“मैं, श्रीमान् ...... महाराजाधिराज श्री हरी सिंह जी ........ जम्मू व कश्मीर का शासक ........ “रियासत पर अपनी संप्रभुता का निर्वाह करते हुए एतद्द्वारा अपने इस विलय के प्रपत्र का निष्पादन करता हूं ....” यह वही प्रपत्र है जिस पर देश की सभी रियासतों के शासकों ने हस्ताक्षर किये थे। जम्मू कश्मीर के शासक महाराजा हरी सिंह ने भी इस प्रपत्रपर ही हस्ताक्षर किये थे। इस विलय को स्वीकार करते हुए तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने लिखा “..... मैं एतद्द्वारा विलय के इस प्रपत्र को अक्तूबर के सत्ताईसवें दिन सन् उन्नीस सौ सैंतालीस को स्वीकार करता हूं।“ यह भी वहीं भाषा है जिसे माउंटबेटन ने अन्य सभी रियासतों के विलय को स्वीकार करते हुए लिखा था। जब विलय का प्रपत्र और स्वीकृति, दोनों ही सभी रियासतों के समान थे तो विवाद का विषय ही कहां बचता है ? अतः कथित विवाद का जो रूप आज हमें अनुभव होता है, वह तथ्य नहीं बल्कि प्रयासपूर्वक गढ़ा गया एक भ्रम है जिसे बनाये रखने में न केवल अलगाववादी तत्वों की बल्कि राज्य व केन्द्र सरकार की भी भूमिका है।
सच यह है कि पाकिस्तान की ओर से हुए आक्रमण की भारी कीमत राज्य के नागरिकों को उठानी पड़ी जिसके कारण आम नागरिक भी पाकिस्तान को आक्रमणकारी मानता था और उसके साथ विलय की सोच भी नहीं सकता था। यहां तक कि प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के सबसे निकट रहे शेख अब्दुल्ला, जिन्हें राज्य का प्रधानमंत्री बनाये जाने की जिद के चलते ही जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय में इतना विलम्ब हुआ, अपने ही कारणों से जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद का विरोध करते थे और पाकिस्तान में विलय के पूरी तरह खिलाफ थे।
इसके बावजूद जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को लेकर जो भ्रम उत्पन्न हुआ उसका मुख्य कारण नेहरू द्वारा राज्य के साथ अन्य रियासतों से भिन्न दृष्टिकोण अपनाया जाना है। विलय करने वाली रियासतों के साथ सामान्य नीति यह थी कि एक चुनी हुई स्थानीय लोकप्रिय सरकार बनायी जाय जिसमें एक मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री राजा के दीवान की वरिष्ठ स्थिति में हो जब तक कि नवस्वाधीन राष्ट्र व्यवस्था को अपने हाथ में न ले ले। जम्मू कश्मीर में यह व्यवस्था भिन्न रूप में पहले से ही लागू थी। किन्तु पं नेहरू की यह जिद थी कि महाराजा विलय के पूर्व ही शेख अब्दुल्ला को सत्ता सौंप दें। महाराजा को यह स्वीकार नहीं था। महाराजा की इस हिचक को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है।
यह नहीं भूलना चाहिये कि हरि सिंह देश की सबसे बड़ी रियासतों में से एक के महाराजा थे। महाराजा हरि सिंह एक देश भक्त राजा थे ।
‘नरेन्द्र मण्डल’ के अध्यक्ष की हैसियत से ही उन्होंने लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया था जिसमें उन्होंने दृढ़ता से भारत की स्वतंत्रता का पक्ष रखा था। उन्होंने ब्रिटिश प्रतिनिधियों को यह भी परामर्श दिया कि वे रियासतों के राजाओं की स्थिति के बारे में अधिक चिंतित न हो और स्वतंत्रता के बाद रियासतों के साथ संबंध का मामला वे रियासतों के राजाओं पर छोड़ दें। स्वाभाविक ही अंग्रेजों को महाराजा का यह आग्रह पसंद नहीं आया और उन्होंने महाराजा को सबक सिखाने का निश्चय कर लिया। 1947 में उन्हें यह अवसर मिल गया।
