मंगलवार, 21 जून 2016

संघ को बदनाम करने का राजनीतिक षड़यंत्र

खंडित होकर स्वतंत्र हुए भारत के सामने सबसे पहला पीड़ादायक प्रसंग महात्मा गाँधी की जघन्य हत्या के रूप में प्रस्तुत हुआ। आजादी के बाद देश के विकास में सभी राष्ट्रभक्त शक्तियों का सहयोग लेकर आगे बढ़ने का दायित्व सत्ताधारीयों पर था। किन्तु गाँधी हत्या का प्रयोग सरकार ने अपनी दलगत राजनीति की स्वार्थपूर्ति में किया। गाँधी हत्या से एक दिन पहले दिनांक 29 जनवरी 1948 को प्रधानमन्त्री पं. नेहरू ने अमृतसर की सभा में घोषणा की थी कि ‘हम संघ को जड़-मूल से नष्ट करके ही रहेंगें’। यह संघ को कुचल डालने का षडयंत्र था। संघ पर गाँधी हत्या का आरोप लगाकर बिना किसी सबूत के 4 फरवरी 1948 को संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। देशभर में भयानक विषाक्त वातावरण फैलाया गया। हिंसा, लूटपाट व आगजनी का तांडव सर्वत्र भड़काया गया । समाज विरोधी सारी शक्तियों को खुली छूट दे दी, परिणाम स्वरूप देशभर में मानवता चीत्कार करने लगी और पशुता हुंकारने लगी। विदेशी ब्रिटिश शासन भी जिस निम्न स्तर पर नहीं उतरा था, उससे भी नीचे उतरकर दमन चक्र चलाया गया। 


लेकिन वास्तविकता न्यायिक प्रक्रिया में सामने आ गई। 30 जनवरी 1948 को गाँधी जी की हत्या हुई थी। हत्या करने वाले नाथू राम गोडसे ने पिस्तौल सहित समर्पण कर दिया और जाँच में सामने आया की हत्या में चंद लोग शामिल थे। आरोपी बनायें गए संघ के वर्तमान सरसंघचालक श्री गुरु जी गोलवलकर पर से हत्या का आरोप 6 फरवरी 1948 को सरकार हटाने पर मजबूर हो गई। 


26 फरवरी को जाँच के प्रति असंतोष व्यक्त करते हुए नेहरु जी ने सरदार पटेल को पत्र लिखा। पत्र के उत्तर में सरदार पटेल ने प्रधानमंत्री नेहरु को लिखा – ‘ गाँधी जी की हत्या के संबंध में चल रही कार्यवाही से मै पूरी तरह अवगत हूँ। यह बात भी असंदिग्ध रूप से उभर कर सामने आई है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का इससे कतई संबंध नहीं है’। 

मामला विशेष अदालत में पंहुचा। आई.सी.एस कैडर के न्यायमूर्ति अत्माचरण की विशेष अदालत में दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले में 26 मई से सुनवाई शुरू हुई। अभियोजन पक्ष ने 8 अभियुक्तों के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किये। ये थे – नाथूराम गोडसे और उसके भाई गोपाल गोडसे, नारायण आप्टे, विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, शंकर किस्तैया, दत्तात्रेय परचुरे और स्वतंत्रता सेंनानी विनायक दामोदर सावरकर। दिगंबर बागडे सरकारी गवाह बन गया। 

110 पेजों का निर्णय 10 जनवरी 1949 को सुनाया गया। निर्दोष सावरकर जी को ससम्मान रिहा कर दिया गया। नाथूराम गोडसे व नारायण आप्टे को फांसी और शेष 5 को आजन्म कारावास की सजा सुनाई गई। न्यायमूर्ति आत्माचरण ने निसंदेह यह घोषणा की कि इस षड्यंत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कोई संबंध नहीं है। 

न्याय प्रक्रिया में चारो पक्ष- सरकारी पक्ष, सफाई पक्ष, अभियुक्त पक्ष और न्यायधीश किसी ने भी संघ से इस काण्ड का संबंध नहीं जोड़ा। सरकार की ओर से प्रस्तुत वरिष्ठ अधिवक्ता श्री दफ्तरी ने पुरे मुकदमे में संघ का उल्लेख तक नहीं किया। 

इसके पश्चात पंजाब उच्च न्यायलय में हुई अपील में परचुरे और किस्तैया को बरी कर दिया गया और नाथू राम गोडसे और आप्टे को15 नवम्बर 1949 को फांसी दे दी गई। विशेष न्यायलय और उच्च न्यायलय के निर्णय में भी संघ को निर्दोष घोषित कर दिया गया। परन्तु संघ विरोधी षड्यंत्र चलते रहे।



इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद गाँधी जी की हत्या के 19 वर्षो बाद 1966 में नए सिरे से न्यायिक जाँच हेतु जस्टिस श्री टी.एल कपूर की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन हुआ। गठित आयोग ने 101 साक्ष्यो के बयान दर्ज किये तथा 407 दस्तावेज़ी सबूतों की जाँच पड़ताल कर 1968 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। कपूर आयोग के समक्ष सबसे महत्वपूर्ण सरकारी साक्ष्य – गाँधी हत्या के समय केंद्रीय सचिव श्री आर.एन.बेनर्जी थे – ‘ जिन्होंने सपष्ट रूप से स्वीकारा – “ गाँधी के हत्यारे संघ के सदस्य नहीं थे।” इसके बाद आयोग ने संघ विरोधी और सत्ताधारियों की इस मान्यता को नकार दिया कि गाँधी जी की हत्या में संघ का हाथ था और राष्ट्रव्यापी षड़यंत्र रचा गया था। 

मध्यप्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री रहे पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने अपनी आत्मकथा ‘ लिविंग एन इरा ’ के द्वितीय खंड के पृष्ठ 59 पर लिखा है कि – “ इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि गाँधी जी की हत्या ने स्वार्थी राजनेताओ के हाथ में अपने विरोधियो को बदनाम करने तथा यदि संभव हो तो उन्हें नेस्तनाबूद करने का हथियार दे दिया है।”

यह बात बड़ी दिलचस्प है कि संघ पर से प्रतिबन्ध हटाते समय नेहरु सरकार ने संघ पर लगाए गए आरोपों की चर्चा भी नहीं की। 

प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने लोकसभा के एक प्रश्न के उत्तर में स्वीकार किया कि गाँधी हत्या में संघ का कोई हाथ नहीं है। 

यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है की तीन-तीन न्यायलयों के निर्णयों के बाद भी न्यायपालिका के सम्मान की दुहाई देने वाले आजतक इस झूठ को बार-बार दोहराते है।

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