में ध्यानचन्द ने सब खिलाड़ियों को तिरंगा झण्डा दिखाकर प्रेरित किया। इससे सबमें जोश भर गया और उन्होंने धड़ाधड़ सात गोल कर डाले। इस प्रकार भारत 8-1 से विजयी हुआ। उस दिन 15 अगस्त था। कौन जानता था कि 11 साल बाद इसी दिन भारतीय तिरंगा पूरी शान से देश भर में फहरा उठेगा।

1926 से 1948 तक ध्यानचन्द दुनिया में जहाँ भी हॉकी खेलने गये, वहाँ दर्शक उनकी कलाइयों का चमत्कार देखने के लिए उमड़ आते थे। आस्ट्रिया की राजधानी वियना के एक स्टेडियम में उनकी प्रतिमा ही स्थापित कर दी गयी। 42 वर्ष की अवस्था में उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय हॉकी से संन्यास ले लिया। कुछ समय वे राष्ट्रीय खेल संस्थान में हॉकी के प्रशिक्षक भी रहे।

भारत के इस महान सपूत को शासन ने 1956 में ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया। 3 दिसम्बर, 1979 को उनका देहान्त हुआ। उनका जन्मदिवस 29 अगस्त भारत में ‘खेल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

शनिवार, 27 अगस्त 2016

असली सुंदरता और हमारी मृगतृष्णा क्या है

एक बार अष्टावक्र जब राजा जनक के दरबार में पहुंचे, तब उन्हें देखते ही सभा में मौजूद सारे राजाओं, विद्वानों और महापंडितों आदि ने हंसना शुरू कर दिया। अपने ऊपर हंसने वालों पर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ और दुख भी। सभा के लोगों के इस व्यवहार से खिन्न अष्टावक्र ने तब राजा जनक से कहा कि महाराज जनक! मैंने सुना था कि आपके दरबार में पंडितों की सभा जारी है। इसलिए यहां आ गया, लेकिन यहां तो मूर्खो की सभा लगी हुई है। फिर समझ में नहीं आ रहा है कि इनके बीच सत्य की चर्चा कैसे हो रही है? 

अष्टावक्र की इस बात से यह स्पष्ट होता है कि जो लोग शरीर को देखते हैं, वे सिवाय शारीरिक सुंदरता के कुछ और देख ही नहीं पाते हैं। वे तो सिर्फ कपड़ों को देखते हैं, बाहरी अलंकारों को देखते हैं, लेकिन जो व्यक्ति मन के अलंकार को देखता है वही सत्य देख पाता है। वही मन की सुंदरता और हमारे चरित्र को भी देख पाता है। इससे यह साबित होता है कि सुंदरता तन की नहीं, बल्कि मन की होनी चाहिए।

अंग्रेजी साहित्य में बायरन नामक एक कवि हुए। उन्हें जहां कहीं भी सुंदर नारी दिखती, वह उसे बड़े लोलुप निगाहों से घूरने लगते थे। एक बार वह बहुत दिनों से किसी सुंदर लड़की का पीछा कर रहे थे। रोज-रोज की परेशानियों से तंग आकर और इन परेशानियों से निजात पाने के लिए आखिरकार वह बायरन से शादी करने के लिए तैयार हो गई। शादी के पूर्व उसने बायरन के समक्ष एक शर्त रखी कि तुम इन हरकतों की पुनरावृत्ति नहीं करोगे। 

शादी करके जब वह चर्च की सीढ़ियां उतर रहे थे, तभी एक दूसरी सुंदर लड़की चर्च के अंदर जा रही थी। बायरन अपनी नई-नवेली पत्नी का हाथ छोड़कर तुरंत उस लड़की की ओर मुखातिब हो गए। अचानक घटी इस घटना से उनकी पत्नी हैरान रह गई।उसने खुद को संभालते हुए पति को दी गई शपथ की याद दिलाई। 

तब बायरन ने जवाब दिया-देखो, प्रियतम! मनुष्य का मन बहुत ही चंचल होता है, उसे जो नहीं मिला रहता है, उसके लिए उसे बड़ी आशा लगी रहती है। यह तो मनुष्य का गुण है कि उसे जो चीज मिल जाए उसकी ओर से वह निश्चिंत हो जाता है और उसका मन अब तक नहीं मिली हुई वस्तुओं की ओर दौड़ने लगता है। हमें जो वस्तु मिल जाती है, हम उस पर संतोष नहीं करते, लेकिन जो वस्तुएं हमारी पहुंच से दूर होती हैं, उनकी ओर हम व्यग्र हो जाते हैं। यही दौड़ हमारे जीवन की मृगतष्णा है।

शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

Scientific reasons behind vedic stories

रात्रि के अंतिम प्रहर में एक बुझी हुई चिता की भस्म पर
अघोरी ने जैसे ही आसन लगाया, एक प्रेत ने उसकी गर्दन जकड़
ली और बोला- मैं जीवन भर विज्ञान का छात्र रहा और
जीवन के उत्तरार्ध में तुम्हारे पुराणों की विचित्र कथाएं
पढ़कर भ्रमित होता रहा। यदि तुम मुझे पौराणिक कथाओं
की सार्थकता नहीं समझा सके तो मैं तुम्हे भी इसी भस्म में
मिला दूंगा।
अघोरी बोला- एक कथा सुनो, रैवतक राजा की पुत्री का
नाम रेवती था। वह सामान्य कद के पुरुषों से बहुत लंबी थी,
राजा उसके विवाह योग्य वर खोजकर थक गये और चिंतित रहने
लगे। थक-हारकर वो योगबल के द्वारा पुत्री को लेकर
ब्रह्मलोक गए। राजा जब वहां पहुंचे तब गन्धर्वों का गायन
समारोह चल रहा था, राजा ने गायन समाप्त होने की
प्रतीक्षा की।
गायन समाप्ति के उपरांत ब्रह्मदेव ने राजा को देखा और
पूछा- कहो, कैसे आना हुआ?
राजा ने कहा- मेरी पुत्री के लिए किसी वर को आपने
बनाया अथवा नहीं?
ब्रह्मा जोर से हंसे और बोले- जब तुम आये तबतक तो नहीं, पर
जिस कालावधि में तुमने यहाँ गन्धर्वगान सुना उतनी ही
अवधि में पृथ्वी पर २७ चतुर्युग बीत चुके हैं और २८ वां द्वापर
समाप्त होने वाला है, अब तुम वहां जाओ और कृष्ण के बड़े
भाई बलराम से इसका विवाह कर दो, अच्छा हुआ की तुम
रेवती को अपने साथ लाए जिससे इसकी आयु नहीं बढ़ी।
इस कथा का वैज्ञानिक संदर्भ समझो- आर्थर सी क्लार्क ने
आइंस्टीन की थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी की व्याख्या में एक
पुस्तक लिखी है- मैन एंड स्पेस, उसमे गणना है की यदि 10 वर्ष
का बालक यदि प्रकाश की गति वाले यान में बैठकर
एंड्रोमेडा गैलेक्सी का एक चक्कर लगाये तो वापस आनेपर
उसकी आयु ६६ वर्ष की होगी पर धरती पर 40 लाख वर्ष बीत
चुके होंगे। यह आइंस्टीन की time dilation theory ही तो
है जिसके लिए जॉर्ज गैमो ने एक मजाकिया कविता लिखी
थी-
There was a young girl named Miss Bright,
Who could travel much faster than light
She departed one day in an Einstein way
And came back previous night
प्रेत यह सुनकर चकित था, बोला- यह कथा नहीं है, यह तो
पौराणिक विज्ञान है, हमारी सभ्यता इतनी अद्भुत रही है,
अविश्वसनीय है। तभी तो आइंस्टीन पुराणों को अपनी
प्रेरणा कहते थे। मैं अब सभी शवों और प्रेतों को यह
विज्ञानकथा बताऊंगा ताकि वो राष्ट्रीय शरीर धारण कर
सकें। अनेक वामपंथी प्रेत यह कहते फिरते हैं कि यदि इतना ही
उन्नत था हमारा प्राचीन, तो प्रमाण क्या है? अब उनको
देता हूँ यह प्रमाण।
अघोरी मुस्कुराता रहा और प्रेत वायु में विलीन हो गया।
हम विश्व की सबसे उन्नत संस्कृति हैं यह विश्वास मत खोना।
भारत माता की जय...

उत्कृष्टता के पुजारी "अजीत कुमार" जी

कुछ लोग बनी-बनायी लीक पर चलना पसंद करते हैं, जबकि कुछ अपनी कल्पनाशीलता से काम में नये आयाम भी जोड़ते हैं। संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री अजीत जी दूसरी श्रेणी के कार्यकर्ता थे। उनका जन्म 27 अगस्त, 1934 को कर्नाटक के जिला गुडीवंडेयवर में कोलार नामक स्थान पर हुआ था। श्रीमती पुट्टताईम्म तथा वरिष्ठ सरकारी अधिकारी श्री ब्रह्मसुरय्य की आठ संतानों में से केवल तीन जीवित रहे। इनमें अजीत जी भी थे।

प्राथमिक शिक्षा ननिहाल में पूरी कर वे पिताजी के साथ बंगलौर आ गये। यहां उनका संघ से सम्पर्क हुआ। कर्नाटक प्रांत प्रचारक श्री यादवराव जोशी से वे बहुत प्रभावित थे। अभियन्ता की शिक्षा प्राप्त करते समय वे 'अ.भा.विद्यार्थी परिषद' में भी सक्रिय रहे। अपनी कक्षा में सदा प्रथम श्रेणी पाने वाले अजीत जी ने इलैक्ट्रिक एवं मैकेनिकल इंजीनियर की डिग्री स्वर्ण पदक सहित प्राप्त की। उनकी रुचि खेलने, परिश्रम करने तथा साहसिक कार्यों में थी। नानी के घर में कुएं से 100 बाल्टी पानी वे अकेले निकाल देते थे। एक शिविर में उन्होंने 1,752 दंड-बैठक लगाकर पुरस्कार पाया था। 