पृष्ठभूमि
जम्मू कश्मीर में स्वतंत्रता से पूर्व नेशनल कांफ्रेंस और मुस्लिम कांफ्रेंस दो प्रमुख दल सक्रिय थे। 1939 में नेशनल कांफ्रेंस
का गठन हुआ। नेशनल कांफ्रेंस का केवल कश्मीर घाटी में अच्छा प्रभाव था । मुस्लिम कांफ्रेंस को जम्मू के अनेक क्षेत्रो छिट-पुट समर्थन हासिल था। कोई भी दल भारत के खिलाफ नहीं था जिससे यह अनुमान लगाया जा सके कि राज्य की जनता में भारत में विलय के संबंध में कोई ऊहा-पोह थी।
जब भारत की स्वतंत्रता का निश्चय हो गया और यह चर्चा शुरू हो गयी कि अंग्रेज कांग्रेस को सत्ता सौंपेंगे, साथ ही भारत का एक हिस्सा काट कर पाकिस्तान नाम का नया राज्य बनेगा जिसकी बागडोर जिन्ना संभालेंगे, तो शेख के मन में भी यह इच्छा बलवती हो गयी कि कश्मीर की सत्ता उसे सौंपी जानी चाहिये। 1946 में नेशनल कांफ्रेस ने ‘कश्मीर छोड़ो’ का नारा दिया जो अंग्रेजो के विरुद्ध नहीं बल्कि महाराजा के खिलाफ था। उसकी मांग थी कि कांग्रेस की तर्ज पर नेशनल कांफ्रेंस को सत्ता सौंप कर महाराजा कश्मीर छोड़ दें।परिणामस्वरूप महाराजा ने राजद्रोह के आरोप में शेख को कारावास में डाल दिया। पं नेहरू ने शेख के आंदोलन का समर्थन किया जो महाराज और नेहरू के संबंधों में खटास का कारण बना।
पं नेहरू की जिद के चलते महाराजा को शेख के हाथों सत्ता सौंपने को विवश होना पड़ा। किन्तु इससे पूर्व शेख को जेल से तभी छोड़ा गया जब उसने महाराजा के प्रति निष्ठा की शपथ ली। 26 सितम्बर 1947 को महाराजा को लिखे गये अपने पत्र में शेख अब्दुल्ला ने लिखा :–
“इस बात के बावजूद कि भूतकाल में क्या हुआ है, मैं महाराजा को यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि मैंने और मेरी पार्टी ने कभी भी महाराज या उनकी राजगद्दी या उनके राजवंश के प्रति कभी भी अनिष्ठा की भावना नहीं रखी है। ...... महाराज, मैं अपने और अपने संगठन की ओर से आपको पूर्ण निष्ठा व समर्थन का आश्वासन देता हूं .... पत्र खत्म करने से पहले महाराज मैं एक बार फिर अपनी अविचल निष्ठा का आश्वासन देता हूं और ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वह मुझे महामहिम के संरक्षण में वह अवसर प्रदान करें कि इस राज्य को शांति, समृद्धि और सुशासन हासिल हो सके।“
1 अक्तूबर 1947 को श्रीनगर के हजूरी बाग में एक सभा को संबोधित करते हुए शेख ने कहा – ‘जब तक मेरे शरीर में खून की आखिरी बूंद है तब तक मैं द्विराष्ट्र के सिद्धांत में विश्वास नहीं करूंगा।‘ यह दर्शाता है कि मतभेद के बावजूद शेख स्वयं भी पाकिस्तान के साथ जाने को तत्पर नहीं थे। यद्यपि भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के अनुसार विलय का निर्णय करने का अधिकार केवल शासक को ही था, जनमत का वहां कोई संदर्भ ही न था, फिर भी, कहा जा सकता है कि जम्मू कश्मीर का बहुमत, यहां तक कि मुस्लिम बहुमत भी भारत में विलय के विरुद्ध नहीं था।
विवाद की जड़
देखा जाय तो सारे विवाद की जड़ में है विलय पत्र पर हस्ताक्षर के साथ ही माउंटबेटन द्वारा महाराजा हरि सिंह को लिखा गया पत्र, जिसमें उन्होंने जनता की राय लेने की बात कही। उन्होंने लिखा – “अपनी उस नीति को ध्यान में रखते हुए कि जिस रियासत में विलय का मुद्दा विवादास्पद हो वहां विलय की समस्या का समाधान रियासत के लोगों की आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए किया जाय, मेरी सरकार की इच्छा है कि जब रियासत में कानून और व्यवस्था बहाल हो जाय और इसकी भूमि को आक्रमणकारियों से मुक्त कर दिया जाय तो रियासत के विलय का मामला लोगों की राय लेकर सुलझाया जाय।“ इस पत्र की कीमत सिर्फ यही है कि यह गवर्नर जनरल द्वारा महाराजा हरि सिंह को लिखा गया है। इसकी कोई वैधानिक स्थिति नहीं है क्योंकि इस प्रकार के सशर्त विलय का कोई प्रावधान भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 में नहीं था।
यह तथ्य है कि महाराजा ने अपने हस्ताक्षर किये हुए विलय पत्र के साथ एक पत्र भेजा था जिसमें विलय का निर्णय करने में हुए विलम्ब के कारणों पर प्रकाश डाला था। किन्तु उन्होंने इसमें कहीं भी राज्य में विलय को लेकर हुए किसी विवाद की चर्चा तक नहीं की है। न तो उसमें भारत में विलय को लेकर जनता के विरोध का उल्लेख है और न ही पाकिस्तान के साथ विलय अथवा स्वतंत्रता की मांग संबंधी किसी आन्दोलन का जिक्र। अन्य उपलब्ध दस्तावेजों में भी कहीं ऐसे किसी विवाद का संदर्भ नहीं मिलता। फिर भी माउंटबेटन द्वारा विलय को विवादित बताया जाना किसी दूरगामी राजनीति की ओर संकेत करता है।
माउंटबेटन ने 27 अक्तूबर 1957 को यह पत्र महाराजा के पत्र के उत्तर में लिखा था। यद्यपि वैधानिक आधार पर इस पत्र का कोई मूल्य नहीं, किन्तु फिर भी गवर्नर जनरल ने जनमत संग्रह का प्रपंच रचते समय इसे अपनी निजी राय नहीं बताया। वे इसे ‘अपनी सरकार की इच्छा’ कहते हैं। यदि यह सत्य है तो इसके कारण राष्टीय हित को पहुंचे नुकसान की जिम्मेदारी तत्कालीन कांग्रेस सरकार तथा व्यक्तिगत रूप से प्रधानमंत्री नेहरू की बनती है। यदि यह झूठ है तो गवर्नर जनरल द्वारा सरकार का नाम लेकर लिखे गये इस झूठ का आज तक खण्डन क्यों नहीं किया गया ? साथ ही, यदि यह सरकार की नीति थी तो इसे केवल जम्मू कश्मीर पर ही क्यों लादा गया ? माउंटबेटन अथवा सरकार द्वारा किसी भी रियासत को इस प्रकार का कोई पत्र नहीं भेजा गया। यह प्रश्न आज भी जिंदा हैं और उत्तर चाहते हैं।
इस पत्र में माउंटबेटन यह भी लिखते हैं कि – ‘मुझे और मेरी सरकार को यह जानकर काफी संतुष्टि है कि महामहिम ने अपने प्रधानमंत्री के साथ काम काम करने के लिये शेख अब्दुल्ला को अंतरिम सरकार बनाने के लिये आमंत्रित किया है।‘ अनेक बार लोग कश्मीर में नेहरू की व्यक्तिगत रुचि तथा शेख के साथ उनकी व्यक्तिगत मित्रता को सारे फसाद की जड़ बताते हैं किन्तु इन जटिल परिस्थितियों में जेल से छुड़ा कर शेख को सत्ता सौंपने में माउंटबेटन की इतनी रुचि क्यों थी, इसका उत्तर उनके पत्र से नहीं मिलता। महाराजा हरि सिंह द्वारा माउंटबेटन अथवा ‘उनकी सरकार’ द्वारा विलय के साथ जोड़ी गयी कथित शर्तों को स्वीकार किया गया था अथवा यह शर्तें विलयपत्र का अंग बनीं, इसकी पुष्टि करने वाला भी कोई दस्तावेज मौजूद नहीं है। इसके बावजूद पत्र का सहारा लेने वाले अलगाववादी महाराजा हरिसिंह द्वारा लिखे गये पत्र को जान-बूझ कर नजरअंदाज कर देते हैं जिसमें वे स्पष्ट लिखते हैं कि मेरी रियासत के लोगों, हिन्दू और मुसलमान दोनों ही ने आम तौर पर इस उथल-पुथल में कोई हिस्सा नहीं लिया है। भारत सरकार द्वारा भी इस भ्रम को दूर करने के लिये अपेक्षित उपाय नहीं किये गये। माउंटबेटन के इस अवांछित हस्तक्षेप के पीछे पं. नेहरू से निजी संबंध तो संभवतः कारण थे ही, ब्रिटिश रणनीति भी कहीं-न-कहीं साथ चल रही थी। 