1957 में शिवगंगा में आयोजित एक वन-विहार कार्यक्रम में उन्होंने प्रचारक बनने का निश्चय किया। उन्हें क्रमशः नगर,  महानगर, विभाग प्रचारक आदि जिम्मेदारियां मिलीं। संघ शिक्षा वर्ग में कई बार वे मुख्यशिक्षक रहे। वे हर काम उत्कृष्टता से करते थे। कपड़े धोने से लेकर सुखाने तक को वे एक कला मानते थे। गणवेश कैसा हो, इसके लिए लोग उनका उदाहरण देते थे। कार्यक्रम के बाद भी वे पेटी और जूते पॉलिश कर के ही रखते थे।

अजीत जी ने प्रख्यात योगाचार्य श्री पट्टाभि तथा श्री आयंगर से योगासन सीखे। फिर उन्होंने संघ शिक्षा वर्ग के लिए इसका पाठ्यक्रम बनाया। इसके बाद उन्होंने बंगलौर के डा.कृष्णमूर्ति से आरोग्य संबंधी कुछ आवश्यक सूत्र सीखकर उनका प्रयोग भी विभिन्न प्रशिक्षण वर्गों में किया। योग और शरीर विज्ञान के समन्वय का अभ्यास उन्होंने डा. नागेन्द्र के पास जाकर किया। अपने ये अनुभव उन्होंने ‘योग प्रवेश’ तथा ‘शरीर शिल्प’ नामक पुस्तक में छपवाये।

1975 में आपातकाल लगने पर वे भूमिगत होकर काम करते रहे; पर एक सत्याग्रह कार्यक्रम के समय वे पहचान लिये गये। पहले बंगलौर और फिर गुलबर्गा जेल में उन्हें रखा गया। वहां भी उन्होंने योग की कक्षाएं लगायीं।

अजीत जी की मान्यता थी कि समाज में अच्छे लोगों की संख्या बहुत अधिक है। अतः उन्होंने ‘हिन्दू सेवा प्रतिष्ठान’ संस्था के माध्यम से ऐसे सैकड़ों युवक व युवतियों को जोड़ा। उन्हें थोड़ा मानदेय एवं प्रशिक्षण देकर अनेक सेवा कार्यों में लगाया गया। संस्कृत संभाषण योजना के सूत्रधार भी अजीत जी ही थे। 1980 के दशक में उन्होंने ऐसी कई योजनाओं को साकार किया।

उनके मन में और भी अनेक योजनाएं थीं, जिनके बारे में वे चर्चा किया करते थे। उनका परिश्रम और काम के प्रति छटपटाहट देखकर लोग उन्हें saint in a hurry कहते थे। 1990 में वे कर्नाटक प्रान्त प्रचारक बनाये गये। दिसम्बर मास में बंगलौर में विश्व संघ शिविर होने वाला था। तीन दिसम्बर, 1990 को उसकी तैयारी के लिए अजीत जी के साथ नरेन्द्र जी, विजयेन्द्र नरहरि तथा गणेश नीर्कजे कार से कहीं जा रहे थे; पर नेलमंगल के पास एक ट्रक से हुई भीषण टक्कर में चारों कार्यकर्ता असमय काल-कवलित हो गये।

एक बार भैया जी दाणी के पूछने पर अजीत जी ने कहा था कि जब तक दम है, तब तक काम करूंगा। उन्होंने मर कर भी अपना यह संकल्प पूरा कर दिखाया।

गुरुवार, 25 अगस्त 2016

कृष्ण उठत, कृष्ण चलत, कृष्ण शाम-भोर है

कृष्ण उठत, कृष्ण चलत, कृष्ण शाम-भोर है।
कृष्ण बुद्धि,कृष्ण चित्त,कृष्ण मन विभोर है॥
कृष्ण रात्रि,कृष्ण दिवस,कृष्ण स्वप्न-शयन है।
कृष्ण काल,कृष्ण कला,कृष्ण मास-अयन है॥
कृष्ण शब्द, कृष्ण अर्थ, कृष्ण ही परमार्थ है।
कृष्ण कर्म, कृष्ण भाग्य, कृष्ण ही पुरुषार्थ है॥
कृष्ण स्नेह, कृष्ण राग, कृष्ण ही अनुराग है।
कृष्ण कली, कृष्ण कुसुम, कृष्ण ही पराग है॥
कृष्ण भोग, कृष्ण त्याग, कृष्ण तत्व-ज्ञान है।
कृष्ण भक्ति, कृष्ण प्रेम, कृष्ण ही विज्ञान है॥
कृष्ण स्वर्ग, कृष्ण मोक्ष, कृष्ण परम साध्य है।
कृष्ण जीव,कृष्ण ब्रह्म, कृष्ण ही आराध्य है !!