5 फरवरी 1948 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में बहस के दौरान शेख अब्दुल्ला द्वारा “जम्मू कश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण मुद्दा है, विलय नहीं” कहे जाने के बावजूद पाकिस्तान के खिलाफ भारत की शिकायत की सुनवाई के समय इंग्लैंड और अमेरिका द्वारा जिस तरह पाकिस्तान का पक्ष लिया गया उससे इस संदेह की पुष्टि होती है। पाकिस्तान द्वारा जम्मू कश्मीर राज्य की भूमि को आक्रमणकारियों द्वारा खाली कराये जाने के अपने ही प्रस्ताव को लागू कराने के लिये संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा भी कुछ नहीं किया गया।
पाकिस्तान के खिलाफ शिकायत का मसौदा बनाये जाते समय और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के समक्ष शिकायत दर्ज कराते समय भारत सरकार द्वारा महाराजा हरि सिंह से परामर्श नहीं किया गया। तत्कालीन उपप्रधानमंत्री वल्लभ भाई पटेल को संबोधित 31 जनवरी 1948 के पत्र में महाराज हरि सिंह ने इस संदर्भ में अपनी चिंता व्यक्त की थी। उन्होंने इस पर गहरा खेद व्यक्त किया कि विलय के दो महींने के भीतर ही भारत ने मंगला घाटी, अलीबेग, गुरद्वारा, मीरपुर कस्बा, भिम्बर कस्बा, देवा और कोटली क्षेत्र, पाकिस्तान के हाथों गंवा दिये। उन्होंने यहां तक प्रस्ताव किया कि वह खुद भारतीय सेना की कमान का नेतृत्व करना चाहते हैं ताकि राज्य से घुसपैठियों और पाकिस्तानी सैन्य बलों को खदेड़ा जा सके। किन्तु लगता है कि विलय के पश्चात भारत सरकार ने महाराजा की पूर्ण उपेक्षा का मन बना लिया था।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि 1 जनवरी 1958 को संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुच्छेद 35 के अनुसार जम्मू कश्मीर पर पाकिस्तान के आक्रमण के मुद्दे को सुरक्षा परिषद में उठाते हुए भारत सरकार ने कहा - “वे आक्रमणकारी जिनमें पाकिस्तान के नागरिक और कबाइली शामिल हैं, जम्मू-व-कश्मीर जिसने भारत में विलय कर लिया है और जो भारत का अंग है, में कार्रवाई करने के लिये पाकिस्तान से सहायता ले रहे हैं। इस कारण से भारत और पाकिस्तान के बीच यह स्थिति पैदा हुई है। भारत सरकार सुरक्षा परिषद से प्रार्थना करती है कि वे पाकिस्तान से इस तरह की कार्रवाई रोकने के लिये कहें क्योंकि ऐसी सहायता भारत के विरुद्ध आक्रमण की कार्रवाई है और यदि पाकिस्तान नहीं रुका तो भारत सरकार आत्मरक्षा में पाकिस्तानी सीमा में घुसने और आक्रमणकारियों के विरुद्ध सैनिक अभियान चलाने के लिये मजबूर हो जायेगी।“ इसके ठीक एक वर्ष बाद 1 जनवरी 1949 को पाकिस्तान के अवैध कब्जे को खाली कराये बिना ही भारत ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी। युद्ध विराम के समय पाकिस्तान 85000 वर्ग किमी भू-भाग पर अवैध अधिकार किये हुए था जो आज भी जारी है।