बुधवार, 24 अगस्त 2016

हिन्दुत्व के व्याख्याकार तनसुखराम गुप्त

हिन्दू और हिन्दुत्व के जागरण को पूर्णतः समर्पित प्रखर लेखक, पत्रकार व प्रकाशक श्री तनसुखराम गुप्त का जन्म 25 अगस्त, 1928 को हरियाणा में सोनीपत जिले के निवासी श्री ताराचंद एवं श्रीमती किशनदेई के घर में हुआ था। उनका बचपन पुरानी दिल्ली के कूचा नटवा की गलियों में बीता।

तनसुखराम जी 1939 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आये। शाखा जाने से उनके मन में देशभक्ति के संस्कार और प्रबल हो गये। 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में भाग लेने के कारण उन्हें विद्यालय से निकाल दिया गया; पर एक सहृदय अध्यापक के कहने से फिर प्रवेश मिल गया।

1943 में पिताजी के देहांत से परिवार के पालन का भार उनके सिर पर आ गया। अतः उन्होंने प्रथम श्रेणी में हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण कर नियमित पढ़ाई को विराम दे दिया और दिल्ली नगरपालिका में लिपिक बन गये। 1946 में विवाह के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी और स्कूल सामग्री तथा अन्य दैनिक उपयोगी वस्तुओं की दुकान खोल ली। कुछ समय बाद उन्होंने अपना पूरा ध्यान पुस्तक बिक्री और फिर पुस्तक प्रकाशन पर ही केन्द्रित कर लिया।

पुस्तक और प्रकाशन व्यवसाय में लगे व्यक्ति में साहित्य सृजन के प्रति प्रायः अनुराग होता ही है। अतः तनसुखराम जी ने कहानी लेखन के माध्यम से इस क्षेत्र में प्रवेश किया। 1946 में उनका पहला कहानी संग्रह ‘तीन कहानियां’ प्रकाशित हुआ। उनकी कहानियां मुख्यतः देश, धर्म और समाज के प्रति त्याग व समर्पण की प्रेरणा देती थीं। इसके बाद मेरा रंग दे बसंती चोला, नैतिक कथाएं तथा कई अन्य कहानी संग्रह भी प्रकाशित और लोकप्रिय हुए। 

तनसुखराम जी को पारिवारिक कारणों से नियमित पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी; पर उनकी पढ़ने की इच्छा बनी हुई थी। अतः निजी रूप से अध्ययन करते हुए उन्होंने संस्कृत की ‘विशारद’ और ‘प्रभाकर’ परीक्षाएं उत्तीर्ण कर लीं। अध्ययन और चिंतन-मनन का दायरा बढ़ने के कारण अब वे कहानी के साथ निबन्ध भी लिखने लगे और 361 निबन्धों की पुस्तक ‘निबन्ध सौरभ’ प्रकाशित की। 

जीवन की यात्रा में पग-पग पर ऐसे लोग मिलते हैं, जो किसी न किसी कारण से मन-मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ देते हैं। तनसुखराम जी ने ऐसे लोगों के साथ अपने संस्मरणों को तीन पुस्तकों में संकलित किया है। ये हैं - जीवन के कुछ क्षणों में, विस्तृति के भय से तथा संघर्ष के पथ पर। इसके साथ ही दीनदयाल उपाध्याय: महाप्रस्थान, लाल बहादुर शास्त्री: महाप्रयाण तथा रग-रग हिन्दू मेरा परिचय उनकी अन्य प्रसिद्ध पुस्तकें हैं।

तनसुखराम जी ने ‘श्रीरामचरितमानस’ का अध्ययन कर मानस मंथन, वैदेही विवाह तथा श्रीरामचरितमानस भाष्य नामक पुस्तकें लिखीं। इनमें मानस के धार्मिक व आध्यात्मिक पक्ष के साथ ही सामाजिक पक्ष के दर्शन भी होते हैं। उनकी एक अन्य उल्लेखनीय पुस्तक ‘हिन्दू धर्म परिचय’ है, जिसमें हिन्दू मान्यताओं और परम्पराओं की सरल और आधुनिक व्याख्या की गयी है।

तनसुखराम जी हिन्दी काव्य एवं साहित्य के क्षेत्र में वरिष्ठ कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ से बहुत प्रभावित थे। अतः उन्होंने अपने प्रकाशन का नाम ‘सूर्य प्रकाशन’ रखा। यहां से तीन खंडों में प्रकाशित ‘व्यावहारिक हिन्दी व्याकरण कोश’ हिन्दी के अध्येताओं के लिए एक अति उपयोगी ग्रन्थ है। 

प्रतिष्ठित प्रकाशन प्रायः नये लेखकों की पुस्तकें नहीं छापते; लेकिन तनसुखराम जी ने दर्जनों नये और युवा लेखकों की पुस्तकें छापकर उन्हें प्रतिष्ठा दिलाई। अपनी लेखनी और प्रकाशन द्वारा हिन्दुत्व की महान सेवा करने वाले श्री तनसुखराम गुप्त का 26 जनवरी, 2004 को दिल्ली में देहांत हुआ। 

मंगलवार, 23 अगस्त 2016

क्रांतिवीर राजगुरु

बलिदान को उत्सुक राजगुरु 


लोग धन, पद या प्रतिष्ठा प्राप्ति के लिए एक-दूसरे से होड़ करते हैं; पर क्रांतिवीर राजगुरु सदा इस होड़ में रहते थे कि किसी भी खतरनाक काम का मौका भगतसिंह से पहले उन्हें मिलना चाहिए।

श्री हरि नारायण और श्रीमती पार्वतीबाई के पुत्र शिवराम हरि राजगुरु का जन्म 24 अगस्त, 1908 को पुणे के पास खेड़ा (वर्तमान राजगुरु नगर) में हुआ था। उनके एक पूर्वज पंडित कचेश्वर को छत्रपति शिवाजी के प्रपौत्र साहू जी ने राजगुरु का पद दिया था। तब से इस परिवार में यह नाम लगने लगा।

छह वर्ष की अवस्था में राजगुरु के पिताजी का देहांत हो गया। पढ़ाई की बजाय खेलकूद में अधिक रुचि लेने से उनके भाई नाराज हो गये। इस पर राजगुरु ने घर छोड़ दिया और कई दिन इधर-उधर घूमते हुए काशी आकर संस्कृत पढ़ने लगे। भोजन और आवास के बदले उन्हें अपने अध्यापक के घरेलू काम करने पड़ते थे। एक दिन उस अध्यापक से भी झगड़ा हो गया और पढ़ाई छोड़कर वे एक प्राथमिक शाला में व्यायाम सिखाने लगे।

यहां उनका परिचय स्वदेश साप्ताहिक, गोरखपुर के सह सम्पादक मुनीश अवस्थी से हुआ। कुछ ही समय में वे क्रांतिकारी दलसामान्यतः  के विश्वस्त सदस्य बन गये। जब दल की ओर से दिल्ली में एक व्यक्ति को मारने का निश्चय हुआ, तो इस काम में राजगुरु को भी लगाया गया। राजगुरु इसके लिए इतने उतावले थे कि उन्होंने रात के अंधेरे में किसी और व्यक्ति को ही मार दिया।

राजगुरु मस्त स्वभाव के युवक थे। उन्हें सोने का बहुत शौक था। एक बार उन्हें एक अभियान के लिए कानपुर के छात्रावास में 15 दिन रुकना पड़ा। वे 15 दिन उन्होंने रजाई में सोकर ही गुजारे। राजगुरु को यह मलाल था कि भगतसिंह बहुत सुंदर है, जबकि उनका अपना रंग सांवला है। इसलिए वह हर सुंदर वस्तु से प्यार करते थे। यहां तक कि सांडर्स को मारने के बाद जब सब कमरे पर आये, तो राजगुरु ने सांडर्स की सुंदरता की प्रशंसा की।

भगतसिंह से आगे निकलने की होड़ में राजगुरु ने सबसे पहले सांडर्स पर गोली चलाई थी। लाहौर से निकलतेे समय सूटधारी अफसर बने भगतसिंह  के साथ हाथ में बक्सा और सिर पर होलडाल लेकर नौकर के वेष में राजगुरु ही चले थे। इसके बाद वे महाराष्ट्र आ गये। संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार ने अपने एक कार्यकर्ता के फार्म हाउस पर उनके रहने की व्यवस्था की। जब दिल्ली की असेम्बली में बम फंेकने का निश्चय हुआ, तो राजगुरु ने चंद्रशेखर आजाद से आग्रह किया कि भगतसिंह के साथ उसे भेजा जाए; पर उन्हें इसकी अनुमति नहीं मिली। इससे वे वापस पुणे आ गये।

राजगुरु स्वभाव से कुछ वाचाल थे। पुणे में उन्होंने कई लोगों से सांडर्स वध की चर्चा कर दी। उनके पास कुछ शस्त्र भी थे। क्रांति समर्थक एक सम्पादक की शवयात्रा में उन्होंने उत्साह में आकर कुछ नारे भी लगा दिये। इससे वे गुप्तचरों की निगाह में आ गये। पुणे में उन्होंने एक अंग्रेज अधिकारी को मारने का प्रयास किया; पर दूरी के कारण सफलता नहीं मिली।

इसके अगले ही दिन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तथा सांडर्स वध का मुकदमा चलाकर मृत्यु दंड घोषित किया गया। 23 मार्च, 1931 को भगतसिंह और सुखदेव के साथ वे भी फांसी पर चढ़ गये। मरते हुए उन्हें यह संतोष रहा कि बलिदान प्रतिस्पर्धा में वे भगतसिंह से पीछे नहीं रहे।

उड़ीसा में हिन्दू जागरण के अग्रदूत: "स्वामी लक्ष्मणानंद"

स्वामी लक्ष्मणानंद

कंधमाल उड़ीसा का वनवासी बहुल पिछड़ा क्षेत्र है। पूरे देश की तरह वहां भी 23 अगस्त, 2008 को जन्माष्टमी पर्व मनाया जा रहा था। रात में लगभग 30-40 क्रूर चर्चवादियों ने फुलबनी जिले के तुमुडिबंध से तीन कि.मी दूर स्थित जलेसपट्टा कन्याश्रम में हमला बोल दिया। 84 वर्षीय देवतातुल्य स्वामी लक्ष्मणानंद उस समय शौचालय में थे। हत्यारों ने दरवाजा तोड़कर पहले उन्हें गोली मारी और फिर कुल्हाड़ी से उनके शरीर के टुकड़े कर दिये।