संवैधानिक स्थिति
17 जून 1957 को भारतीय स्वाधीनता अधिनियम 1947 ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किया गया। 18 जुलाई को इसे शाही स्वीकृति मिली जिसके अनुसार 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई तथा उसके एक भाग को काट कर नवगठित राज्य पाकिस्तान का उदय हुआ। पाकिस्तान के अधीन पूर्वी बंगाल, पश्चिमी पंजाब, उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत एवं सिंध का भाग आया। ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहा शेष भू-भाग भारत के साथ रहा।
* इस अधिनियम से ब्रिटिश भारत की रियासतें अंग्रेजी राज की परमोच्चता से तो मुक्त हो गईं, परन्तु उन्हें राष्ट्र का दर्जा नहीं मिला और उन्हें यह सुझाव दिया गया कि भारत या पाकिस्तान में जुड़ने में ही उनका हित है। इस अधिनियम के लागू होते ही रियासतों की सुरक्षा की अंग्रेजों की जिम्मेदारी भी स्वयमेव समाप्त हो गई।
* भारत शासन अधिनियम 1935, जिसे भारतीय स्वाधीनता अधिनियम 1947 में शामिल किया गया, के अनुसार विलय के बारे में निर्णय का अधिकार राज्य के राजा को दिया गया। यह भी निश्चित किया गया कि कोई भी भारतीय रियासत उसी स्थिति में दो राष्ट्रों में से किसी एक में मिली मानी जायेगी, जब गवर्नर जनरल उस रियासत के शासन द्वारा निष्पादित विलय पत्र को स्वीकृति प्रदान करें।
* भारतीय स्वाधीनता अधिनियम 1947 में सशर्त विलय के लिये कोई प्रावधान नहीं था।
26 अक्तूबर 1947 को महाराजा हरिसिंह ने भारत वर्ष में जम्मू-कश्मीर का विलय उसी वैधानिक विलय पत्र के आधार पर किया, जिसके आधार पर शेष सभी रजवाड़ों का भारत में विलय हुआ था तथा भारत के उस समय के गवर्नर जनरल माउण्टबेटन ने उस पर हस्ताक्षर किये थे.... “मैं एतद्द्वारा इस विलय पत्र को स्वीकार करता हूं'' दिनांक सत्ताईस अक्तूबर उन्नीस सौ सैंतालीस (27 अक्तूबर 1947) महाराजा हरिसिंह द्वारा हस्ताक्षरित जम्मू-कश्मीर के विलय पत्र से संबंधित अनुच्छेद, जो कि जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय को पूर्ण व अंतिम दर्शाते हैं, इस प्रकार हैं :-
(अनुच्छेद -1) ''मैं एतद्द्वारा घोषणा करता हूं कि मैं भारतवर्ष में इस उद्देश्य से शामिल होता हूं कि भारत के गवर्नर जनरल, अधिराज्य का विधानमंडल, संघीय न्यायालय, तथा अधिराज्य के उद्देश्यों से स्थापित अन्य कोई भी अधिकरण (Authority), मेरे इस विलय पत्र के आधार पर किन्तु हमेशा इसमें विद्यमान अनुबंधों (Terms) के अनुसार, केवल अधिराज्य के प्रयोजनों से ही, कार्यों का निष्पादन (Execute) करेंगे।''
(अनुच्छेद - 9) ''मैं एतद्द्वारा यह घोषणा करता हूं कि मैं इस राज्य की ओर से इस विलय पत्र का क्रियान्वयन (Execute) करता हूं तथा इस पत्र में मेरे या इस राज्य के शासक के किसी भी उल्लेख में मेरे वारिसों व उतराधिकारियों का उल्लेख भी अभिप्रेत हैं।
विलय पत्र में अनुच्छेद -1 के अनुसार, जम्मू-कश्मीर भारत का स्थायी भाग है।
* भारतीय संविधान के अनुच्छेद -1 के अनुसार जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग है। भारत संघ कहने के पश्चात दी गई राज्यों की सूची में जम्मू-कश्मीर क्रमांक -15 का राज्य है।
महाराजा हरी सिंह ने अपने पत्र में कहा:-