स्वामी जी का जन्म ग्राम गुरुजंग, जिला तालचेर (उड़ीसा) में 1924 में हुआ था। वे गत 45 साल से वनवासियों के बीच चिकित्सालय, विद्यालय, छात्रावास, कन्याश्रम आदि प्रकल्पों के माध्यम से सेवा कार्य कर रहे थे। गृहस्थ और दो पुत्रों के पिता होने पर भी जब उन्हें अध्यात्म की भूख जगी, तो उन्होंने हिमालय में 12 वर्ष तक कठोर साधना की; पर 1966 में प्रयाग कुुंभ के समय संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी तथा अन्य कई श्रेष्ठ संतों के आग्रह पर उन्होंने ‘नर सेवा, नारायण सेवा’ को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।

इसके बाद उन्होेंने फुलबनी (कंधमाल) में सड़क से 20 कि.मी. दूर घने जंगलों के बीच चकापाद में अपना आश्रम बनाया और जनसेवा में जुट गये। इससे वे ईसाई मिशनरियों की आंख की किरकिरी बन गये। स्वामी जी ने भजन मंडलियों के माध्यम से अपने कार्य को बढ़ाया। उन्होंने 1,000 से भी अधिक गांवों में भागवत घर (टुंगी) स्थापित कर श्रीमद्भागवत की स्थापना की। उन्होंने हजारों कि.मी पदयात्रा कर वनवासियों में हिन्दुत्व की अलख जगाई। उड़ीसा के राजा गजपति एवं पुरी के शंकराचार्य ने स्वामी जी की विद्वत्ता को देखकर उन्हें 'वेदांत केसरी' की उपाधि दी थी।

जगन्नाथ जी की रथ यात्रा में हर वर्ष लाखों भक्त पुरी जाते हैं; पर निर्धनता के कारण वनवासी प्रायः इससे वंचित ही रहते थे। स्वामी जी ने 1986 में जगन्नाथ रथ का प्रारूप बनवाकर उस पर श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा की प्रतिमाएं रखवाईं। इसके बाद उसे वनवासी गांवों में ले गये। वनवासी भगवान को अपने घर आया देख रथ के आगे नाचने लगे। जो लोग मिशन के चंगुल में फंस चुके थे, वे भी उत्साहित हो उठे। जब चर्च वालों ने आपत्ति की, तो उन्होंने अपने गले में पड़े क्रॉस फेंक दिये। तीन माह तक चली रथ यात्रा के दौरान हजारों लोग हिन्दू धर्म में लौट आये। उन्होंने नशे और सामाजिक कुरीतियों से मुक्ति हेतु जनजागरण भी किया। इस प्रकार मिशनरियों के 50 साल के षड्यन्त्र पर स्वामी जी ने झाड़ू फेर दिया।

स्वामी जी धर्म प्रचार के साथ ही सामाजिक व राष्ट्रीय सरोकारों से भी जुड़े थे। जब-जब देश पर आक्रमण हुआ या कोई प्राकृतिक आपदा आई, उन्होंने जनता को जागरूक कर सहयोग किया; पर चर्च को इससे कष्ट हो रहा था, इसलिए उन पर नौ बार हमले हुए। हत्या से कुछ दिन पूर्व ही उन्हें धमकी भरा पत्र मिला था। इसकी सूचना उन्होंने पुलिस को दे दी थी; पर पुलिस ने कुछ नहीं किया। यहां तक कि उनकी सुरक्षा को और ढीला कर दिया गया। इससे संदेह होता है कि चर्च और नक्सली कम्युनिस्टों के साथ कुछ पुलिस वाले भी इस षड्यन्त्र में शामिल थे।

स्वामी जी का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उनकी हत्या के बाद पूरे कंधमाल और निकटवर्ती जिलों में वनवासी हिन्दुओं में आक्रोश फूट पड़ा। लोगों ने मिशनरियों के अनेक केन्द्रों को जला दिया। चर्च के समर्थक अपने गांव छोड़कर भाग गये। स्वामी जी के शिष्यों तथा अनेक संतों ने हिम्मत न हारते हुए सम्पूर्ण उड़ीसा में हिन्दुत्व के ज्वार को और तीव्र करने का संकल्प लिया है।

मारवाड़ के रक्षक वीर दुर्गादास राठौड़



अपनी जन्मभूमि मारवाड़ को मुगलों के आधिपत्य से मुक्त कराने वाले वीर दुर्गादास राठौड़ का जन्म 13 अगस्त, 1638 को ग्राम सालवा में हुआ था। उनके पिता जोधपुर राज्य के दीवान श्री आसकरण तथा माता नेतकँवर थीं। आसकरण की अन्य पत्नियाँ नेतकँवर से जलती थीं। अतः मजबूर होकर आसकरण ने उसे सालवा के पास लूणवा गाँव में रखवा दिया। छत्रपति शिवाजी की तरह दुर्गादास का लालन-पालन उनकी माता ने ही किया। उन्होंने दुर्गादास में वीरता के साथ-साथ देश और धर्म पर मर-मिटने के संस्कार डाले।

उस समय मारवाड़ में राजा जसवन्त सिंह (प्रथम) शासक थे। एक बार उनके एक मुँहलगे दरबारी राईके ने कुछ उद्दण्डता की। दुर्गादास से सहा नहीं गया। उसने सबके सामने राईके को कठोर दण्ड दिया। इससे प्रसन्न होकर राजा ने उन्हें निजी सेवा में रख लिया और अपने साथ अभियानों में ले जाने लगे। एक बार उन्होंने दुर्गादास को ‘मारवाड़ का भावी रक्षक’ कहा; पर वीर दुर्गादास सदा स्वयं को मारवाड़ की गद्दी का सेवक ही मानते थे।

उस समय उत्तर भारत में औरंगजेब प्रभावी था। उसकी कुदृष्टि मारवाड़ के विशाल राज्य पर भी थी। उसने षड्यन्त्रपूर्वक जसवन्त सिंह को अफगानिस्तान में पठान विद्रोहियों से लड़ने भेज दिया। इस अभियान के दौरान नवम्बर 1678 में जमरूद में उनकी मृत्यु हो गयी। इसी बीच उनकी रानी आदम जी ने पेशावर में एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम अजीत सिंह रखा गया। जसवन्त सिंह के मरते ही औरंगजेब ने जोधपुर रियासत पर कब्जा कर वहाँ शाही हाकिम बैठा दिया। उसने अजीतसिंह को मारवाड़ का राजा घोषित करने के बहाने दिल्ली बुलाया। वस्तुतः वह उसे मुसलमान बनाना या मारना चाहता था।

इस कठिन घड़ी में दुर्गादास अजीत सिंह के साथ दिल्ली पहुंचे। एक दिन अचानक मुगल सैनिकों ने अजीत सिंह के आवास को घेर लिया। अजीत सिंह की धाय गोरा टांक ने पन्ना धाय की तरह अपने पुत्र को वहां छोड़ दिया और उन्हें लेकर गुप्त मार्ग से बाहर निकल गयी। उधर दुर्गादास ने हमला कर घेरा तोड़ दिया और वे भी जोधपुर की ओर निकल गये। उन्होेंने अजीत सिंह को सिरोही के पास कालिन्दी गाँव में पुरोहित जयदेव के घर रखवा कर मुकुनदास खीची को साधु वेश में उनकी रक्षा के लिए नियुक्त कर दिया। कई दिन बाद औरंगजेब को जब वास्तविकता पता लगी, तो उसने बालक की हत्या कर दी।

अब दुर्गादास मारवाड़ के सामन्तों के साथ छापामार शैली में मुगल सेनाओं पर हमले करने लगे। उन्होंने मेवाड़ के महाराणा राजसिंह तथा मराठों को भी जोड़ना चाहा; पर इसमें उन्हें पूरी सफलता नहीं मिली। उन्होंने औरंगजेब के छोटे पुत्र अकबर को राजा बनाने का लालच देकर अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह के लिए तैयार किया; पर दुर्भाग्यवश यह योजना भी पूरी नहीं हो पायी।

अगले 30 साल तक वीर दुर्गादास इसी काम में लगे रहे। औरंगजेब की मृत्यु के बाद उनके प्रयास सफल हुए। 20 मार्च, 1707 को महाराजा अजीत सिंह ने धूमधाम से जोधपुर दुर्ग में प्रवेश किया। वे जानते थे कि इसका श्रेय दुर्गादास को है, अतः उन्होंने दुर्गादास से रियासत का प्रधान पद स्वीकार करने को कहा; पर दुर्गादास ने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया। उनकी अवस्था भी अब इस योग्य नहीं थी। अतः वे अजीतसिंह की अनुमति लेकर उज्जैन के पास सादड़ी चले गये। इस प्रकार उन्होंने महाराजा जसवन्त सिंह द्वारा उन्हें दी गयी उपाधि ‘मारवाड़ का भावी रक्षक’ को सत्य सिद्ध कर दिखाया। उनकी प्रशंसा में आज भी मारवाड़ में निम्न पंक्तियाँ प्रचलित हैं -

माई ऐहड़ौ पूत जण, जेहड़ौ दुर्गादास
मार गण्डासे थामियो, बिन थाम्बा आकास।।

सोमवार, 22 अगस्त 2016

बन्दा बहादुर

बन्दा बहादुर / बंदा सिंह बहादुर / लछमन दास / लछमन देव / माधो दास

बन्दा बहादुर (जन्म - 16 अक्टूबर 1670, राजौरी; मृत्यु - जून 1716, दिल्ली) प्रसिद्ध सिक्ख सैनिक और राजनीतिक नेता थे। भारत के मुग़ल शासकों के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने वाले पहले सिक्ख सैन्य प्रमुख, जिन्होंने सिक्खों के राज्य का अस्थायी विस्तार भी किया।