“मेरे इस विलय पत्र की शर्तें भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1957 के किसी भी संशोधन द्वारा परिवर्तित नहीं की जायेंगी, जब तक कि मैं इस संशोधन को इस विलय पत्र के पूरक (Instrument Supplementary) में स्वीकार नहीं करता।''
भारतीय स्वाधीनता अधिनियम 1947 के अनुसार शासक द्वारा विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने के उपरान्त आपत्ति करने का अधिकार पंडित नेहरू, लार्ड माउण्टबेटन, मोहम्मद अली जिन्ना, इंग्लैंड की महारानी, इंग्लैंड की संसद तथा संबंधित राज्यों के निवासियों को भी नहीं था।
1951 में राज्य संविधानसभा का निर्वाचन हुआ। संविधान सभा में विपक्षी दलों के सभी प्रत्याशियों के नामांकन निरस्त कर दिये गये। सभी 75 सदस्य शेख अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कांफ्रेंस के थे जिनमें से 73 कोई अन्य प्रत्याशी न होने के कारण निर्विरोध निर्वाचित मान लिये गये। मौलाना मसूदी इसके अध्यक्ष बने। इसी संविधान सभा ने 6 फरवरी 1954 को राज्य के भारत में विलय की अभिपुष्टि की। 14 मई 1954 को भारत के महामहिम राष्ट्रपति ने भारतीय संविधान के अस्थायी अनुच्छेद 370 के अंतर्गत संविधान आदेश (जम्मू व कश्मीर पर लागू) जारी किया जिसमें राष्ट्र के संविधान को कुछ अपवादों और सुधारों के साथ जम्मू व कश्मीर राज्य पर लागू किया गया।
राज्य का अपना संविधान 26 जनवरी 1957 को लागू किया गया जिसके अनुसार :-
धारा - 3 : जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा।
धारा - 4 : जम्मू-कश्मीर राज्य का अर्थ वह भू-भाग है जो दि.15 अगस्त 1947 तक राज्य के राजा के आधिपत्य या संप्रभुता के अधीन था I
इसी संविधान की धारा -147 में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि धारा - 3 व धारा - 157 को कभी बदला नहीं जा सकता।
1975 के इंदिरा-शेख अब्दुल्ला समझौते में पुन: यह कहा गया कि :- जम्मू-कश्मीर राज्य भारतीय संघ का एक अविभाज्य अंग है, इसका संघ के 'साथ' अपने संबंधों का निर्धारण भारतीय संविधान के अस्थायी अनुच्छेद -370 के अंतर्गत ही रहेगा।
14 नवम्बर 1962 को संसद में पारित संकल्प एवं 22 फरवरी 1994 को संसद में सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव में स्पष्ट रूप से यह कहा गया कि जो क्षेत्र चीन द्वारा (1962 में) व पाकिस्तान द्वारा (1947 में) हस्तगत कर लिये गये, वह हम वापिस लेकर रहेंगे, और इन क्षेत्रों के बारे में कोई सरकार समझौता नहीं कर सकती।
इतने तथ्यों के बावजूद जो लोग भ्रम का वातावरण निर्माण कर रहे हैं अथवा अलगाववादी मांगों का समर्थन कर रहे हैं वे प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में सहभागी है। समय आ गया है कि केन्द्र व राज्य सरकार ऐसे तत्वों से कड़ाई से निपटे। साथ ही इन तथ्यों को देश की जनता तक स्पष्ट रूप से पहुंचाए जाने के गंभीर प्रयास हों ताकि इस विषय पर गत छः दशक से अधिक से छाया कुहासा छंट सके। राष्ट्रीय की अभिवृद्धि हो तथा जम्मू कश्मीर के वे नागरिक जो अनुछेद 370 की आड़ में बनाये गए प्रावधानों के चलते अपने मौलिक अधिकारों से वंचित है, उन्हें देश की मुख्य धारा में शामिल होने का अवसर मिल सके।
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