जीवन परिचय



बन्दा बहादुर का जन्म 1670 ई. में कश्मीर के पुंछ ज़िले के राजौरी क्षेत्र में एक राजपूत परिवार में हुआ था। उसका बचपन का नाम 'लक्ष्मण देव' था। 15 वर्ष की उम्र में वह एक बैरागी का शिष्य बना और उसका नाम 'माधोदास' हो गया। कुछ समय तकपंचवटी (नासिक) में रहने के बाद दक्षिण की ओर चला गया और उसने वहाँ एक आश्रम की स्थापना की। दसवें गुरु गोविन्द सिंह की 1708 ई. में हत्या हो जाने के बाद बन्दा सिक्खों का नेता बना। वह सिक्खों का आध्यात्मिक नेता नहीं था, किन्तु 1708 से 1715 ई. तक अपनी मृत्यु पर्यन्त उनका राजनीतिक नेता रहा।

अन्य नाम


युवावस्था में उन्होंने पहले समन (योगी) बनने का निश्चय किया और 1708 में गुरु गोबिंद सिंह का शिष्य बनने तक वह माधो दास के नाम से जाने जाते रहे। सिक्ख बिरादरी में शामिल होने के बाद उनका नाम बंदा सिंह बहादुर हो गया और वह लोकप्रिय तो नहीं, सम्मानित सेनानी अवश्य बन गए, उनके तटस्थ, ठंडे और अवैयक्तिक स्वभाव ने उन्हें उनके लोगों के बीच लोकप्रिय नहीं बनने दिया।

प्रतिशोध


1708 ई. में सिक्खों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह ने बन्दा के आश्रम को देखा। उन्होंने माधोदास कोसिक्ख धर्म में दीक्षित किया और उसका नाम 'बन्दा सिंह' रख दिया। गुरु गोविन्द सिंह जी के सात और नौ वर्ष के बच्चों की जब सरहिन्द के फ़ौजदार वज़ीर ख़ाँ ने क्रूरता के साथ हत्या कर दी, तो बन्दा सिंह पर इसकी बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। उसने वज़ीर ख़ाँ से बदला लेना अपना मुख्य कर्तव्य मान लिया। उसने पंजाब आकर बड़ी संख्या में सिक्खों को संगठित किया और सरहिन्द पर क़ब्ज़ा करके वज़ीर ख़ाँ को मार डाला।

राज्य विस्तार एवं अज्ञातवास


बन्दा बहादुर ने यमुना और सतलुज के प्रदेश को अपने अधीन कर लिया और मुखीशपुर में लोहागढ़ (लोहगढ़ अथवा लौहगढ़) नामक एक मज़बूत क़िला निर्मित कराया, इसके साथ ही राजा की उपाधि ग्रहण कर अपने नाम से सिक्के भी जारी करा दिये। कुछ काल बाद सम्राट बहादुर शाह प्रथम (1707-12) ने शीघ्र ही लोहगढ़ पर घेरा डालकर उसे अपने अधीन कर लिया। बन्दा तथा उसके अनेक अनुयायियों को बाध्य होकर शाह प्रथम की मृत्यु तक अज्ञातवास करना पड़ा।

मुग़लों से सामना


बन्दा बहादुर ने 1706 में मुग़लों पर हमला करके बहुत बड़े क्षेत्र पर क़ब्ज़ा कर लिया। इसके उपरान्त बन्दा ने लोहगढ़ को फिर से अपने अधिकार में कर लिया और सरहिन्द के सूबे में लूटपाट आरम्भ कर दी। दक्कन क्षेत्र में अनके द्वारा लूटपाट और क़त्लेआम से मुग़लों को उन पर पूरी ताकत से हमला करना पड़ा। किन्तु 1715 ई. में मुग़लों नेगुरदासपुर के क़िले पर घेरा डाल दिया। बन्दा उस समय उसी क़िले में था। कई माह की घेराबन्दी के बाद खाद्य सामग्री के अभाव के कारण उन लोगों को आत्म समर्पण करने के लिए बाध्य होना पड़ा। मुग़लों ने क़िले पर अधिकार करने के साथ ही बन्दा तथा उसके अनेक साथियों को बन्दी बना लिया।

शहादत


फ़रवरी, 1716 में बन्दा और उसके 794 साथियों को कैद करके दिल्ली ले जाया गया। उन्हें अमानुषिक यातनाएँ दी गईं। प्रतिदिन 100 की संख्या में सिक्ख फाँसी पर लटकाए गए। बन्दा के सामने उसके पुत्र को मार डाला गया। जब उनकी बारी आई, तो बंदा सिंह ने मुसलमान न्यायाधीश से कहा कि उनका यही हाल होना था, क्योंकि अपने प्यारे गुरु गोबिंद सिंह की इच्छाओं को पूरा करने में वह नाक़ाम रहे। उन्हें लाल गर्म लोहे की छड़ों से यातना देकर मार डाला गया। फ़र्रुख़सियर के आदेश पर बन्दा के शरीर को गर्म चिमटों से नुचवाया गया और फिर हाथी से कुचलवाकर उसे मार डाला गया। यह घटना 16 जून, 1716 ई. को हुई थी।